Friday, October 31, 2008
खोलो प्रियतम खोलो द्वार
चलता है पश्चिम का मारुत ले कर शीतलता का भार
भीग रहा है रजनी का वह सुंदर कोमल कबरी भाल
अरुण किरणसम कर से छु लो, खोलो प्रियतम खोलो द्वार
- जयशंकर प्रसाद
बचपन में ये कविता पढ़ी थी, आज तक नही भूला। अफ़सोस हिन्दी कविता का एक बेहतरीन दौर छायावाद पलक झपकते ही गुज़र गया।
Tuesday, October 28, 2008
अतियथार्थवाद
सरिय्लिज्म अति यथार्थ है; रहस्य, समय की स्थिरता और स्वप्निल फंतासी है, आध्यात्मिक स्तर में कुछ सूफी मत के सदृश। अतियथार्थवाद जादू है और हमारी प्रकृति से मेल खाता है इसलिए कभी मंद नही पड़ता. अतियथार्थवाद की प्रतिनिधि कलाकृति सल्वाडोर डाली की 'Persistence of Memory' है लेकिन इसे हम कला के सभी माध्यमों में देख सकते हैं यह साहित्य में विद्यमान है तो छायाचित्रों में भी मिलेगा :
Thursday, October 23, 2008
प्रतिध्वनि!
हिन्दी ज़बान में मेरी दख़ल न के बराबर है फिर भी जितना इल्म है उस लिहाज़ से 'प्रति' उपसर्ग दो अर्थों में इस्तेमाल होता है, अंग्रेजी प्रीफिक्स 'per' और 'anti' के समकक्ष। उदाहरण के तौर पर प्रतिदिन, प्रतिशत और प्रतिवाद इत्यादि। बाकी़ पाठक अपना मत ज़ाहिर कर देंगे ऐसी उम्मीद है। प्रतिध्वनी में शायद यह 'anti' अर्थ में इस्तेमाल हुआ है जो कुछ अटपटा सा लगता है। उर्दू में तो प्रतिध्वनि के लिए कोई स्वतंत्र शब्द ही नही है।
यूँ तो प्रतिध्वनि किसी भी आवाज़ का प्रतिबिम्द है किंतु अध्यात्मिक धरातल पर वह अपनी ही अंतरात्मा की आवाज़ है। क्या हम इस आवाज़ को सुनते हैं? क्या है हमारी अंतःकरण की आवाज़? लालच, भय, सुख भोगने की लालसा और सबसे ज्यादा स्वयं को सुरक्षित रखने की इच्छा (Self preservation) इत्यादि हमारा मूल स्वभाव है इसके बिना शायद हमारा अस्तित्व ही न रहे। फिर छल कपट को अंतरात्मा की आवाज़ क्यों नही कहा जाता? अंतरात्मा की आवाज़ हमेशा ही सच्चाई और निःस्वार्थ त्याग के लिए जानी जाती है, आख़िर इसकी वजह क्या है!
Tuesday, October 21, 2008
'काल यात्रा' अर्थात 'टाइम ट्रेवेल' ! ! !
'काल यात्रा' में शायद वह प्रभाव नही या वह सटीक अर्थ नही जो अंग्रेजी लफ्ज़ 'टाइम ट्रेवेल' में है। इसमें कोई आश्चर्य नही क्योंकि अकसर लफ्जों का महत्व या वज़न इस बात पर निर्भर करता है के हम उसे कितनी सघनता से अनुभव करते हैं। उदाहरण के तौर पर 'अनुभूति' उर्दू लफ्ज़ 'एहसास' से ज्यदा प्रभावशाली है और ये दोनों ही अंग्रेजी लफ्ज़ 'फीलिंग' से कहीं अधिक दिल के क़रीब हैं। खैर इस आलेख का मुद्दा ये नही है बल्कि क्या 'काल यात्रा' सम्भव है?
