भालू के असामान्य आकार से शंकर आश्चर्य में डूब गए जबकि उनके शिष्य भयभीत थे। कुछ देर सोच विचार के बाद शंकर ने भयभीत शिष्यों की तरफ़ नज़र डाली फिर उन्हें अपने पीछे आना का इशारा किया। शंकर शांत भाव से अहिस्ता अहिस्ता भालू के पास से गुजर गए और उनके पीछे पीछे डरे हुए शिष्य भी चले आए। जब सबके के सब भालू के पास से गुज़र गए तो भालू ने ज़ोर से कहा:
"हे महान आचार्य, तुम सफल होगे और असफल भी।"
भालू की बात सुन सब आश्चर्य चकित रह गए, आचार्य ने मुड कर देखा और पूछा,
"आप ऐसा क्यों कह रहे हैं, महान रीछ"
"हे आचार्य तुम ज्ञानी हो और तीक्ष्ण द्रष्टि रखते हो। तुमने मेरे अप्राकृतिक आकार को देखा और जल्दी है निष्कर्ष निकला के मै कोई साधारण भालू नही हूँ, तुमने मेरे भावों को पढ़ा और ठीक अंदाज़ा लगाया के मैं कोई नुकशान पहुँचाने का इरादा नही रखता। तुम बेवजह जिज्ञासु भी नहीं इसलिए मेरी उपस्थित से सर्वथा उदासीन रहे। मेरी यहाँ उपस्थिति का तुम्हारे उधेश्य से कोई सरोकार नही इसलिए तुम ने मुझ नज़रंदाज़ कर दिया। तुम्हारा यही गुण यानी अपने उधेश्य पर पूर्ण 'फोकस' तुम्हे सफल बनाएगी। लेकिन विचित्र और असामन्य परिस्थिति को विस्तार से न जानने की तुम्हारी उदासीनता अंततः तुम्हे असफल भी कर देगी।"
ऐसा कह कर भालू चुपचाप जंगल तरफ मुडा़ और बियाबान में अदृश्य हो गया। आदि शंकर कुछ देर विचारमग्न और विस्मित से भालू की तरफ़ देखते रहे फिर आगे बढ़ गए। जल्द ही उन्हें नदी का किनारा मिल गया लेकिन साथ ही अब मार्ग अत्यधिक दुर्गम और चुनौतीपूर्ण चढाई वाला हो गया था। अब उनकी प्रगति अत्यन्त ही धीमी तथा थकान से कमर तोड़ने वाली हो गई थी लेकिन उन्होंने यात्रा साहस के साथ रुक रुक कर जारी रखी। अंततः कई दिनों की यात्रा के बाद वे एक ऊँचे पठार पर पहुंचे। ये एक अदभुद नज़ारा था। वनस्पति का नामोनिशान नहीं, दूर दूर तक छोटी छोटी हरी घास के सपाट टीलों का विस्तार और उसके पार हिमाच्छादित पर्वत श्रृंगमाला के छोर पर ग्लेशियर से टप टप टपकता हुआ पानी की बूंदों से मन्दाकिनी का स्रोत।
वहां की मनमोहक ताज़ी हवा, मन्दाकिनी के हीरे जैसे चमकते पानी का कलरव, हिम से ढंकी शिखरों का मनमोहक द्रश्य, और एक सर्वव्याप्त निस्तब्धता; पलक झपकते ही उनकी सारी थकान मिट गई। एक गहरा आत्मबोध उन्हें मंत्रमुग्ध कर एक गहरी तंद्रा में चला। अंततः शंकर ने कहा:
"वत्स, मैंने तुम्हें जीवन, मृत्यु और मोक्ष का ज्ञान दिया है। मैंने तुम्हे द्वैत और अद्वैत की अवधारणा से परिचित किया है। माया के गुण समझाए हैं और आत्मा के किसी भी अवस्था में नष्ट न होने की प्रकृति के बारे में विस्तार से बताया है। मैंने तुम्हे सांख्य, मीमांशा, दर्शन और वेदांत की शिक्षा दी है और अब वक्त आ गया है की तुम परमब्रह्म की निकटता का अनुभव करो। अगर तुम एक अखंड मौन से व्याप्त हो, कोई अनोखी शक्ति का तुम्हारे नश्वर शरीर में संचार हो रहा है, किसी अलौकिक आनंद से भावविभोर हो रहे हो तो तुम ब्रह्म के सानिध्य में हो।"
इन गंभीर शब्दों के साथ शंकर मौन हो गए। उन्होंने अपने चारों और देखा और अत्यन्त संतोष से पाया के सभी शिष्य उनके साथ पूर्ण सामंजस्य में थे। वे सभी ब्रह्म की उपस्थिति का अनुभव कर रहे थे। उन्होंने कहा,
"वत्स, हम एक अनोखे अनुभव से गुज़र रहे हैं. ये स्थान अत्यन्त ही पावन और सुख प्रदान करने वाला है। पाँचों तत्वों के अनोखे संगम से यहाँ अदभुद उर्जा का संचार हो रहा है। जो भी व्यक्ति यहाँ होगा वह ब्रह्म की नज़दीकी का अनुभव करे बगैर नही रह सकता " , फिर कुछ सोच कर उन्होंने कहा:
"बच्चों ! यह हम लोगों के लिए अत्यन्त ही स्वार्थपूर्ण होगा के हम सम्पूर्ण जगत के साथ इस अनुभव को न बांटे लेकिन साधारण लोगों को आसानी से एक अमूर्त अनुभव के लिए इस तरह की खतरनाक और मुश्किल यात्रा करने के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता है। हम यहाँ पर एक मंदिर का निर्माण करेंगे और जनसाधारण को यहाँ के आराध्यदेव की असाधारण शक्तियाँ का बखान करेंगे। केवल ऐसा करने से ही आम व्यक्ति एक कठिन यात्रा करने को प्रेरित हो पायेगा। जो भी हो यहाँ आने से वह भी इस अलौकिक अनुभव से लाभ अर्जित कर सकेगा।"
इस तरह केदारनाथ का मंदिर आचार्य शंकर के निर्देश पर बनाया गया था। कालांतर में वह एक भव्य मन्दिर में तब्दील हो गया।
Wednesday, October 01, 2008
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