Friday, June 07, 2024

बोधिसत्त्व : श्रावस्ती पर एक और कथा

 प्राचीन नगर श्रावस्ती वाणिज्य का प्रमुख केंद्र था, हर तरह कि वस्तुओं के बाजार (हिन्दी शब्द क्या है- हाट ?) थे, श्रमणों, व्यापारियों, कलाकारों, विचारकों इत्यादि का आना जाना लगा रहता था। नृत्य, संगीत की सभाएं और दर्शन पर वाद-विवाद होते रहते थे। पश्चिम दिशा से आने वालों को नगर के प्रवेश से पहले एक गहन जंगल पार करना पड़ता था जहां हिंसक जानवर और डाकुओं का भय रहता था। नगर में काली हवा नाम का अकिंचन व्यक्ति रहता था । दरिद्रता से काली हवा का संसार से मोहभंग हो गया अतएव नगर से उक्ता कर वह वानप्रस्थ के लिए तत्पर हो गया। कपाल के केश और दाढ़ी बढ़ जाने से वह किसी मुनिवर कि तरह प्रतीत होते थे। एक पोटली में कुछ अति आवश्यक वस्तुएं, ईश्वर की सूक्ष्म मूर्ति, अगरबत्ती इत्यादि लेकर वह पश्चिम दिशा को प्रस्थान कर गए। 

नगर प्राचीर पर्यंत ही जंगल प्रारंभ हो गया। ज्यों ज्यों वह बढ़ते गए जंगल गहन होता गया। साँझ होने तक वे थक कर निढाल हो गया परंतु प्रसन्नता कि बात थी के उन्हें वहाँ एक कल कल निरझर जल से बहता नाला दिखा और पास ही विशाल वृक्ष। आस पास हर प्रकार के जंगली फलों के वृक्ष थे साथ ही काली हवा को जड़ी बूटी का भी ज्ञान था अतः यह स्थान ध्यान के लिए उपयुक्त है सोच कर उन्होंने विचार किया यहीं रुक जाता हूँ । 

इस बात से पूर्णतः अनजान के यह विशाल तरु एक विस्तृत वानर परिवार का आवास है, उसने तने के समीप एक भूभाग को साफ किया और वहीं चादर बिछा कर सो गया। वानरों का मुखिया, सुमंत नाम का बलिष्ठ वानर था, सुमंत ही बोधिसत्त्व था। वानर स्वभाव से ही चंचल होते हैं अतः उस वृक्ष के नीचे एक सर्वथा अपरिचित व्यक्ति को देख अचरज में पड़ गए। प्रातः होते ही उन्होंने काली हवा पर अधखाए फल, गुठलियाँ फेंकना प्रारंभ कर दिया। काली हवा ने अपने ऊपर गिरती गुठलियाँ इत्यादि देख कर चहुं ओर दृष्टि डाली, वानरों को देख अपनी परिस्थिति की नाजुकता का एहसास हुआ। उसने सोच ये वानर कुछ देर शरारत करेंगे फिर अपने रास्ते चल देंगें। अतः वानरों पर अधिक समय नष्ट करना मूर्खता होगी सोच कर उन्हें अनदेखा करने का विचार किया। इस तरह कुछ दिन बीत गया, वह सुबह उठ कर प्रतिदिन नित्य क्रिया से निपट कर स्नान करता, कंद मूल ढूंढ कर क्षुधा शांत करता और ध्यान पर बैठ जाता। उधर वानरों को उसका अपने निवास का अतिक्रमण बिल्कुल भी पसंद नहीं आया उन्हें विचार था कि यह साधु एक दो दिन बाद चला जाएगा लेकिन जब नहीं गया तो उनका उत्पात और बढ़ गया। सुमंत ने अपने साथियों को समझने कि कोशिश की कि साधु को अपने हाल पर छोड़ दो, उसके वहाँ रहने से वानरों को कुछ भी अंतर नहीं पड़ता, लेकिन वह जानता था उसका परामर्श व्यर्थ है, वह वानरों का स्वभाव नहीं बदल सकता। सप्ताह भर बाद टकराव कि स्थति या गई, काली हवा समझ गया के ये वानर जाने वाले नहीं और वानरों का उसे निष्कासित करने निश्चय भी नहीं डिगा। उधर सुमंत किसी अनहोनी के संशय में पड़ गया। अगली सुबह काली हवा ने ध्यान लगाने का विचार त्याग दिया तभी उसे एक उपाय सूझा, वह जंगल से कुछ पत्तियां, जड़ी और फूल लेकर लौटा, जड़ी पीस कर उसने लाल रंग बनाया, ईश्वर कि मूर्ति स्थापित कर चारों तरफ लाल रंग कि रंगोली बनाई, फूल मूर्ति पर चढ़ाए, पत्ते अपने जल भरे लोटे में डाल दिए। सभी वानर उसका यह नया क्रिया कलाप अचरज से देख रहे थे। उसने अगर बत्ती जलाई, उसकी सुगंध चारों दिशा फैल गई। अब वह जोर जोर से अगड़म बगड़म मंत्र पढ़ने लगा। हवा में एक तनाव कि स्थति पैदा हो गई, वानर किसी गंभीर संभावना के डर शांत हो गए। जब वह संतुष्ट हो गया कि समुचित तनाव पैदा हो गया है, तब उसने मूर्ति के सामने रखी लकड़ी उठाई उसका छोर लाल रंग से निपोड़ दिया और खड़ा हो गया । लकड़ी को उसने बंदूक कि तरह तान दिया और वानरों पर घूम घूम कर निशाना लगाने लगा जब लकड़ी सबसे पास के वानर पर तनी, वह रुक गया। हाथ में रखे लाल रंग को उसने पास के वानर पर फेंकते हुए, हथेली कि तीन उँगलियाँ उठाई और मेघ कि तरह गरजते हुए कहा, तीन दिन में तेरा काल निश्चित है। वानर जो अब तक स्तब्ध उसका उपक्रम देख रहे थे अब अलग अलग गुटों में बंट गए और दिनों से भिन्न, दबी उत्तेजना में बातें करने लगे लेकिन वह वानर जिसे काली हवा ने तीन दिन में काल ग्रसित होने का दावा किया था, अकेला, शांत बैठा   दिखा। सुमंत शीघ्र ही पाखंडी काली हवा का प्रपंच समझ गया, उसने व्यथित वानर को समझाने का अथक प्रयास किया लेकिन कोई सफलता नहीं मिली । इंगित वानर ने उसी समय खाना पीना छोड़ दिया, किसी भी क्रिया कलाप में हिस्सा नहीं लिया। उसकी दशा देख सुमंत बहुत चिंतित हो गया। अगले दिन ही वह वानर बीमार पड़ गया, उसका वज़न तेज़ी से घटने लगा। वानर अब काली हवा से दूर ही रहे कोई पास फटकने का साहस न कर सका। 

