Friday, June 13, 2008

कुलदीप सिंह


सुन लीजिये फुरसत है फिर क्या हो खुदा जाने
कब से हैं मेरे दिल में बेताब कुछ अफ़साने

------------------------जोश मलीहाबादी

हर किसी की तरह मैं भी इस संदेह का शिकार था कि प्रकृति एक भव्य साजिश के तहत मुझे ज़िंदगी में हमेशा नाकामयाब बनाए रखना चाहती है। मैंने अपने को जीवन में अक्सर अवसर से एक कदम पीछे पाया, जैसे के जब मुझे जब ' युवा बाबू ' होना चाहिए था में 'नन्हा बाबू था और जब 'परिपक्व बाबू' होना चाहिए था उस वक्त में ' युवा बाबू ' था। कुलदीप सिंह अंतरफलक मेरे जीवन में पलक झपकते ही गुजर गया लेकिन वह मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण मरहला था। कुलदीप एक सिख था , अनिच्छुक नहीं , बल्कि एक उदासीन सिख; तर्कसंगत और बहुत ही परिपक्व जो जीवन को बहुत ही गहराई से और निष्पक्ष अंदाज़ से तोलता था। कुलदीप धूम्रपान करता था , सिखों में एक अपवाद ख़ास तौर पर एक छोटे से कस्बे में है . हम 'Flower Childern' के दौर में कुछ वक्त देर से आए, यह दौर अब ढल रहा था । 'बीटल्स ' का उफान थम रहा था और 'बेलबाटम्स' संकरे हो रहे थे किंतु 'संताना' का जादू आज भी हमें उद्वेलित करता था और 'साउन्ड ऑफ़ साइलेंस' कि मधुर धुन हमें मदमस्त कर देती थीं . कभी कभी हम मारिजुआना और चरस का भी इस्तेमाल कर लेते थे , मैं कुछ अपराध भाव से और कुलदीप लोकाचार की उपेक्षा करते हुए उत्सुकता और सुख कि चाह से। वे दिन पैसों की तंगी के थे , जब जेब खाली हो सिगरेट के फेंके हुए टुकड़ों से काम चला लिया जाता था । कुलदीप ने सिगरेट के मांसल टुकड़ों को एकत्र करने का एक नायाब तरीका़ हासिल कर लिया था। सरकंडे कि छड़ी पर एक पिन लगा कर शाम के वक्त जब हम घूमने के लिए निकलते, कुलदीप सिगरेट के उन उपयोगी टुकड़ों को बड़ी आसानी से पाकेट में पहुँचा देता। इस काम में उसने अच्छी खासी महारत हासिल कर ली थी और बिना किसी की नज़र में आए सिगरेट बटोरने के काम को वह बखूबी अंज़ाम दे देता था। किंतु तंगी का ये दौर सिर्फ़ महीने के अंत तक ही रहता था और जैसे ही महीने के शुरू में घर से मनी आर्डर चला आता , हम फिर अपनी ब्रांड 'Wills' पर लौट आते। . हमारा हॉस्टल काफ़ी 'avante -garde' था इसलिए कुलदीप का सिगरेट पीना, जो भी कुछ सिख विद्यार्थी वहाँ थे, उन्हें नागवार ज़रूर लगता पर बर्दास्त के बाहर नही ! किंतु जब स्टाफ के एक सिख ने कुलदीप को सिगरेट पीते देख लिया, बस कहर बरपा हो चला !

वह सर्दियों में रविवार की एक आलस भरी सुबह थी। हमारे कमरे छात्रावास के भूतल पर थे, सिर्फ़ चार कमरे हमारे दरमियाँ! उस रोज़ मैं जनवरी के मद्धम सूर्य की धूप का सेवन करते हुए, हाथों में एक झागदार टूथब्रश लिए छात्रों के विशिष्ट अंदाज़ में फर्श पर बैठा दांतों को ब्रुश कर रहा था। अभी सुबह के सिर्फ़ नौ बजे थे और एक मूर्ख जिसे वक्त का ज़रा भी अहसास न था, ऑल इंडिया रेडियो से बेगम अख्तर की मशहूर-ऐ-ज़माना ठुमरी "ऐ मुहोब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया … ... ' बजा रहा था। उस वक्त बेगम की ये स्वर के साथ कुश्ती " रोना ...आया । । ॥ रो नअ आ आया " बहुत ही बेहूदा लग रही थी॥ खंभों कि छाया हॉस्टल के गलियारे को एक बाघ के धरियुं कि तरह प्रकशित कर रही थी। छात्रों के कई समूह कुछ कुछ दूरियों पर गपशप में मशगूल थे। कुलदीप अभी तक सो रहा था।