मेरा अपना ख़याल है के शायद 'काल यात्रा' केवल एक दिशा में ही सम्भव है यानी केवल भविष्य की तरफ़! इसकी दो वजह हैं, पहली वज़ह तो ये है के समय में पीछे जाने का मतलब इतिहास के साथ छेड़छाड़ करना और कुछ ऐसी असंभव संभावनाएं पैदा कर देना जो हमारे अस्तिव ही को नकार दे। मसलन 'ग्रैंडफादर पैराडोक्स' जैसी स्थिति जिसमें कोई शख़्स 'काल यात्रा' कर ऐसे वक़्त में पहुँच जाता है जब के उसके पिता का जन्म ही न हुआ हो और अपने दादा की हत्या कर देता है। दूसरी वजह कुछ अटकलबाजी पर आधारित है। सोच का आधार साधारण सा है यानी अगर 'काल यात्रा' भविष्य में कभी भी संभव हुई, और इसके लिए हमारे पास अनंतकाल है, तो इस वक़्त हमारे दरम्यान अनेक 'काल यात्री' मौजूद होने चाहियें और चाहे ठीक इस वक़्त नही तो कमज़कम पूर्व में ऐसे यात्रियों के आने का संकेत तो होना चाहिए!
Monday, October 20, 2008
काला और सफ़ेद
मीडिया में भी रंग स्वाभाविक नही होते, वास्तविक से ज्यादा बढ़ चढ़ कर एक ग्लैमरस तस्वीर पेश करते हैं। रंग शहर की घिनौनी तस्वीर को अधिक उभार देता है जब के सर्वत्र धुंध की चादर उसी शहर को शांत और दिलकश बना देता। तो क्या हम हर चीज़ रंगों में देखना कहते हैं? इसका उत्तर साफ साफ़ है हाँ, पर वास्तविक से ज्यादा रंगीन।
Wednesday, October 15, 2008
सफ़ेद धुआं
जमुना में कोई हलचल ही नही
खिसकता था नभ में,पुल के ऊपर
सूर्य में कोई चमक ही नही
ज़मीं से कुछ ही ऊपर
टंगा था घना सफ़ेद धुआं
छिप गया था शहर का चेहरा
घिनौना था जो इसके बिना
मृत, नदी के किनारे पड़ा
लावारिस एक बच्चे का शेष
धुंध का शुक्र जो कफ़न दिया
हट के जाते थे बेखबर लोग
डूबा, उसने चोरी जो की
लगा के छलांग नदी में गहरी
सिक्के जो फेंके थे भक्तों ने
ईश्वर को रिझाने के लिए
ऊब रहे हैं फिर भी मगर
कर उपभोग, कर उपभोग
बहुतायत का है ज़ोर
खुश हैं मगर कुछ ही लोग
* * *
Tuesday, October 14, 2008
सूर्य प्रभाव
Cluade Monet की ये तस्वीर योरोपीय चित्रकला में आये क्रन्तिकारी दौर Impressionism की प्रतिनिधि कलाकृति है। दरसल "इम्प्रेसनिज्म" नाम भी इस चित्र के ऊपर ही पड़ा। मोने की इस तस्वीर का नाम है "Impression: Soleil Levant" है।
Saturday, October 11, 2008
हवा में दरार
पहले का दौर कुछ ठीक था। कला के कद्रदान होते थे और कलाकार को एकमुश्त ही उसकी कला की क़ीमत मिल जाती थी, फिर कला सार्वजानिक हो जाती थी। हर व्यक्ति उसे क़रीब से देख, छू और अहसास कर सकता था। लेकिन जैसे ही कला पर मूल्य का तमगा लगा हमने मंदिरों और अन्य बेशकीमती धरोहरों के नष्ट होने का ऐलान कर दिया।
Wednesday, October 08, 2008
आख़िर बाबर मरा कैसे?
यह सुन वह आश्चर्य में डूब गया, अनायास ही उसके मुंह से शब्द निकल पड़े, "अल्लाह तुम सर्वशक्तिशाली हो, जो भी इस कायनात में होता है तुम्हारे इशारों से होता है। सम्पुर्ण ब्रह्मांड तुम्हारे निर्देशों से ही चलता है। उद्देश्य के बिना घटनाओं का रैंडम होना हमें भौचक्का कर देता है और सम्पुर्ण संसार को तर्कहीन!"