दूसरे दिन सुमंत काली हवा के सामने बैठ गया, कहने लगा, ‘हे काली हवा, मेरा नाम सुमंत है और मैं इन वानरों का अधिपति हूँ। मैं जानता हूँ जो तुमने किया वह पूर्णतः ढोंग था लेकिन ये भी ठीक है के वानरों का तुम पर उत्पात भी अनुचित था। अब जब, वानर तुम से दूर रहते हैं अतः तुमसे आग्रह है के उस वानर के प्राण न लो।‘

काली हवा: हे सुमंत, तुम ज्ञानी प्रतीत होते हो क्यों नहीं उस वानर को समझाते कि जो मैंने किया वह ढोंग था?

सुमंत : इसके दो कारण हैं। पहला तो ये कि अगर वह वानर इस बात से आश्वस्त हो जाए कि तुम्हारा किया आयोजन ढोंग था तो वानर फिर से उत्पात शुरू कर देंगे और मैं नहीं चाहता हमारे बीच कोई टकराव रहे, दूसरा कारण है कि उस वानर को आश्वस्त करना संभव नहीं । मेरा अनुग्रह  है के तुम फिर उसी तरह का चकाचौंध करने वाला तंत्र करो और दिखाओ के तुमने अपना श्राप वापस ले लिया है नहीं तो उस वानर कि मृत्यु निश्चित  है। 

काली हवा: सुमंत तुम सचमुच परम ज्ञानी हो, अत्यंत ही सुलझे मानस के स्वामी। उस वानर से कहो कल प्रातः ही मैं उसका श्राप वापस ले लूँगा।

अगले दिन सुबह सुमंत, श्रापित वानर को लेकर काली हवा के समक्ष प्रस्तुत हो गया तब काली हवा ने उस वानर से कहा, तुम नदी में स्नान करो फिर जंगल से एक सफेद पुष्प लेकर आओ, ध्यान रहे पुष्प पूर्ण हो कहीं कोई दोष न हो। तब काली हवा ने पहले कि तरह मूर्ति स्थापित की, फूलों से सज्जित कि और आम्र पत्र लोटे में भरे जल में डूबा दिए, अगरबत्ती जल दी। वानर के समक्ष वह वही अगड़म बगड़म मंत्र ज़ोरों से पढ़ने लगा, बार बार आम्र पत्रों से जल वानर पर छिड़कने लगा। अंततः  लकड़ी का छोर लाल रंग में लपोड़ा और इस बार लकड़ी की दिशा अपनी तरफ कर मुट्ठी भींच अपनी तरफ खींचते मानो किसी अदृश्य अस्त्र को खींच रहा हो, चिंघाड़ा , "दत्तः शापः प्रत्यर्पितो भवेत्" । फिर उसने मुंह से लाल रंग उगल दिया और जमीन पर मूर्छित गिर गया। सुमंत ने उसके मुख पर लोटे का जल छिड़क उसे उठाया, अब काली हवा प्रसन्न मुख से बोल, ‘जा अब तेरा कुछ नहीं होगा।‘ इस इस अतिरंजित स्वांग का समुचित प्रभाव पड़ा, श्रापित वानर अब आश्वस्त दिखा, एक राहत का असर मुख पर साफ दिखा। 

वहाँ से निकाल कर सुमंत ने अपने समूह से कहा, जब तक ये साधु यहाँ है हमें कहीं और चले जाना चाहिए, न काहू से दोस्ती न काहू से बैर।   

वानर प्रकरण इति !!



Tuesday, June 04, 2024

एक अप्रत्याशित याद

 इंसान बाज़-औक़ात शर्मिंदा हो जाता है ऐसी बातों से जिसमें उसका कोई कसूर नहीं होता मसलन लोग अपनी ग़रीबी पर ही शर्मिंदा महसूस करते हैं जब कोई अमीर दोस्त या रिस्तेदार उनसे मिलने उसके घर चले आते हैं। वह हर कोशिश करता है घर को चमकाने में, उन चीज़ों को ढँक देने में जो उसकी पसमांदगी को नुमाया करे। ऐसा क्यों होता है, कुजाण !

