Wednesday, February 25, 2009

वजू़द! (भाग १)


समुद्र के छोर पर खडा एक व्यक्ति जिसे इस बात का क़तई आभाष न था के दुनिया गोल है, विचार करने लगा आखिर इस क्षितिज तक फैली जलराशी के अंत पर क्या है? वह अभिभूत था लिहाज़ा एक कठोर और परीक्षापूर्ण यात्रा पर निकल पड़ा. वह साहसी और दृड़ निश्चयी था इस लिए निरंतर एक ही दिशा में आगे बढ़ता चला गया, उसने समुद्र पार किया, जंगलों को पर किया और ऊँचे पर्वतों पर विजय पाई और अंततः उसी स्थान से गुज़र गया जहाँ से चला था. इस दौरान दुनिया ही बदल गयी थी अनायास ही वह बोल पड़ा, "यह कुछ जाना पहचाना दिखता है!"

हम उस व्यक्ति की तरह ही हैं हर वक़्त सवाल करतें हैं उसके बाद क्या, उसके बाद क्या? नेति नेति की तरह ही ये सभी सवाल बेमानी हैं. दिशाएं अनंत पर नहीं विलुप्त हो जाती है और न ही समय अंतहीन होता है ये सभी आयाम दरअसल एक लूप के मानिंद हैं जहाँ से चले थे वहीं समाप्त हो आते हैं अर्थात इनका कोई अंत नहीं जिस प्रकार परिक्रमा का कोई अंत नहीं होता.

जारी है.......

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Dawn

By Kali Hawa I heard a Bird In its rhythmic chatter Stitching the silence. This morning, I saw dew Still incomplete Its silver spilling over...