"यह तो तुम विचित्र सा कारण बताते हो, खैर इस विषय में बाद में, लेकिन उस सूरत में हुमायूँ की बिमारी का कई वैध कारण होगा! आखिर इस अव्यवस्था में भी कुछ व्यवस्था तो होगी? अल्लाह के कार्य सनक में तो नही होंगे? "
"आपकी बुद्धि पर सवाल उठाने वाला मैं कौन होता हूँ! ज़रूर कोई कारण होगा जिस वजह से हुमायूँ बीमार है। आप दयावान हैं और आप में क्षमा करने का सामर्थ भी है।"
"और उस कारण का क्या होगा अगर अल्लाह तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार कर ले?"
"निश्चित ही कारण का समाधान तो होना ही चाहिए। किसी को आगे आ कर कारण निरस्त करना होगा, चूंके कारण मुझे ज्ञात नही है पर परन्तु परिणाम निश्चित रूप से हुमायूँ की मृत्यु नज़र आती है लिहाज़ा मैं स्वयं को मृत्यु के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ।"
"तुम तो कर्म को इस तरह प्रस्तुत कर रहे हो मानो वह हस्तांतरणीय हों और अगर मान भी लिया जाए के ऐसा सम्भव है तो क्या यह असमान विनिमय न होगा।"
"असमान? क्यूँ परवरदिगार!"
"तुम वृद्ध हो जबके हुमायु युवा है दोनों की जीवन शैली में ज़मीन असमान का फर्क है। तुम एक वृद्ध की छोटी उम्र एक युवा की लम्बी उम्र से बदलना चाहते हो!"
"यह सत्य है, परवरदिगार। लेकिन इस विसंगति के लिया आप चाहें तो मेरी मृत्यु उतनी ही दर्दनाक बना दें।"
"यह तो बहुत ही दिलचस्प है। भला पीडा जीवन की अवधि और क्वालिटी की क्षतिपूर्ति कैसे कर सकती है? इंसान की पीडा उसका अपना ही कृत्य है, और दर्द मात्र एक मनःस्थिति है शरीर को होने वाले शंकट से आगाह करने वाला अलार्म। तुम तो ऐसा दिखा रहे हो मानो अल्लाह कोई क्रूर ज़मींदार हो जिसे मनुष्यों को दुःख देने में, उन्हें ज़लील करने में आनंद आता है?
"दया करो मेरे प्रभु! मैंने ऐसा कभी नही सोचा। आध्यात्मिक संसार में सुख देने वाली वस्तुओं का महत्व नही है लेकिन यही वस्तु भौतिक जगत में जब विनिमय में इस्तेमाल होती हैं तो दुःख का सृजन करती हैं। मै तो सिर्फ़ भौतिक और अध्यात्मिक संसार में एक समानांतर देख रहा था। चूंके दुःख और पीडा हर सौदे का आम पहलु है इसलिए मैंने सोचा के अपने पुत्र को जीवित देखने का संतोष और मेरी अपनी पीडा शायद बराबरी का सौदा है।"
"यह तो हास्यास्पद है। सांसारिक एक्सचेंजों में वस्तुओं का हस्तांतरण होता है और चूंके दोनों पार्टी एक दुसरे की वस्तु का अलग अलग मूल्य निर्धारित करती है इसलिए तो सौदा होता है। यही सिद्धांत अमूर्त एक्सचेंज में भी लागु होता है। भला किसी को दर्द में क्या दुर्लभता नज़र आएगी?
"सर्वशक्तिमान प्रभु, मुझ में आप से तर्क करने की क्षमता नही है। हम इंसान भावुक होते हैं और भावुकता में ही अक्सर काम करते हैं। तर्क वैसे भी सापेक्ष रूप में ठीक लगते हैं क्यूंकि यह इस बात पर निर्भर करता है की आप का ज्ञान कितना है आप में उन्हें प्रस्तुत करने का कितना कौशल है। मैं आप से कैसे मुक़ाबला कर सकता हूँ? हमारे लिए पीड़ा बलिदान का प्रतीक है। मेरे पास जो है वही मै प्रस्तुत कर रहा हूँ इसलिए सर्वशक्तिमान उसे स्वीकार करें!
"तुम तो अपनी कब्र ख़ुद ही खोद रहे हो। इंसान भी अजीब है, अगर उन्हें सुखी कर दें तो यह उन्हें अविश्वसनीय लगता है, वास्तविकता वे दर्द और पीडा से महसूस करते हैं। वे आसान और साधारण को जटिल व्याख्या में परिवर्तित कर ब्रह्मांड में स्वयं के महत्व देने की चेष्टा करते हैं। "
"ओह दयालु अल्लाह, मैं अपने बेटे की जान के बदले में जान देना चाहता हूँ मौत नही तलाश रहा हूँ!"