जब मैं योग करता हूँ तो वह तीन मुखतालिफ़ स्टेजेस में होता है पहला हिस्सा जो के 15 से 18 मिनट का होता है, महज़ सांस लेना और छोड़ना, इस स्टेज में और कुछ भी नहीं होता, दिमाग़ ज़्यादा बड़ी संभावना के लिए तैयार होता है। दूसरा हिस्सा भी 15 से 17 मिनट का होता है और इसमें सांस लेने में तन्मयता आ जाती है और मानस गहनता में डोलता महसूस होता है अंतिम हिस्सा दूसरे हिस्से कि तरह 15 मिनट का ही होता है लेकिन कभी कभी आखरी 5 मिनट अवचेतन कि स्थिति में पहुँच जाता हूँ। आज सब करा-धरा व्यर्थ गया। तीसरी अवस्था के मध्य एक पुरानी याद उभर आई, ऐसी याद जो अपने ही प्रति ग्लानि पैदा करती है। वाक़िया बहुत पुराना है कॉलेज के वक़्त का और किसी सिलसिले में मुझे दिल्ली जाना पड़ा। उस वक़्त दिल्ली में बस एक ही ठिकाना था, स्वर्गीय चाचाजी का लोदी रोड वाला घर, 14/768; इत्तेफाक़न उस वक़्त चाचा और चाची कहीं बाहर गए हुए थे और मुझे मरहूम गुड्डू ( ब्रजेश काला) और प्रभाकर वहाँ मिले । शाम के वक़्त गुड्डू ने फरमाइश कि के बकरे गोश्त  बनाया जाए मैंने फौरन हाँ कर दी और चूंकि मैं हॉस्टल में रहता था इसलिए मेरे पास पैसे भी रहते थे। खन्ना मार्केट के आखरी छोर पर मुझे बताया गया के गोश्त मिलता है। मैं झोला लेकर निकल पड़ा।  इससे पहले मैंने गोश्त नहीं खरीद था सो जब दुकानवाले ने मुझे मांस काट कर दिया तो मुझे समझ नहीं आया के ये लाल/भूरे हिस्से क्यों दे रहा है जबकि सफेद हिस्सा खोये कि तरह दिल पज़ीर लग रहा था। मैंने कहा के सफेद वाला ही हिस्सा दो, उसने मुझे ताज्जुब से देखा और खुशी खुशी मांस हटा कर पूरा सफेदऐ वो तो आगे है  माल पकड़ा दिया। घर आ कर जब मीट गुड्डू के हवाले लिया तो उसका मुंह उतर गया, कहने लगा ये क्या ले आए इसमें तो मीट है ही नहीं सिर्फ चर्बी है। फिर दोषारोपण का दौर चला जिसमें मरहूम सर प्रभाकर ने जम कर चटकारे लिए, ‘बिंड़ी चकडैत’ जैसे शब्द हवा में उछले। बहरहाल जो क़िस्से में मीट है वह तो आगे है।

गुड्डू महाशय का उतरा मुंह देख कर मैंने पहल की कि और मीट ले आते हैं लेकिन मैंने उसी दुकान जाने से साफ मना कर दिया (वहाँ मैं क्या मुंह लेकर जाता?)। गुड्डू ने कहा एक दुकान और है जोरबाग़। मैंने कहा चलो। लेकिन पहले जोरबाग़ कि बात हो जाए । घर से पत्थर फेंकने कि दूरी पर ही ये दिल्ली का अप्टाउन इलाक़ा है, अमीरों कि बस्ती, यहाँ रहने को दड़बे नहीं, आलीशान कोठियाँ हैं और ज़ाहिर सी बात है जो दुकानें हैं वो भी उसी शक्ल में। गुड्डू ने दुकान ज़रूर देखी थी पर गया कभी नहीं था, वहाँ जा कर मुझे इशारा किया के वो दुकान है, मैंने कहा, ‘चलो’। उसने साफ इनकार कर दिया। चूंकि हमारे कॉलेज में भी शीशे के façade वाली बड़ी बड़ी imposing इमारतें थीं लिहाज मुझे ऐसी chic, मॉडर्न बिल्डिंग intimidate नहीं करती थी। लेकिन कॉलेज कि बात और है, यहाँ मामला दूसरा था। मैंने हवाई चप्पल पहनी थी और साधारण बेल-बाटम पेंट-कमीज़ जो उस दौर में अमूमन मिडल क्लास की कैजुअल पोशाक हुआ करती थी । दुकान एयर-कन्डिशंड थी, ग्लास के रैक्स में तरह तरह कि मीट से सजी प्लेटें थीं, दो अभिजात्य वर्ग कि मोहतरमा भी वहाँ मौजूद थी एक कोने में बतिया रहीं थी और खानसामा जैसी सफेद टोपी पहने और सफेद ही लिबास में दुकानदार या उसका मुलाज़िम इन racks के पीछे खड़ा था। मेरे अंदर आते ही मानो फ़ज़ा में मौजूद तवाजुम (equilibrium) बिखर गया, दोनों मोहतरमा ने यकायक ही बातचीत आधे में रोक मेरे तरफ रुख किया और इस तरह देखा जैसे मैं सर्कस से निकला कोई जोकर हूँ वही रैवय्या दूकान के मुलाज़िम का भी था।  मैंने सब को नज़रअंदाज़ कर उस खानसामा टोपी वाले से कहा, क्या मटन है ?

