Saturday, October 11, 2008

हवा में दरार

कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें मूल कृतियाँ बटोरने का जूनून होता है। आख़िर इंसान की हर सूरत में विशिष्ट होने की हवस के पीछे क्या राज़ है? अगर तर्कसंगत तरीक़े से सोचा जाए तो अक्सर मूल कृति के पीछे विचार ज्यादा अहम् होता है न की कारीगरी। जब नकली कृति को एक्सपर्ट भी बड़ी मुश्किल से समझ पाते हैं तो ज़ाहिर है कृति की रचना में उसे उकेरने की अवधारणा कहीं महत्वपूर्ण थी बजाय उसे मूर्त स्वरुप देने में इसलिए नक़ल बनाने में ज्यादा कठिनाई पेश नही आती। इस लिहाज़ से देखा जाय तो करोड़ों रुपये खर्च कर मूल कृति प्राप्त करने के पीछे कला के लिए दीवानापन कम, व्यापार ज्यादा है। आख़िर कला हमें सौन्दर्यबोध के अतिरिक्त और कुछ भी नही देती। ऐसे में अगर नक़ल और मूल में फ़र्क़ न के बराबर हो तो दोनों से ही हमें सौन्दर्यबोध तक़रीबन बराबर ही होगा तो मूल के लिए करोड़ों रुपये लगाना कतई स्वाभविक नही लगता। इसके अतिरिक्त इतनी अधिक क़ीमत लगा कर शौकीन उसे कम से कम बुलेटप्रूफ ग्लास में और इंसानी पहुँच से कुछ दूर ही रखेगा। तो यूँ समझ लीजिये के करोड़ों रुपये लगा कर कलाकृति अंडरग्राउंड हो जाती है।

पहले का दौर कुछ ठीक था। कला के कद्रदान होते थे और कलाकार को एकमुश्त ही उसकी कला की क़ीमत मिल जाती थी, फिर कला सार्वजानिक हो जाती थी। हर व्यक्ति उसे क़रीब से देख, छू और अहसास कर सकता था। लेकिन जैसे ही कला पर मूल्य का तमगा लगा हमने मंदिरों और अन्य बेशकीमती धरोहरों के नष्ट होने का ऐलान कर दिया।

Dawn

By Kali Hawa I heard a Bird In its rhythmic chatter Stitching the silence. This morning, I saw dew Still incomplete Its silver spilling over...