"अल्लाह! मुझे अल्लाह मत कहो। मैं अल्लाह नहीं हूँ।"
"मैं आप को किस नाम से पुकारों?"
"तुम क्यों नहीं समझते, मैं अल्लाह या भगवान या कुछ भी अलौकिक नहीं हूँ। मैं स्वयं तुम हूँ, तुम्हारी छवि, तुम्हारा अवचेतन स्वरुप। मैं तुम्हारा अहम् तुम्हारी स्वतंत्र आत्मा हूँ। तुम्हारा बेटा शायद फिर भी ठीक हो जाए लेकिन अगर तुमने मुझे न पहचाना तो तुम अवश्य ही मारे जाओगे, हुमायूँ चाहे जिंदा रहे या न रहे।"
अजीब बात हुई। यह चमत्कार नहीं था, लेकिन सिर्फ एक रैंडम घटना, हुमायूं के शरीर ने रोग के विरुद्ध आवश्यक एंटीबौडी पैदा कर ली। एक बार यह हो गया तो फिर उसे ठीक होने में देर न लगी। इसी समय बाबर का क्षय शुरू हो गया। उसे अल्लाह के हस्तक्षेप पर परम विशवास था लिहाज़ा मस्तिष्क ने kill संकेत भेजना शुरू कर दिया। एक एक कर उसके अंगों ने काम करना बंद कर दिया अंततः बाबर स्वयं ही चल बसा।
* * *
बाबर
[हुमायूं जब मृत्युशय्या पर पड़ा था, बाबर ने उसकी तीन बार परिक्रमा की और अल्लाह से प्रार्थना की के वह हुमायूं की ज़िन्दगी बख्स दे चाहे बदले में उसकी ज़िन्दगी ले ले। फिर ऐसा ही हुआ, हुमायूं तो ठीक हो गया लेकिन बाबर शीघ्र ही बीमार हो कर चल बसा। जब मैं पांचवीं या फिर छठी कक्षा में था तब ये कथा हमारी किताब में थी। यही कहानी मैंने कई मर्तबा अन्य जगह भी पढ़ी है लेकिन शायद ऐसा नही हुआ। तो फिर क्या हुआ था?]
अब अत्यंत ही दुर्बल, हड्डियों का एक बंडल, पतली सूखी झुर्रीदार त्वचा में लिपटा हुमायूं तेजी से अंत की ओर फिसल रहा था। बाबर सभी उपाय कर चुका था, श्रेष्ठतम हकीमों और वैद्यों का इलाज कुछ भी काम नही कर रहा था अंततः क्रोधित हो उसने हकीमों और वैद्यों की काल कोठरी में डाल दिया। यह पहला अवसर था जब बाबर ने अपने आप को पुरी तरह असहाय महसूस किया। दरअसल बाबर के लिए यह पहला मौका था जब वह किसी समस्या से एकदम बेबस हो गया था, अन्यथा वह सम्पुर्ण रूप से स्वयं सिद्ध पुरूष था, एक शक्तिशाली सम्राट जिसने अपनी विलक्षण बुद्धि के कुशल उपयोग और ताक़त के बल पर एक विशाल राज्य की स्थापना की। उसे किसी के सामने झुकने की ज़रूरत कभी नही पड़ी क्यूंकि वह सब कुछ अपने बलबूते ही प्राप्त करने की हैसियत रखता था। विजय कभी भी उसके लिए अति आनंद का विषय नही रही, मात्र सही तकनीक और बल के उचित उपयोग का तर्क पूर्ण नतीजा और उसी तरह पराजय भी विषाद का सबब न बन सकी। लेकिन अब, जब कुछ भी काम न आया और उसके अत्यन्त ही नजदीकी और विश्वसनीय सलाहकारों ने अल्लाह से प्रार्थना करने की बात कही तो वह हतप्रभ रह गया। अपने प्राण से प्रिय पुत्र को मृत्यु की और अपरिवर्तनीय रूप से फिसलता देख वह असहाय हो गया था और अंततः अल्लाह से विनती करने को तत्पर हो गया।
हुमायु की शय्या की तीन परिक्रमा कर, वह घुटनों के बल झुक गया और कहने लगा, "अल्लाह सर्वशक्तिमान, मेरे बेटे को जीवन दान दे दे चाहे तो मेरी जान ले ले।" उसके अन्दर मौजूद सौदेबाज अब भी सक्रिय था।
निराश और थका, जल्द ही वह पस्त हो बेहोश हो गया। कुछ समय पश्चात् उसे एक आवाज़ सुनाई दी, "तुम अल्लाह को अपने बेटे की बीमारी का सबब क्यूँ बनाते हो? क्यों तुम इसे इतना जटिल बना रहे हो? घटनाओं का बेवजह होना क्या उन्हें समझने का आसान तरीका नहीं?"