उसने सर हिला कर मना कर दिया, मैंने फिर पूछा, मटन , गोश्त? उसने फिर मना कर दिया। अब मुझे अहसास हुआ कुछ गड़बड़ है, वो मुझे नज़र-अंदाज़ कर रहा है, कोई तवज्जो नहीं दे रहा है। मैं उलटे पाँव लौट आया।  मुझे अब गुड्डू पर भी गुस्सा आ रहा था और अपने आप पर भी। उसने पूछा क्या हुआ मैंने बेरुखी से कहा, उसके पास नहीं है।

कभी कभी इस तरह की यादें दिल में खटास पैदा कर देती हैं, ज़ेहन में ख़याल लूप की तरह बार बार आता है मुझे ऐसा करना चाहिए था वैसा करना चाहिए था। उस रोज़ भी योग के दौरान जब ये याद उभर आयी तो बेचैन हो गया, ग्लानि से भर गया। क्यों नहीं मैंने अंग्रेजी झाड़ी (उस वक़्त अंग्रेज़ी इस तरह कि नहीं थी) और उन मोहतरमा के पास जा कर कहा, “Isn’t staring considered rude?”       

Wednesday, May 22, 2024

ख़ा'ब - 2

 मेरे हाथ में एक पारदर्शी कांच का चौकोर बॉक्स था और मैं सड़क के किनारे खड़ा था। कोई 40 गज पर चौराहा था, जिस तरफ मैं खड़ा था उसी तरफ चौराहे के ठीक पहले एक जर्जर मकान था । हर आने जाने वाले शख्स से मैं कहता ये बॉक्स उस जर्जर मकान तक पहुँचा दो । लेकिन वो मुझे देखते और फिर बॉक्स कि तरफ और यकायक ही खौफ से पीछे हट जाते । ये सिलसिला कुछ देर चला फिर मैंने देखा के बॉक्स में कुछ इंसानी हड्डियाँ हैं, मुझे महसूस हुआ वो मेरी ही हड्डियाँ हैं और मेरा कोई जिस्म ही नहीं । 

उस वक़्त मुझे ख़याल हुआ, 'मौत कि हक़ीक़त अगर मा'लूम हो जाए तो क्या कोई जी सकेगा ?'

    

फिर मैं उठ गया ।


ख़ा'ब

 वो बदरंग मटमैला पहाड़ था, न कहीं घास थी ना कोई दरख्त । तलहटी में उसके एक बड़ा सुराख, इंसानों का बनाया हुआ। जब मैं अंदर दाखिल हुआ तो हैरान रह गया, अंदर ज़बरदस्त हलचल थी।सैकड़ों अफ़राद काम में जुटे थे, हर तरफ बांस के स्ट्रक्चर और खुदाई का साज़ ओ सामान बिखरा था। लेकिन गुफा के एक कोने शीशे का आलीशान हाल था, कान्फ्रन्स हॉल और वहाँ तमाम लोग सूट-बूट में घूम रहे थे बातें कर रहे थे । वहाँ मेरी मुलाकात हुई एक कोरियाई बिसनेस मैन से हुई । यूं तो वो ख़ुश नज़र आ रहा था लेकिन ये भी ज़ाहिर हो रहा था कि वह किसी कश्मकश से गुज़र रहा है । किसी अनहोनी का अंदेशा हवा में तैर रहा था । दरमियान हमारे कोई गुफ्तगु नहीं थी फिर भी बात हो रही थी। जान पड़ा के वो और उसका एक अमरीकी साथी चीन से साज-ओ-सामान खरीदते और मुनाफ़े में बेच देते । एक बुरा दौर आया, दोनों के दरमियान खटास पैदा हो गई, बिज़नेस भी बिखरने लगा ।

फिर हम दोनों हॉल के बाहर आ गए, गुफा के अंदरी कोने पर संकरी सुरंग का मुहाना था। सबसे ज्यादा काम वही हो रहा था, कोरियाई ने बताया चीन एक अंडरग्राउंड मोटरवे बन रहा है। सरहद के पार उसका ज़िम्मे का काम कब पूरा हो चुका था बस यहीं का हिस्सा बनाना बाकी था। इसी वजह से काम ज़ोर शोर से ज़ारी था ताकि मोटरवे को जल्दी से जल्दी शुरू किया जा सके।

 हम फिर हाल में आ गए उस कोरियन के स्टॉल पर एक ग़ैर मुल्की फ़र्द जो गुस्से में भी था, ना-उम्मीद भी और बे-बस भी साफ मालुम पड़ता था वो बकाया रकम की खातिर वहां आया था । उसे देख बड़बड़ाने लगा, अपने बकाया पैसे की वसूली के लिए ज़ोर देने लगा। कोरियन ने फ़ौरन ही अपना ब्रीफकेस खोला और चेक उसका नाम लिख दिया। वो फ़र्द हैरान रह गया, पैसे इतने आसान से मिल जायेंगे इसकी उसे रत्ती भर उम्मीद ना थी ।

 उसी वक्त एक हंगामा सा उठा, अफ़रा तफरी का आलम छा गया लोग मुस्तैदी से हॉल के बाहर निकल गए मैं भी तेज़ क़दम हॉल के बाहर आ गया । एक अजीब नजारा था सुरंग के मुहाने जो बांस की स्केफोलडिंग थी उस पर एक अमरीकी फ़र्द लटका हुआ था। उसके जिस्म पर बारूद की सलाखें बंधी थी । वो बार-बार कह रहा था कोरियाई को बुलाओ। 

मैं उल्टे पांव हॉल में चला आया। हाल तक़रीबन ख़ाली हो गया था। कोरियन के स्टॉल पर देखा तो काठ हो गया। टेबल पर कोरियाई पस्त पड़ा था, ढुलमुल और बे-जान, जबीं पर उसके छोटा सुरख, हाथ में, जो टेबल से नीचे लटका हुआ था, एक पिस्टल थी ।

