हिंदू कोई धर्म नही, सम्प्रदाय नही बल्कि एक जीवन पद्धती है !
हैरत है! इस सोच के पीछे कुछ और नही सिर्फ़ हमारी विलक्षण होने की फितरत है. हम कुछ अलग हैं, विशेष है, श्रेष्ठ हैं , यह प्रकट रूप से कहा नही जा रहा है किंतु इस धारणा के मूल में यह अप्रत्यक्ष सोच ज़ाहिर है। इस्लाम भी तो एक जीवन पद्धती है; कहीं ज्यादा सम्पूर्ण और परिभाषित! इसी तरह अन्य धर्म भी एक जीवन शैली ही तो हैं किंतु अपने को विशेष समझने में कुछ जुदा ही अहसास होता है हम अन्य से बेहतर हैं। अह अहसास, यह श्रेष्ठता का विचार ही हमें प्रतिष्ठित कलाकरों की मूल कृतियों पर करोड़ों रुपये खर्च करने को उतेजित करती है जबकि उपयोगिता के धरातल पर श्रेष्ठ कृत्यों के मूल और नक़ल में नाम मात्र का फर्क होता है। ऐसा क्या है के एक ग़लत तरीके से प्रिंट डाक टिकट पर लाखों खर्च करने को हम प्रेरित हो जाते हैं?
सवाल उठता है के अगर कोई शख्स या समुदाय अपने को श्रेष्ठ समझता है तो इस बात से किसी अन्य को क्या फ़र्क पड़ता है? बात यहाँ ही नही ख़तम होती है, दरअसल इस विशिष्ट होने ललक के पीछे एक और भावना हावी होती है, सामने वाले पर सघन ईर्ष्या का भाव पैदा करना। यही भावना संस्कृतियों के टकराव का कारण होती है।
Thursday, November 27, 2008
Wednesday, November 26, 2008
धर्म और नैतिक व्यव्हार
सवाल उठता है की क्या समाज में नैतिक व्यवहार (ethical behavior) धर्म की वजह से है और अगर ऐसा है तो धर्म की आवश्यकता अपरिहार्य है अन्यथा धर्म मात्र हमारी अध्यात्मिक मांग है सामाजिक ज़रूरत नही।
अक्सर धर्म को हमारे नैतिक व्यवहार का कारण माना जाता है जबके सत्य इसके विपरीत है यानी धर्म स्वयं ही हमारे प्राकृतिक नैतिक व्यवहार का नतीज़ा है। नैतिक व्यवहार हमारे मानस में 'hardwired' है यानी हमारा प्राकृतिक गुण है। दरअसल निरंतर प्रजातीय विकास के दौरान जब हमने कबीलों में रहना सीखा यह उस वक्त विकसित हुआ होगा। चूंके प्रजातीय विकास का मुख्य इंजन 'survival' है और कबीलाई जीवन नैतिक व्यवहार के बिना संभव नही इसलिए इसका निरंतर विकास होता चला गया।
अर्थात समाज को धर्म की ज़रूरत नही है व्यक्तिगत तौर पर चाहे कुछ लोगों को इसकी ज़रूरत हो ........
अक्सर धर्म को हमारे नैतिक व्यवहार का कारण माना जाता है जबके सत्य इसके विपरीत है यानी धर्म स्वयं ही हमारे प्राकृतिक नैतिक व्यवहार का नतीज़ा है। नैतिक व्यवहार हमारे मानस में 'hardwired' है यानी हमारा प्राकृतिक गुण है। दरअसल निरंतर प्रजातीय विकास के दौरान जब हमने कबीलों में रहना सीखा यह उस वक्त विकसित हुआ होगा। चूंके प्रजातीय विकास का मुख्य इंजन 'survival' है और कबीलाई जीवन नैतिक व्यवहार के बिना संभव नही इसलिए इसका निरंतर विकास होता चला गया।
अर्थात समाज को धर्म की ज़रूरत नही है व्यक्तिगत तौर पर चाहे कुछ लोगों को इसकी ज़रूरत हो ........
Tuesday, November 18, 2008
अहम् ब्रह्म आष्मि!
दरअसल यह सही है उतना ही जितना यह संसार सत्य है। हर एक व्यक्ति इस विश्व का केन्द्र है। विश्व हमारी सोच का प्रतिबिम्ब मात्र है। गौर करें:
हर ज़र्रा चमकता है अनवार ऐ इलाही से
हर साँस ये कहती है, हम हैं तो ख़ुदा भी है!
या यूँ कहें "हम हैं तो ये विश्व भी है"
हर ज़र्रा चमकता है अनवार ऐ इलाही से
हर साँस ये कहती है, हम हैं तो ख़ुदा भी है!
या यूँ कहें "हम हैं तो ये विश्व भी है"
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( महाभारत का यह बेहद ही नाटकीय हिस्सा है, मैंने इस एक नया अर्थ देने की कोशिश की है) यक्ष - रुको! मेरे सवालों के जवाब दिए बिना तुम पानी नहीं ...