शेष कल ........
Monday, October 06, 2008
दिमाग़ (Brain) और ज़ेहन (Mind)
इस लिए अगर इस संसार को माया कहें तो क्या ग़लत है?
धर्म!
यूँ तो बौध धर्म की शुरआत काफी आशाजनक रूप में हुई लेकिन शीघ्र ही वह भी हिदू धर्म की तरह कर्म-काण्ड के माया जाल में फंस गया और अब लगभग फार्म और चरित्र में उसकी तरह ही रह गया है. इसाई और यहूदी धर्म भी मसखरेपन की इन्तेहा ही हैं लेकिन इधर कुछ समय से वे धर्म से कई विषाक्त परम्पराओं की तिलंज्जली देने में समर्थ हुए है. लेकिन इन सब से अलग इस्लाम तो भयभीत करने वाला है.
Sunday, October 05, 2008
दसवां रस!
हर व्यक्ति जो ललित कलाओं में रुच रखता है वह 'नव रस' से अनभिज्ञ न होगा। लेकिन इन नव रसों के अतिरिक्त भी एक ऐसी अनुभूति है जिसे ऋषि भरत 'नाट्य शास्त्र' में शामिल करना भूल गए!
"अम्बुआ की डाली डाली , कोयल ......" गीत सुनते है यादों का एक सैलाब उमड़ पड़ता है। मैं सिर्फ इतना कह सकता है, 'नोस्टैल्ज़िया' एक भ्रामक, समय की मार खायी धुंधली तस्वीर है जिसमें नुकीले कोने कुंद कर दिए गए हैं और एक गुज़रे ज़माने का रोमानी किंतु चुनिन्दा संस्करण पेश किया गया है। हैरत है की पश्चिमी जगत के मुकाबले इतना भावुक होते हुए भी हमारे पास 'नोस्टैल्ज़िया' का हिन्दी समानांतर शब्द नही है। चूँकि यादों का सैलाब 'सेलेक्टिव' होता है, इसलिए अक्सर भ्रम पैदा होता है की गुज़रा वक़्त आज से कहीं बेहतर था। सच्चाई तो यह है के वर्तमान हमेशा ही गुज़रे वक्त से बेहतर होता है चाहे समय के कुछ छोटे अन्तराल अपवाद ज़रूर होते हों।
आख़िर 'नोस्टैल्ज़िया' हमारी जीवित रहने की वृति के तहत कैसे विकसित हुआ होगा? शायद पुराने अनुभवों को याद रखने के लिए इन्हे रूहानी अहसास दे दिया हो। कुछ भी हो 'नोस्टैल्ज़िया' एक अनोखी अनुभूति है जिसे हम 'नव रसों' में शामिल करना भूल गए।
Saturday, October 04, 2008
आत्मा !