 उसी व्यक्त मेरी आँख खुल गई ।


Thursday, October 26, 2023

मूल्यांकन

 मुझे ट्रैन का सफ़र पसंद है, सस्ता तो है ही अक्सर ही दिलचस्प वाक़िये भी पेश आ जाते हैं। हवाई सफर महंगा, उबाऊ और snobbery से भरा होता है , हर कोई अपने को तुर्रमखां से कम नहीं आंकता और अपने आप में ही दिलचस्पी रखता है । दिल्ली से बम्बई के लिए मैं राजधानी ट्रैन से ही जाता हूँ, यह साफसुथरी तो होती है, खाने-पीने का भी मुक़्क़मल इंतज़ाम रहता है लिहाज़ा सफर मज़े मज़े में निकल जाता है। इस मर्तबा मुझे अपनी उस ख़ास ट्रेन में टिकट नहीं मिला जो घर के पास के स्टेशन रूकती है सो इटारसी से होकर बम्बई जाने वाली राजधानी में सफर करना पड़ा। चूँकि ये ट्रैन लम्बे रास्ते से हो कर बम्बई जाती है इसलिए इसमें लम्बी दूरी के मुसाफिरों के बनिस्बत छोटी दूरी के मुसाफिरों की आवाजाही लगी रहती है। क़िस्मत से अभी पीक सीज़न नहीं है इसलिए ट्रैन में बहुत सी सीटें खाली थी सो पैर फैलाने का मौक़ा था।  मेरी बर्थ के बाजू एक झगड़ालु, अधेड़ उम्र व्यापारी था जो लगातार फ़ोन पर धंधे से मुत्तालिक़ बातें कर रहा था, एक हैंडबैग उसने बर्थ के बीच बने छोटे टेबल  पर रख दिया था जिससे उस टेबल को कोई और नहीं इस्तेमाल कर सकता था।  कुछ देर बाद वह बर्थ पर लम्बा हो गया और फ़ोन पर बातें करता रहा। इसी दौरान एक यंग लड़की आयी, उस व्यक्ति को देखा के वह उसके लिए बर्थ पर जगह बनाये लेकिन उस बद्तमीज़ ने कोई ध्यान नहीं दिया, लड़की ने बैग ऊपर की बर्थ पर रख दिया और फिर सैंडल उतार स्थाई तौर पर सीधे ऊपर चढ़ गई।  

तभी कैटरर सुपरवाइज़र आया और पूछने लगा कि यात्रीयों  को किस तरह का खाना चाहिए। मैंने कहा, 'वेज '। उसने पूछा, "नाश्ता?", मैंने कहा, "कटलेट"।

उसने उपेक्षा भाव से कहा, 'सर, केवल पोहा, उपमा या ऑमलेट।'

मुझे याद आया कि पिछली बार भी मुझे 'पोहा' लेने के लिए मज़बूर किया गया था।  मैं भड़क गया, 'तुम्हारा क्या मतलब है, मैं हमेशा कटलेट लेता हूं, तुम मेनू बदलने वाले कौन होते हो?'

उसने कुछ नहीं कहा और तुरंत ही चला गया। मेरी इस आक्रामकता का असर हुआ। झगड़ालू व्यापारी सहित सभी लोग मुझसे अदब से बात करने लगे। सौभाग्य से वह व्यापारी रात का खाना परोसे जाने से बाद लगभग 8:30 बजे ग्वालियर स्टेशन पर उतर गया। एक मुसीबत गई लेकिन दूसरा सेट आ गया। ग्वालियर में एक युवा जोड़े का परिवार आया, जिनके दो बच्चे थे, एक डेढ़ बरस का और दूसरा शिशु, उम्र में बमुश्किल एक साल का अंतर था। इधर मेरी बाजु वाली महिला सीट नीचे करने को बेताब हो रही थी और उधर हंगामा चल रहा था। वह बच्चा बहुत ही चंचल था, चीज़ें इधर उधर फेंकना, बैग खोलकर सामान निकालना वगैरह, रोकने पर ज़ोर ज़ोर से रोना, उसने अपनी मां को बदहाल कर दिया था, बेचारी इसे संभाले की गोद में बैठे शिशु को देखे। उसका पति सारी हलचल से बेखबर बुद्ध की तरह शांत दुनिया जहान से बेखबर बर्थ के दूसरे छोर पर बैठा रहा। रात का खाना खाने के बाद, मैं हाथ धोने चला गया, जब मैं लौटा तो मेरी तरफ की बर्थ नीचे आ चुकी थी। मैंने भी बिस्तर लगाया और सोने चला गया, समय रात के 9:30 बजे थे। लेकिन शांति नहीं थी वह शैतान बच्चा रोता ही जा रहा था, हंगामा बदस्तूर जारी रहा फिर लाइटें बंद कर दी गईं और धीरे-धीरे शांति छा गई।

आजकल अटेंडेंट डिब्बों को सबसे कम तापमान पर सेट करते हैं क्योंकि कोई न कोई ग्याडू हमेशा,गर्मी है, शिकायत करने आ जाता है। मुझे यह बहुत असुविधाजनक लगता है, शायद अधिकांश यात्रियों को असुविधा होती है लेकिन वे शिकायत नहीं करते । एक दो बार मैंने अटेंडेंट को  ब्लोअर की गति कम करने के लिए मजबूर किया, लेकिन अब मैं एक मोटी पूरी आस्तीन वाली टी-शर्ट रखता हूं, जिसे मैं अपनी नियमित टी-शर्ट के ऊपर पहनता हूं। यह डिब्बा भी पूरी तरह से ठंडा चल रहा था इसलिए मैं सुबह 4 बजे तक आराम से सोया, उसके बाद सुबह की चाय आने तक यूँ ही लेटा रहा। कैटरर ने मुझे जागते हुए देखा तो तुरंत चाय ले आया। मैं अभी भी 7:45 बजे बिस्तर पर ही था क्योंकि बाकी सभी लोग भी बिस्तर पर थे, कैटरर मेरे पास आया और फुसफुसाया, सर, आप कहां तक जाएंगे?

