Saturday, October 04, 2008

आत्मा !

माया मरी न मन मारा, मर मर गया शरीर
आशा तृष्णा न मरी कह गए दास कबीर

जो भी विचार हमारे मस्तिष्क से गुज़रता है दरअसल हम उसे सुनते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो कोई हमारे विचारों को पढ़ रहा है। शायद इसी वजह से यह आभास होता है के इस शरीर से परे भी कोई अमूर्त चीज़ है जो हमारे मानस में निवास करती है और सम्भव है के इसी कारण से 'आत्मा' की अवधारणा पनपी हो। चूँकि यह अनोखी चीज़ अमूर्त है इसलिए शायद न नष्ट होने का गुण तो स्वयं ही निकल आया होगा। एक दूसरी बात और भी है; हमारी सोच यह कभी बर्दाश्त नही कर सकती के मृत्यु हमारे वज़ूद का अंत है। यह ख़याल हमें बौखलाने के लिए पर्याप्त है इसलिए जीवन की निरंतरता का नक्शा हर धर्म विचार में मिलता है। आत्मा की मौजूदगी से इस धारणा को बल मिलता है। लेकिन सोचने की बात यह है के अगर मृत्यु सिर्फ़ एक इंटरफेस है तो निश्चय ही मृत्यु के पर्यंत जीवन का नक्सा गुणात्मक रूप से इस जीवन से भिन्न होना चाहिए अन्यथा मृत्यु का इंटरफेस होना बेमानी, लेकिन ऐसा कोई भी संकेत नही मिलता है बल्कि हर विचार जीवन की इसी धारा का विस्तार है।

दरअसल भाषा के बिना जटिल विचार असंभव है और ज़बान तो बोली और सुनी जाती है! सोचिये भला! बिना ज़बान के हमारी सोच जानवरों की तरह रह जायेगी यानी मात्र ग्राफिक। स्वप्न जानवरों को भी आते हैं मगर वही वर्चस्व की लडाई अथवा अन्य जानवर से अपनी जान बचने के लिए पलायन करना इत्यादि। भाषा हमें जानवरों से 'क्वांटम जम्प' आगे पहुँचा देती है। इस परिप्रेक्ष में तो यही लगता है 'आत्मा' मात्र हमारे दिमाग का फितूर है।

2 comments:

Udan Tashtari said...

आभार इस जानकारीपरक आलेख के लिए.

Kali Hawa said...

श्रीमान, आलेख मात्र अटकलबाजी है. दरअसल इस तरह की बातें अटकलबाजी की सिवाय और कुछ हो भी नही सकती.

Dawn

By Kali Hawa I heard a Bird In its rhythmic chatter Stitching the silence. This morning, I saw dew Still incomplete Its silver spilling over...