माया मरी न मन मारा, मर मर गया शरीर
आशा तृष्णा न मरी कह गए दास कबीर
जो भी विचार हमारे मस्तिष्क से गुज़रता है दरअसल हम उसे सुनते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो कोई हमारे विचारों को पढ़ रहा है। शायद इसी वजह से यह आभास होता है के इस शरीर से परे भी कोई अमूर्त चीज़ है जो हमारे मानस में निवास करती है और सम्भव है के इसी कारण से 'आत्मा' की अवधारणा पनपी हो। चूँकि यह अनोखी चीज़ अमूर्त है इसलिए शायद न नष्ट होने का गुण तो स्वयं ही निकल आया होगा। एक दूसरी बात और भी है; हमारी सोच यह कभी बर्दाश्त नही कर सकती के मृत्यु हमारे वज़ूद का अंत है। यह ख़याल हमें बौखलाने के लिए पर्याप्त है इसलिए जीवन की निरंतरता का नक्शा हर धर्म विचार में मिलता है। आत्मा की मौजूदगी से इस धारणा को बल मिलता है। लेकिन सोचने की बात यह है के अगर मृत्यु सिर्फ़ एक इंटरफेस है तो निश्चय ही मृत्यु के पर्यंत जीवन का नक्सा गुणात्मक रूप से इस जीवन से भिन्न होना चाहिए अन्यथा मृत्यु का इंटरफेस होना बेमानी, लेकिन ऐसा कोई भी संकेत नही मिलता है बल्कि हर विचार जीवन की इसी धारा का विस्तार है।
दरअसल भाषा के बिना जटिल विचार असंभव है और ज़बान तो बोली और सुनी जाती है! सोचिये भला! बिना ज़बान के हमारी सोच जानवरों की तरह रह जायेगी यानी मात्र ग्राफिक। स्वप्न जानवरों को भी आते हैं मगर वही वर्चस्व की लडाई अथवा अन्य जानवर से अपनी जान बचने के लिए पलायन करना इत्यादि। भाषा हमें जानवरों से 'क्वांटम जम्प' आगे पहुँचा देती है। इस परिप्रेक्ष में तो यही लगता है 'आत्मा' मात्र हमारे दिमाग का फितूर है।
Friday, October 03, 2008
त्रिकालदर्शी!
कई वर्ष पूर्व एक अंग्रेजी सीरयल 'स्टार ट्रेक' देख रहा था। कॅप्टन कॅर्क ने एक महत्वपूर्ण बात कही। हुआ यूँ के अपनी एक यात्रा के दौरान वे पृथ्वी पर पहुंचे जहाँ उन्हें कुछ अच्छी तरह संरक्षित मनुष्यों के शव प्राप्त हुए। चूंके उनके पास टेक्नोलोजी उपलब्ध थी, उन्होंने आसानी से उन शवों को जीवित कर दिया। जीवित व्यक्ति भविष्य की अत्याधुनिक जीवन पद्धति से चकाचौंध रह गए, मसलन हर शान-ओ-शौकत-ओ-आराम का सामान पलक झपकते है हाज़िर हो जाता था। कुछ ही रोज़ में पुनः जीवित एक व्यक्ति ने अचरज से पूछा, "कॅप्टन कॅर्क, आप लोगों के पास हर ऐश-ओ-आराम का सामान है, ऐसी कोई भी चीज़ नही जो आप पलक झपकते ही पैदा नही कर सकते, मृत्यु पर आप विजय पा चुके हैं फिर ऐसा क्या है जो आप को जीवित रहने का कारण देता है? कुछ सोच कर कॅप्टन कॅर्क ने कहा, "ज्ञान! हम नई नई चीज़ों के बारे में जानना चाहते हैं, ब्रह्माण्ड में अभी भी अनगिनत रहस्य हैं जिन्हें हम जानना चाहते हैं। हमारी यही इच्छा हमें जीवित रहने को प्रेरित करती है."
त्रिकालदर्शी, तो तीनों कालों का ज्ञाता होता है, फिर उसे क्या जीवित रखता है?
Thursday, October 02, 2008
फिर क्या शंकर विफल नही रहे..........