'बॉम्बे'

सर आपका नाश्ता ज़रा देर हो जाएगा, नासिक में कटलेट मिलेंगे।

अब, मुझे एहसास हुआ कि यह आदमी मुझसे क्यों पूछ रहा था कि मैं कहाँ उतरूँगा। अब तक मैं भी शांत चुका था इसलिए बेफिक्र हो बोला,

'कटलेट भूल जाओ, ऑमलेट ले आओ ।'

वह खुशी-खुशी चला गया.

लगभग 8:00 बजे सभी लोग उठ गए, बीच की बर्थ उठने लगी और उद्धंड बच्चा जाग गया। युवा दुल्हन को 3-6 महीने के शिशु के साथ-साथ इस अतिसक्रिय बच्चे की भी पूरी देखभाल करनी थी। उसका पति, बुद्धा की तरह शांत, इयरफोन कान में लगाए हुए अपनी पत्नी द्वारा झेली जा रही तकलीफों से बेखबर बर्थ के अंत बैठा रहा। जो युवा युवा महिला मेरे पास बैठी थी, उसने नवजात शिशु को उठाया, जिससे असहाय पत्नी को बड़ी राहत मिली। बर्थ के बीच मेज़ पर स्टील का गिलास पानी से आधा भरा हुआ था, इस बच्चे ने उसे गिरा दिया जिससे पानी फर्श पर फैल गया। मैं वहां चल रहे इस हंगामे से बेचैन हो रहा था, तभी मेरे बगल वाली लड़की ने कहा, 'आप अपना बैग उठा लो, गीला हो रहा है।'

मुझे एहसास हुआ कि मेरा शोल्डर बैग ठीक उस मेज के नीचे रखा हुआ था जहाँ इस बच्चे ने गिलास गिराया था। मैंने बिना एक भी शब्द कहे गुस्से भरी नजरों से उसकी ओर देखा और अपना बैग उठाया, बैग नीचे की तरफ से गीला था।

नासिक में, इस महिला ने अपने पति से बच्चों के लिए दूध लाने के लिए कहा। बुद्धा , बिना कुछ कहे, तुरंत नीचे उतर सेंटेड दूध की दो छोटी बोतलें ले आए। उसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया, यह आदमी बुरा या उदासीन या मतलबी नहीं है, वह तो सिर्फ अपने परिवेश, अपने समाज की परंपरा का प्रोडक्ट है।  मैंने उससे कहा, 'तुम  एक बच्चे का ख्याल क्यों नहीं रखते, क्या देखते नहीं कि आपकी पत्नी कितना परेशान हो रही है ?'

इससे पहले कि वह कुछ कह पाता, उसकी पत्नी उसके बचाव में कूद पड़ी, 'वो बहुत मदद करते हैं'

अब गलती किसकी है, कहना कठिन है। जीवन बहुत ही कॉम्प्लेक्स है, आप केवल स्वयं का ही मूल्यांकन कर सकते हैं, किसी और का नहीं ।

Friday, February 24, 2023

उरूज़-ए-शायरी

 

एक मर्तबा एक उर्दू बज़्म में मेरी शायरी की तनक़ीद हो गयी।  एक साहिब ने फ़रमाया, साहिब आपका कलाम खारिज़-अज़ -बहर है।  उस वक़्त तो मैंने कह दिया के मेरा कलाम किसी उरूज़--फन--शायरी का पाबन्द नहीं, मैं आज़ाद नज़्म कहता हूँ। लेकिन बाद में सोचा क्या हर्ज़ है क्यों ग़ज़ल के उसूलों की मालूमात हासिल कर ली जाय। सो एक दिन दोपहर बस पकड़ कर मुहम्मद अली रोड पहुँच गया, ऑफिस में मेरे आने जाने पर कोई पाबन्दी नहीं थी और उस रोज़ कोई काम भी बाक़ी नहीं था इल्म था के हर मस्जिद में एक मदरसा होता है सो किसी मौलवी साहिब को पकड़, उर्दू के साथ साथ उरूज़--शायरी भी सीख ली जाय। दांव थोड़ा टेढ़ा  पड़ा, दरअसल मोहम्मद अली रोड गुजराती मुसलमानों का इलाक़ा है ये लोग अमूमन तिज़ारती धंधे से वाबस्ता है, खोजा कम्युनिटी और बोहरा समाज से जाने जाते हैं। बोहरा लोग दुसरे मुसलामानों से हर लिहाज़ से अलहदा हैं, इनकी पोशाक ज़्यादातर सफ़ेद होती है और एक खसूसी क़िस्म की कटोरी नुमा स्कल कैप पहनते हैं। ख़वातीन सफेद या दुसरे चटकीले रंग का बुर्क़ा पहनती हैं  काला तो हरग़िज़ नहीं और इनकी ज़बान गुजराती है। मुसलमानों में ये लोग अधिक धनी हैं और दूसरों मुसलमानों से दूर ही रहते हैं।

