हम चीजों और छवियाँ को रंगों में देखते हैं इसलिए काला और सफेद मीडियम प्राकृतिक नहीं है। ब्लैक एंड व्हाइट छवियाँ इस प्रकार होती हैं मानो किसी ने इनकी एडिटिंग की है। बावजूद इसके काला और सफेद माध्यम उबाऊ अथवा उदासी की भावना को उभारने वाला नही होता है बल्कि कई परिप्रेक्ष में हमारी उभरती भावनाओं को कई गुना बढ़ा देता है मसलन हॉरर और अधिक डरावना हो जाता है और खून-खराबा वास्तविकता से कहीं ज्यादा घट जाता है ठीक उसी तरह जिस तरह स्लो मोशन युद्ध की दरिंदगी ढांप देता है। इसका कारण यह है कि हम अक्सर अपनी कल्पना से अधूरी कृतियों को पूरा कर लेते हैं यही वजह है के खंडहर इतिहास का बढ़ा चढा कर कहीं ज्यादा वैभवशाली संस्करण प्रस्तुत करते हैं। अगर आज ताजमहल खंडहर होता यानी उसके गुम्बद क्षतिग्रस्त होते और नींव ज़मीन के आन्दोलन से विकृत हो जाती, सम्पूर्ण स्मारक घने जंगल से ढँक जाता तो वह हमें कहीं ज्यादा वैभवशाली नज़र आता।
मीडिया में भी रंग स्वाभाविक नही होते, वास्तविक से ज्यादा बढ़ चढ़ कर एक ग्लैमरस तस्वीर पेश करते हैं। रंग शहर की घिनौनी तस्वीर को अधिक उभार देता है जब के सर्वत्र धुंध की चादर उसी शहर को शांत और दिलकश बना देता। तो क्या हम हर चीज़ रंगों में देखना कहते हैं? इसका उत्तर साफ साफ़ है हाँ, पर वास्तविक से ज्यादा रंगीन।
Monday, October 20, 2008
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बोधिसत्त्व : श्रावस्ती पर एक और कथा
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