उस वक्त मैंने देखा, सिखों की एक मंडली जिनमें कुछ रंगीन लिबास पहने, कमर में किरपान बांधे हुए और कुछ अपनी सफ़ेद दाढी लहराते, गलियारे के अंत से मेरी ओर तेजी से आ रही थी। वे लोग कुछ इस कदर संजीदा और शांत थे के उनके आने का आभास ही न होता था, मानों वे हवा में तैर रहे हों। वे छात्रों के समूह को इस तरह पार कर गये मानों उनका कोई वाज़ूद ही न हो। जब वे मेरी नज़दीक पहुंचे तो डर की एक लहर मेरे शरीर में व्याप्त हो गयी। परन्तु मेरा डर बेवज़ेह था, इन लोगों ने मुझे घूरा फिर बिल्कुल ही नज़रंदाज़ कर दिया और कुलदीप के कमरे पर जाकर ठहर गए। अचानक ही उन सभी में शक्ति का संचार हुआ और वे कुलदीप का दरवाज़ा बे-सबरी से खटखटाने लगे। कुछ ही पलों में नाराज़ कुलदीप ने दरवाज़ा खोल दिया। इस से पहले के वह कुछ बोलता , सिखों ने कमरे में प्रवेस किया फिर कुलदीप को अन्दर खींच कर दरवाज़ा ज़ोरदार आवाज़ के साथ बंद कर दिया। फिर एक लंबा दौर फुसफुसाहट और शोर शराबे का शुरू हुआ। अब तक दुसरे छात्र भी वहाँ पहुँच गए थे और विभिन्न अटकलबाजी़ में व्यस्त हो गए। ये सिलसिला तक़रीबन बीस मिनटों तक चलता रहा और फिर एक ज़ोरदार कोरस "जो बोले सो निहाल, बोलो सतश्री अकाल" के साथ खत्म हुआ।

अब सभी सिख एक क़तार में बाहर आए, उनके चेहरे अभी भी गंभीर थे । संदेह और संतोष की मिश्रित भावनाओं के साथ बे-आवाज़ ,बेलाग लपेट उसी तरह, जिस तरह के वह लोग आए थे , वापस चले गाए।

हम सभी एक अंदेशा भरी निगाहों से कुलदीप के दरवाज़े पर टकटकी लगाये खड़े थे। कुछ आशंकित और कुछ अनहोनी के भय से कुलदीप के निकलने का इंतज़ार करने लगे।! लेकिन आश्चर्य! कुछ ही देर में एक नाराज़ और कुछ शर्मिंदगी में डूबा कुलदीप बाहर आया।
" क्या हुआ ? " मैंने पूछा
" कुछ नही यार!" उसने कहा फिर क्रोध में बोला," ये सिरफिरे! शराब तो ठीक है , सिगरेट नहीं , कतई नहीं ! "

उसने मेरी तरफ़ देखा और बोला, "क्या तेरे पास इस वक्त पाँच रूपये हैं?"
मैंने मुंह बनाया और बेमन से कहा, "हाँ!"

कुछ ही पलों हम नजदीक के हज्जाम के पास गए जहाँ कुलदीप ने पहली बार दाढी और अपने लंबे केश ट्रिम करवाए। एक बार जब बाल और दाढी कट गई, कुलदीप ने अपने आप को पहली बार इतना हल्का और आज़ाद महसूस किया, जो उसके चेहरे पर बखूबी झलक रहा था। मैं हमेशा से पढ़ाई, पॉलिटिक्स के ज्ञान और आर्ट्स के संधर्भ में कुलदीप से कहीं बेहतर था , फिर भी मैं उस की ज़िंदगी पर तीक्ष्ण पकड़, जीवन की जटिलताओं को समझ पाने और आसानी से सुलझाने की कला से आश्चर्यचकित था। उसका ज़िंदगी को जीने का अंदाज़ मुझे गहराई से प्रभावित करता था। उस ने एक गहरी सांस ली जेब से सिगरेट कि डिब्बी नकली और एक सिगरेट सुलगा ली। एक बहुत ही गहरी कश लगा कर निकोटीन को अपने फेफड़ों में घुलने दिया और धुआं मेरे तरफ़ फेंका जिस से मेरे चेहरा ढँक गया। कुछ देर सोच कर उसने दार्शनिक अंदाज़ में कहा,

डरता हूँ असमान का जादू न टूट जाए
लब पर कोई सवाल सा आया हुआ तो है!

मैं हैरत में था! एक अजी़बो-ग़रीब 'स्किजो़फ्रेनिक' कायापलट से मैं काली हवा से 'नन्हें बाबू' में बदल गाया। एक मासूम नासमझ के मानिंद मैंने अपने सिर के झटका,
"इस का क्या मतलब है? " मैंने पूछा
उस ने मुझे एक लंबी और गहरी व तीक्ष्ण द्रष्टि से देखा और पहेली के अंदाज़ में कहा,
"ये तो फिलोसोफी है ! "

मुझ में उसकी सोच पर प्रश्न उठाने का साहस नहीं था इसलिए जो भी कहा गया उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। लेकिन उसके ये शब्द मेरे अन्तःकर्ण कि गहराइयों में समा गए और रह रह कर झंकृत होने लगे। आज तक ये शब्द मेरे अवचेतन में लिपिबद्ध हैं कभी कभार उभर कर मुझे उद्वेलित करते रहते हैं।

डरता हूँ असमान का जादू न टूट जाए
लब पर कोई सवाल सा आया हुआ तो है!

"सचमुच क्या फिलोसोफी है!"

मूल्यांकन

 मुझे ट्रैन का सफ़र पसंद है, सस्ता तो है ही अक्सर ही दिलचस्प वाक़िये भी पेश आ जाते हैं। हवाई सफर महंगा, उबाऊ और snobbery से भरा होता है , हर क...