मुझे ईश्वर में क़तई आस्था नही है लेकिन फिर भी कई बार तीर्थ स्थानों की यात्रा करनी पड़ती है। दरअसल हम पैदा ज़रूर आज़ाद होते हैं लेकिन उसके बाद हर तरह की बंदिशें झेलनी पड़ती हैं और यही कारण था के कुछ वर्ष पुर्व मुझे केदारनाथ की यात्रा पर जाना पड़ा। मेरे लिए तो यह एक अच्छा 'एडवेंचर' रहा। मन्दिर वाक़ई एक बहुत ही खूबसूरत स्थान पर स्थित है और ८- से १० घंटे की कठिन चढाई के पश्चात वहाँ पहुंचना सहमुच ही अनूठा अनुभव है। वहां पहुँच कर मुझे एक अजीब ही नज़ारा दिखा। लोग पौ फटते ही गौरीकुंड* से केदारनाथ की कठिन यात्रा पर निकल पड़ते हैं। वे अपनी कमजोरियों पर विजय पाकर साहसपूर्वक ८- १० घंटे बाद केदारनाथ पहुँचते हैं। थक के चूर वे जल्द ही दर्शन की चिंता में डूब जाते और वक्त इसी सोच में बिता जल्द ही सो जाते। अगले दिन फिर सुबह ही वे मन्दिर में दर्शन के लिए लाइन में लग जाते। वे क्षुद्र बातों पर लाइन में अपनी स्थिति के लिए झगड़ते, प्रबंधकों को गालियाँ देते और धक्का-मुक्की कर मन्दिर में प्रवेश करते। किसी प्रकार जब वे पूजा अर्चना से निवृत हो कर बहार आते तो उन्हें वापस जाने की चिंता सताने लगती। रास्ता लंबा है इसलिए वे आनन-फानन गौरीकुंड के लिए रवाना हो जाते ताकि शाम ढलने से पहले वहाँ पहुँच जाएँ। इस आपा-धापी में वे केदारनाथ के जादुई तिलिस्म से वे पूरी तरह नावाकिफ़ रह जाते हैं।
लेकिन शायद पहले ऐसा न था। लोगों किसी शेडयूल के तहत यात्रा नही करते थे, न ही उन्हें घर वापस पहुँचने की जल्दी रहती इसलिए वे केदारनाथ के तिलिस्मी भौगोलिक स्थिति का वास्तविक आनंद उठाने में सक्षम रहते होंगे । इस लिहाज़ से देखा जाए तो वाकई शंकर पहले तो सफल रहे लेकिन आज के सन्दर्भ में पूर्ण रूप से विफल.....................
काली हवा
*गौरीकुंड से केदारनाथ १४ किलोमीटर का पैदल रास्ता है।
Wednesday, October 01, 2008
शंकर की सफलता ....
"हे महान आचार्य, तुम सफल होगे और असफल भी।"
भालू की बात सुन सब आश्चर्य चकित रह गए, आचार्य ने मुड कर देखा और पूछा,
"आप ऐसा क्यों कह रहे हैं, महान रीछ"
"हे आचार्य तुम ज्ञानी हो और तीक्ष्ण द्रष्टि रखते हो। तुमने मेरे अप्राकृतिक आकार को देखा और जल्दी है निष्कर्ष निकला के मै कोई साधारण भालू नही हूँ, तुमने मेरे भावों को पढ़ा और ठीक अंदाज़ा लगाया के मैं कोई नुकशान पहुँचाने का इरादा नही रखता। तुम बेवजह जिज्ञासु भी नहीं इसलिए मेरी उपस्थित से सर्वथा उदासीन रहे। मेरी यहाँ उपस्थिति का तुम्हारे उधेश्य से कोई सरोकार नही इसलिए तुम ने मुझ नज़रंदाज़ कर दिया। तुम्हारा यही गुण यानी अपने उधेश्य पर पूर्ण 'फोकस' तुम्हे सफल बनाएगी। लेकिन विचित्र और असामन्य परिस्थिति को विस्तार से न जानने की तुम्हारी उदासीनता अंततः तुम्हे असफल भी कर देगी।"
ऐसा कह कर भालू चुपचाप जंगल तरफ मुडा़ और बियाबान में अदृश्य हो गया। आदि शंकर कुछ देर विचारमग्न और विस्मित से भालू की तरफ़ देखते रहे फिर आगे बढ़ गए। जल्द ही उन्हें नदी का किनारा मिल गया लेकिन साथ ही अब मार्ग अत्यधिक दुर्गम और चुनौतीपूर्ण चढाई वाला हो गया था। अब उनकी प्रगति अत्यन्त ही धीमी तथा थकान से कमर तोड़ने वाली हो गई थी लेकिन उन्होंने यात्रा साहस के साथ रुक रुक कर जारी रखी। अंततः कई दिनों की यात्रा के बाद वे एक ऊँचे पठार पर पहुंचे। ये एक अदभुद नज़ारा था। वनस्पति का नामोनिशान नहीं, दूर दूर तक छोटी छोटी हरी घास के सपाट टीलों का विस्तार और उसके पार हिमाच्छादित पर्वत श्रृंगमाला के छोर पर ग्लेशियर से टप टप टपकता हुआ पानी की बूंदों से मन्दाकिनी का स्रोत।
