इक अलसाई सर्दी की सुबह
जमुना में कोई हलचल ही नही
खिसकता था नभ में,पुल के ऊपर
सूर्य में कोई चमक ही नही
ज़मीं से कुछ ही ऊपर
टंगा था घना सफ़ेद धुआं
छिप गया था शहर का चेहरा
घिनौना था जो इसके बिना
मृत, नदी के किनारे पड़ा
लावारिस एक बच्चे का शेष
धुंध का शुक्र जो कफ़न दिया
हट के जाते थे बेखबर लोग
डूबा, उसने चोरी जो की
लगा के छलांग नदी में गहरी
सिक्के जो फेंके थे भक्तों ने
ईश्वर को रिझाने के लिए
ऊब रहे हैं फिर भी मगर
कर उपभोग, कर उपभोग
बहुतायत का है ज़ोर
खुश हैं मगर कुछ ही लोग
* * *
Wednesday, October 15, 2008
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अहंकार
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2 comments:
बहुत सुन्दर भाव प्रस्तुत करती आपकी ये कविता । धन्यवाद अच्छे लेखन के लिए
मृत, नदी के किनारे पड़ा
लावारिस एक बच्चे का शेष
धुंध का शुक्र जो कफ़न दिया
हट के जाते थे बेखबर लोग
"uffff! kaise itna dard smait lateyn hain aap..."
Regards
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