एक बार नंदन मोहन के यायावर स्वभाव ने हठ की कि चरेख डांड विचरण किया जाय। तदर्थ दाणी (नंदन मोहन) प्रातः ही गुदड़ी में चून की रोटी और चटनी रख डान्ड की ओर प्रस्थान कर गया। शनैः शनैः प्रकृति का आनंद लेते मंथर गति से वह आगे बढ़ने लगा। जीवन से संबंधित घटनाक्रम भी बिना किसी अपवाद घटित होता रहा, जैसे पत्थर से ठोकर खा, खरोंच आना, सुन्दर तितलियों के समूह द्वारा सम्मोहित हो जाना इत्यादि। जैसे जैसे दाणी आगे बढता गया वैसे वैसे प्रकृति में निरंतर बदलाव आता गया। उत्तरोत्तर अधिक परिपक्व वनस्पति और वन्य जन जीवन के दर्शन होने लगे। दाणी हतप्रभ था, उसे इस बात का रत्ती भर आभास न था कि वह किस काल में है, किस स्थान पर है। वह विभिन्न आशंकाओं से घिर गया, विचार करने लगा कि इस मार्ग पर चलना मूर्खता होगी? उसने मुड कर देखा, घोर आश्चर्य ! पीछे कुछ भी नहीं था। कुछ भी नहीं अर्थात कुछ भी नहीं। अनंत व्योम मानो गज भर की दूरी में समा गया हो और विश्व अणुओं में विच्छेदित हो मात्र एक छोटे से व्यास खन्ड में समाहित हो गया हो। पीछे चलने का कोई लाभ नहीं था, चलने का आभास मात्र था किन्तु परिदृश्य में कोई बदलाव न आता था केवल चलने का अहसास था पर वह अपनी जगह से टस से मस नहीं हो रहा था।
अंततः आगे बढने के सिवाय कोई चारा नहीं था। दाणी आगे बढने लगा, पूर्व की तरह प्रकृति में बदलाव जारी रहा अर्थात निरंतर विकसित वन्य जन जीवन और वनस्पति का अवलोकन हो रहा था। अब भय की भावना भी उसके मानस से धीरे धीरे समाप्त हो रही थी। इसका कारण था पशुओं का विचित्र स्वभाव, अब वे अकारण न तो शिकार करते थे न ही मादाओं के लिए संघर्ष। एक ही स्थान पर बैठ मानो मनुष्यों की तरह समाधिस्थ हों। शाकाहारी पशु और मांसाहारी पशु एक साथ विचरण करते और आवश्यकता अनुसार शाकाहारी पशु का वध किया जाता। इसमें वधित पशु कोई प्रतिरोध अथवा अक्षोभ का प्रदर्शन नहीं करते। जैसे जैसे वह आगे बढ़ रहा था बदलाव की गति तीव्रतर होती जा रही थी। फिर उसे एक कुटिया दिखाई पडी, उसकी प्रसन्नता का ठिकाना न था। वह तुरंत ही कुटिया में जा पहुंचा। जब दाणी ने कुटिया में झाँक कर देखा तो अचरज में पड़ गया। अंदर टी-शर्ट और जीन्स पहने एक दाढ़ी वाला व्यक्ति था जो लैपटॉप पर ध्यान लगाए था। उसने संकोच से पूछा, 'श्रीमान आप कौन हैं?'
बिना उसकी तरफ देखे वह बोला, 'गलत प्रश्न दाणी ! नाम में क्या रखा है, चलो मैं वशिष्ठ हूँ।'
'वशिष्ठ काला ?'
वह हंसने लगा। फिर कहा, 'दाणी, तुम अचरज कर रहे मैं कौन हूँ और यहां क्या कर रहा हूँ। लेकिन मुद्दा ये नहीं की मैं यहां क्या कर रहा हूँ , मुद्दा ये है की तुम यहां क्या कर रहे हो? आज सुबह जब तुम घर से निकले तो अनायास ही तुमने समय और स्थान के आयाम विखंडित कर नए आयाम में प्रवेश कर लिया। यूँ समझो की एक अंधा व्यक्ति, जो रंगों की कल्पना तक नहीं कर सकता था, अनायास ही दृष्टि पा कर रंगों की लीला से अचंभित हो गया हो। बौद्धिक आयाम में तुम्हारी सोच में अभूतपूर्व बदलाव आया है और शेष अज्ञान का समाधान मैं कर दूंगा।'
'श्रीमान, पशु पक्षियों का व्यवहार क्यों बदला हुआ है ?'
'वत्स, वेदांत में हमें जो समझाया गया है वह एक अंश तक ही ठीक है शेष निराधार है । हम बार बार जन्म तो लेते हैं और अपने कर्मानुसार अन्य योनियाँ प्राप्त करते हैं किन्तु ये ठीक नहीं है के कर्मों के संचय से हम जीवन दर जीवन उत्तरोत्तर ज्ञान लाभ कर मोक्ष की प्राप्ति करते हैं। वास्तव में साक्ष्य हमारे सामने ही हैं किन्तु हम उन्हें देख नहीं पा रहे। जन जीवन में क्रमिक विकास (Evolution) हमारे सामने है सोचो ज़रा इस विकास की परिसीमा क्या है ? जब एक गणतीय श्रंखला के पद निरंतर बढ़ते जाएँ और उसे अनंत तक जोड़ा जाय तो क्या उत्तर मिलेगा ? अनंत ! उसी तरह जीव का विकास हर अगले चरण में बेहतर होता जाता है जैसे मनुष्य वानर से बेहतर है, सोचो क्रमिक-विकास शृंखला की पराकाष्ठा क्या होगी ? मनुष्य विकास के अगले चरण क्या होगा , उसे हम देवता ही तो कहेंगे ? अंततः जीव ज्ञान से भी परे, ईश्वर से भी परे हो जाएगा, दिक्-काल से परे परमब्रह्म में लीन हो जायेगा। बौद्धिक आयाम में यही झलक तो तुम्हे दिखाई पड़ी !
वस्तुतः हर प्राणी का चरमोत्कर्ष मोक्ष है। इसमें निश्चित ही समय लगेगा किन्तु तुम इस असंभव से जान पडने वाले अंतराल से अभिभूत मत हो ओ। समय का आभास मायावी है मात्र बीतने की दिशा के विपरीत अथवा तीव्र गति से चलना संभव है।'
'तो, श्रीमान आप दिक्-काल जयी हैं।'
'अवश्य, मैं वशिष्ठ हूँ।'
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