वहां की मनमोहक ताज़ी हवा, मन्दाकिनी के हीरे जैसे चमकते पानी का कलरव, हिम से ढंकी शिखरों का मनमोहक द्रश्य, और एक सर्वव्याप्त निस्तब्धता; पलक झपकते ही उनकी सारी थकान मिट गई। एक गहरा आत्मबोध उन्हें मंत्रमुग्ध कर एक गहरी तंद्रा में चला। अंततः शंकर ने कहा:
"वत्स, मैंने तुम्हें जीवन, मृत्यु और मोक्ष का ज्ञान दिया है। मैंने तुम्हे द्वैत और अद्वैत की अवधारणा से परिचित किया है। माया के गुण समझाए हैं और आत्मा के किसी भी अवस्था में नष्ट न होने की प्रकृति के बारे में विस्तार से बताया है। मैंने तुम्हे सांख्य, मीमांशा, दर्शन और वेदांत की शिक्षा दी है और अब वक्त आ गया है की तुम परमब्रह्म की निकटता का अनुभव करो। अगर तुम एक अखंड मौन से व्याप्त हो, कोई अनोखी शक्ति का तुम्हारे नश्वर शरीर में संचार हो रहा है, किसी अलौकिक आनंद से भावविभोर हो रहे हो तो तुम ब्रह्म के सानिध्य में हो।"
इन गंभीर शब्दों के साथ शंकर मौन हो गए। उन्होंने अपने चारों और देखा और अत्यन्त संतोष से पाया के सभी शिष्य उनके साथ पूर्ण सामंजस्य में थे। वे सभी ब्रह्म की उपस्थिति का अनुभव कर रहे थे। उन्होंने कहा,
"वत्स, हम एक अनोखे अनुभव से गुज़र रहे हैं. ये स्थान अत्यन्त ही पावन और सुख प्रदान करने वाला है। पाँचों तत्वों के अनोखे संगम से यहाँ अदभुद उर्जा का संचार हो रहा है। जो भी व्यक्ति यहाँ होगा वह ब्रह्म की नज़दीकी का अनुभव करे बगैर नही रह सकता " , फिर कुछ सोच कर उन्होंने कहा:
"बच्चों ! यह हम लोगों के लिए अत्यन्त ही स्वार्थपूर्ण होगा के हम सम्पूर्ण जगत के साथ इस अनुभव को न बांटे लेकिन साधारण लोगों को आसानी से एक अमूर्त अनुभव के लिए इस तरह की खतरनाक और मुश्किल यात्रा करने के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता है। हम यहाँ पर एक मंदिर का निर्माण करेंगे और जनसाधारण को यहाँ के आराध्यदेव की असाधारण शक्तियाँ का बखान करेंगे। केवल ऐसा करने से ही आम व्यक्ति एक कठिन यात्रा करने को प्रेरित हो पायेगा। जो भी हो यहाँ आने से वह भी इस अलौकिक अनुभव से लाभ अर्जित कर सकेगा।"
इस तरह केदारनाथ का मंदिर आचार्य शंकर के निर्देश पर बनाया गया था। कालांतर में वह एक भव्य मन्दिर में तब्दील हो गया।
मूल्यांकन
मुझे ट्रैन का सफ़र पसंद है, सस्ता तो है ही अक्सर ही दिलचस्प वाक़िये भी पेश आ जाते हैं। हवाई सफर महंगा, उबाऊ और snobbery से भरा होता है , हर क...
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शिशिर कणों से लदी हुई कमली के भीगे हैं सब तार चलता है पश्चिम का मारुत ले कर शीतलता का भार भीग रहा है रजनी का वह सुंदर कोमल कबरी भाल अरुण किर...
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( महाभारत का यह बेहद ही नाटकीय हिस्सा है, मैंने इस एक नया अर्थ देने की कोशिश की है) यक्ष - रुको! मेरे सवालों के जवाब दिए बिना तुम पानी नहीं ...
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एक बार नंदन मोहन के यायावर स्वभाव ने हठ की कि चरेख डांड विचरण किया जाय। तदर्थ दाणी (नंदन मोहन) प्रातः ही गुदड़ी में चून की रोटी और चटनी रख डा...