दोपहर की नमाज़ हो चुकी थी लोग सफ़ेद कटोरी टोपी पहने मज़े मज़े अपने अपने घर, ऑफिस, दूकान को जा रहे थे। मस्जिद के बाहर ही मैंने एक भले से दिखने वाले शख्स को पकड़ लियाकहा, भाई साहिब, मुझे उर्दू सीखनी है। वह मुझे अजूबा समझ देखता रह गया, बोला, बाबा मैं क्या कर सकता, ज़रूर सीखो।

तब मैंने कहा मस्जिद मैं मौलवी साहिब क्या उर्दू सिखा सकते हैं ?अब उसकी लाइट जली, कुछ धिक्कार भरे टोन में कहने लगा, अरे बाबा आप उधर बायकुला जाओ वहाँ यू पी वालों की मस्जिद है। वहाँ आप को उर्दू सिखाने वाला मिल जाएगा।

बायकला, जहां मैं था, वहाँ से कोई एक किमी दूर होगा और चूंके मुझे यूँ ही सडकों पर आवारा घूमना पसंद है इसलिए मैंने मेन रोड छोड़ दी और रफ्ता रफ्ता गली गली कूचा कूचा बायकला की जानिब निकल पड़ा।  जिस एरिया का ज़िक्र हुआ था वह एक बेतरतीब बसा मुस्लिम ghetto था। जहां इंसान के रहने को बुनियादी सहूलियत मयस्सर नहीं थी। हर सू ग़ुरबत का आलम लेकिन बावजूद इसके लोग जी रहे थे, स्कूल जाते बच्चे, घरों में में काम करने को जाती ख़वातीन और मर्द भी किसी किसी धंधे से जुड़े कमाधमा रहे थे। मस्जिद के आगे एक पान की दुकान भी थी। बस फिर क्या था मैं उस पान की दुकान पर पहुँच गया। जब पानवाला फुर्सत में आया तब मैंने पूछा क्या यहां उर्दू सीखने का कोई ज़रिया है। उसने मुझ पर एक गहरी निग़ाह डाली, शक्ल--सूरत देख कर सारे ज़माने की कडुवाहट और नफरत मुझ पर उढेल दी। उसकी इस नफरत भरी निगाह से मैं दिल के गहरे गोशे तक सिहर गया। बर-अक्स, बाजू में खड़े एक खस्ताहाल ब्रीफ़केस लिए और खस्ताहाल सूट पहने अधेड़ उम्र शख्स ने मुझे दिलचस्प निगाह से देखा और पूछा, आप उर्दू किस सिलसिले में सीखना चाहते हैं।   

जी, उर्दू सीखना ख़ास मक़सद नहीं लेकिन मुझे उर्दू शायरी का शौक़ है लिहाज़ा ग़ज़ल और तमाम शायरी के उसूलों से वाक़िफ़ होना चाहता हूँ।

उसने फ़ौरन ही अपना फटेहाल ब्रीफकेस खोला और एक डायरी निकाल ली, कहने लगा, वह भी ग़ज़लगोई का शाहकार है और पेज पलट कर अपने किसी ख़ास कलाम को ढूँढने लगा। हमारे दौरान होने वाली गुफ्तगू से, पानवाले की बर्ताव में मज़ीद फ़र्क़ आ गया, अब वो ताब-ओ-तेज़ नफरती अंदाज़ से जुदा एक हमदर्द वाला लहज़ा था, कहने लगा, लीजिये मौलवी साहिब आ गए हैं इनसे बात कर लीजिये, ये आप का उर्दू भी और अरबी भी सीखा देंगे। 

मौलवी साहिब बमुश्क़िल 25 बरस उम्र के रहे होंगे शायद हाल ही में इम्तिहान पास किया होगा। सफ़ेद कुर्ता और एड़ी से ऊँचा तंग पजामा, सफ़ेद टोपी और हाथ में चंद किताबें; बदहवास और परेशान से नज़र   रहे थे। पानवाले ने उन्हें  आवाज़ दी और बताया की मुझे उर्दू सीखना है। मौलवी साहिब जो अब तक अन्यमनस्क  नज़र रहे थे अब पुरजोश मेरी और मुख़ातिब हुए, कहने लगे ज़रूर सीखा देंगे। मैंने पूछा के क्या वे ग़ज़ल, रुबाई  और मुख़्तलिफ़ नज़्म से मुताल्लिक़ उरूज़ का भी इल्म रखते हैं तो उन्होंने हामी भर दी। पूछा, सब सीखने के लिए कितना वक़्त लगेगा तो वे सर खुजा कर बोले तीन महीने तो दरकार होंगे ही।  मैंने कहा, भला तीन महीने क्यों? तो कहने लगे, भाई साहिब एक महीना तो उर्दू और उरूज़ पर ही ज़ाया हो जाएगा, अरबी सीखने में ज़्यादा वक़्त लगता है।  मैंने कहा, मौलवी साहिब मुझे अरबी नहीं सीखनी, आप बस उर्दू और शायरी के तौर तरीक़े  समझा दें , महिना भर काफी होगा।  कहने लगे, अगर अरबी नहीं सीखनी तो महीना भर काफी होगा। तब मैंने उनकी फीस का ज़िक्र किया तो कहने लगे, वे 200 रु महीना अपने तालिबान से लेते हैं लेकिन आप शौक़िया उर्दू सीख रहे हैं लिहाज़ा आप से 150 रु ही लूंगा। 

