अक्सर ये दोनो लफ्ज़ पर्यायवाची की तरह इस्तेमाल होते हैं लेकिन सच्चाई यह है के इन दोनो शब्दों का अर्थ जुदा है। दिमाग़ हमारा मस्तिस्क यानी वह गूदा है जो हमे खोपडी में भरा है जबके ज़ेहन अमूर्त है, हमारा मानस। अगर कंप्यूटर का सादृश्य लें तो समझ लीजिये के दिमाग़ हार्ड-वेयेर है और ज़ेहन सॉफ्ट-वेयेर। दरअसल हम तमाम दुनिया की अपने ज़ेहन से व्याख्या करते हैं। हर चीज़ हमारी इन्द्रियों के ज़रिये ज़ेहन तक विद्युत् तरंगों द्वारा पहुँचती जहाँ ज़ेहन उनका विश्लेषण कर तय करता है की वह क्या है इत्यादि। लेकिन क्या इन्द्रियां वास्तविक हैं? दरअसल यह प्रक्रिया यानी इन्द्रियों द्वारा विद्युत् तरंगों का मानस तक पहुंचना और उसका मानस द्वारा विश्लेषण भी तो ज़ेहन का ही interpretation है। अगर इस तर्क और आगे ले जाए तो पाएंगे की हमारा ज़ेहन भी ज़ेहन का ही सृजन है। कहने का मतलब ये है की तमाम सृष्टि हमारे 'Mind' का ही 'Creation' है.
इस लिए अगर इस संसार को माया कहें तो क्या ग़लत है?
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अहंकार
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3 comments:
दिमाग के बिना ज़ेहन का कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिए ज़ेहन दिमाग का सृजन है। यह सृष्टि माया नहीं। वह आद्य पदार्थ की अभिव्यक्ति है।
कपिल मुनि- ।।स्वतत्रं प्रधानं स्वतंत्रम् जगतः कारणम्।।
"read your artical, but i am totally confused about it..'
regards
मुख्य बात यह है के जो भी हमें सूझता है वह ज़ेहन का interpretation है इसलिए यह कहना के दिमाग के बिना जेहन का अस्तित्व नही यह मान कर चलना है के जो भी ज़ेहन का interpretation है वह सही है!
अगर मान लिया जाए के ज़ेहन का interpretation फर्जी है तो कैसे कह सकते हैं के दिमाग है भी या नही है, ज़ेहन स्वयं है भी या नही है?
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