यह सुन कर मैं सकते में गया। मेरे दिल में एक तीखी कसक सी उठी, दिल बैठ सा गया, ये कैसी तिलिस्मी दुनिया है, ये कैसे लोग हैं, क्या ये वाक़ई हक़ीक़त है ? नब्बे की दहाई का दौर था तो भी उस वक़्त 200 रु की कोई ख़ास क़ीमत नहीं थी। आप अंदाज़ा करें की सिनेमा का टिकट उस वक़्त 50 रु का मिलता था और ये कह रहा है 150 रु में रोज़ाना एक घंटा मुझे पढ़ायेगा! मैं अपने ज़ेहन में 1000 रु बजट ले कर चला था। मैंने कहा, नहीं मौलवी साहिब मैं आप को 300 रु दूंगा, तालिब तो कमाते नहीं है मुझे कोई रियायत की ज़रुरत नहीं। मेरी बात सुन पानवाला कहने लगा मौलवी साहिब आप चाहें तो ये 400 रु भी दे देंगे। मैंने उसकी बात अनसुनी कर दी और कहा के कहाँ आप तालीम देंगें। मौलवी साहिब कहने लगे जहां आप कहें मैं हाज़िर हो जाऊँगा। मैंने कहा मेरा घर तो गोरेगाँव में है  वह बहुत दूर है सो मुमकिन नहीं  वहाँ आप सकें सो आप ही बताएं मैं कहाँ जाऊंमौलवी साहिब ने कहा, के मैं आप के ऑफिस हाज़िर हो सकता हूँ, लेकिन मेरे लिए ये मुनासिब था और मौलवी साहिब को कोई दूसरी जगह नहीं मिली सो मामला वहीं अटक गया।

अब तक वह शरीफ आदमी जो ब्रीफ़केस लिया पास खड़ा था, हमारे दरमियान होनेवाली गुफ्तगू में कोई दखलंदाज़ी से बच रहा था लेकिन जब मामला स्टेल-मेट पर पहुँच गया तो कहने लगा, आप मेरे साथ चलिए, घंटे भर में मैं आप को ग़ज़ल की बारीक़ियों से वाक़िफ़ करा दूंगा। मैंने कहा, कहाँ ?तो कहने लगा, पास ही उसका कमरा है, पांच मिनट की दूरी पर। तो मैंने कहा, चलिए। उसने ब्रीफकेस उठाया और चल दिया और मैं ऐन उसके पीछे पीछे। मस्जिद से थोड़ा ही आगे बढे थे की उस आदमी ने मेन रोड छोड़ एक गली का रुख अख़्तियार कर लिया गली बमुश्क़िल 3 फ़ीट चौड़ी थी और उसके बीचों बीच संकरा नाला बह रहा था। दोनों तरफ टीन -टप्पर से बनी झोपड़-पट्टियां थी। ये दुनिया कोई माया नगरी लग रही थी, ऐसी जगह मैं कभी नहीं आया था। ज़ेहन के एक गोशे में ख़याल उभरा कि मैंने क्या कोई भारी ग़लती कर डाली है। आगे एक अजनबी और आजू -बाजू तिलिस्मी दुनिया। ज्यों ज्यों गली नागिन की तरह बलखाती आगे बढ़ती त्यों त्यों मेरे अंदर दहशत का ग़ुबार घर करने लगा। अगर मुझे यहां क़त्ल कर दिया गया तो किसी को कानोकान खबर होगी या अगर यहां आग लग गयी या कोई दूसरा हादसा हो जाय तो बचने का कोई रास्ता मिलेगा। दर हक़ीक़त दोनों ही मुआशरे, मुसलमानों और हिन्दुओं, के दरमियान सतह से नीचे एक तल्खी, शक़ और नफरत का अंडरकरंट है जिसकी वजह से दहशत होती है। यहां में तरह तरह के अंदेशों  में घुल रहा था और आगे वह शख्स बेपरवाह उन तंग गलियों में आगे बढ़ता जा रहा था। जैसे जैसे  हम आगे बढ़ते गए वैसे वैसे उस आदमी के मिज़ाज और अंदाज़ में मुझे तब्दीली महसूस हुई। अब वह उस कॉन्फिडेंस से आगे नहीं बढ़ रहा था, शायद अपने फैसले को दोबारा असेस कर रहा था।

आख़िरकार हम एक चौड़ी सड़क के किनारे पहुँच गए जहां जा कर वह आदमी ठिठक गया। सड़क के दूसरी तरफ भी वैसा ही झोपड़-पट्टी का संसार था जैसा हम अभी अभी लांघ कर आये थे। उसके चेहरे पर गहरी पसमांदगी और लज़्ज़ा का भाव साफ़ नज़र रहा था, गोया ग़ुरबत कोई जुर्म हो। घर ले जा कर वह अपनी अस्मत तार तार नहीं होने देना चाहता था। उसकी उलझन मैं समझ रहा था। तब उसने सामने एक टीन के दो-मंज़िले घर की तरफ इशारा कर कहा, वो ऊपरवाला मेरा कमरा है।

उसे ज़्यादा दुविधा में डालने के मक़सद से मैंने कहा, देखिये जनाब, वक़्त बहुत हो गया है, मुझे घर चलना चाहिए। आप बता दें यहां से बॉम्बे सेंट्रल स्टेशन का रास्ता किधर से है। उसने कोई एहतजाज़ नहीं किया और बोला, ये सड़क बायीं बाजू  2  मिनट में मराठा मंदिर पहुंचा देगी, सामने ही बॉम्बे सेंट्रल स्टेशन है।

 बस उसे वहीं छोड़ मैं घर चला आया।


बोधिसत्त्व : श्रावस्ती पर एक और कथा

 प्राचीन नगर श्रावस्ती वाणिज्य का प्रमुख केंद्र था, हर तरह कि वस्तुओं के बाजार (हिन्दी शब्द क्या है- हाट ?) थे, श्रमणों, व्यापारियों, कलाकार...