Friday, December 05, 2008

चीख . . .!


कहते हैं एक तसवीर हज़ार शब्दों के बराबर होती
है और मुंबई क़त्ले आम के संदर्भ में तो एडवार्ड मुन्ग्क (Edvard Munch) के यह तसवीर अनगिनत अल्फाज़ बयान करती है। तसवीर का शीर्षक है 'चीख' (The Screem)। क्या कुछ और कहने की ज़रूरत है?




Wednesday, December 03, 2008

फीनिक्स !


फीनिक्स ग्रीक गाथा का एक पौराणिक पक्षी है; सुंदर व चिरयुवा जो अपनी ही राख से पुनर्जीवित हो उठता है। दहसतगर्द फीनिक्स ही तो हैं आदर्शवादी , हौसले में पक्के और जितने मारो उतने नए खड़े हो जाते हैं। अक्सर समझदार व्यक्ति तर्क देते हैं के जब तक कारण समाप्त नही होता असर भी ख़तम नही होगा। तो क्या उग्रवादियों से समझौता कर शान्ति और सुरक्षा खरीद ली जाए ? इस तर्क में यह निष्कर्ष निहित है के उग्रवाद की जड़ के पीछे उचित कारण हैं।

क्या ऐसा वाक़ई है? सबसे पहले तो ये समझ लिया जाए के हम किसी आदर्श संसार में नही जी रहे हैं और लगभग सभी के साथ थोड़ा बहुत अन्याय होता रहा है इसलिए आतंकवाद का कोई भी सार्थक औचित्य नही है। आतंकवाद से समझौता उसके कारण को वैधता देने के बराबर है। तो फिर आतंकवाद से कैसे लड़ा जाए?

दरअसल इस में कोई संदेह नही के जितने भी आतंकवादी मारे जायेंगे उतने नए खड़े हो जायेंगे और यही हमारी अस्थायी नियति रहेगी। हम जितना हो सके अपने सुरक्षा प्रबंध चाक चौबंद करें और आतंकवाद से होने वाले नुक्सान को न्यूनतम करने की कोशिश करें। जल्द ही एक अस्थायी संतुलन कायम हो जाएगा जहाँ आतंक का साया तो रहेगा लेकिन उस से होना वाला नुकशान बर्दाश्त में रहेगा आखिर सड़क हादसों में भी तो लोगों जो जान जाती है।

देर सबेर 'law of diminishing return' के तहत आतंकवाद भी समाप्त हो जायेगा।

समझौता किसी सूरत में नही!

Monday, December 01, 2008

प्रजातीय विकास और क्रोध


प्रजातीय विकास के संधर्भ में क्रोध कब विकसित हुआ होगा और हमारे संरक्षण सन्दर्भ में क्या इसका कोई उपयोग भी है? क्रोध का विकास कैसे हुआ होगा इसका तो आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है आख़िर किसी भी उकसावे की कोई तो भावनात्मक प्रतिक्रिया होनी चाहिए, क्रोध इसी का नतीज़ा है। क्रोध अति प्राचीन है, आधुनिक मानव के आगमन से भी पूर्व सभी 'primates' और अन्य जीव जो भावना प्रर्दशित करते हैं गुस्से का भी इज़हार करते है। क्रोध को गहराई से समझने के लिए जटिल विश्लेषण की क्षमता अनिवार्य है इसलिए जानवरों में इस का होना तो समझ में आता है लेकिन मनुष्यों में यह धीरे धीरे क्यूँ नही विलुप्त हो गया? आखिर क्रोध हमारी स्वयं को संरक्षित रख पाने के सामर्थ्य को घटता ही है बढाता नही है!

चूंके मनुष्य एक सफल प्रजाति है इस लिए समय और परिस्थिति के अनुसार वह अपने को इस तरह ढालता चला गया के उसके संरक्षित रहने की संभावना सबसे अधिक रहे इसलिए उसका क्रोध के सामने बेबस होना आसानी से समझ नही आता। यक़ीनन ही हमारे तेज़ तरर्रार दिमाग ने आसानी से विश्लेषित कर लिया होगा के क्रोध हमारे विकास में रूकावट है कोई सहूलियत नही। क्रोध तर्कसंगत विचार में रूकावट डालता है इसलिए उकसाए जाने पर सबसे बेहतर प्रतिक्रिया नही बता सकता ऐसी परिस्थिति में क्रमशः विकास के दौरान क्रोध का ह्रास हो जाना चाहिए था परन्तु ऐसा हुआ नही।


मुंबई में हुए आतंक के तहत क़त्ले आम एक उकसावा है, क्रोध से हम इसका सबसे बेहतर उतर शायद नही दे सकते।

Thursday, November 27, 2008

जीवन पद्धती!

हिंदू कोई धर्म नही, सम्प्रदाय नही बल्कि एक जीवन पद्धती है !

हैरत है! इस सोच के पीछे कुछ और नही सिर्फ़ हमारी विलक्षण होने की फितरत है. हम कुछ अलग हैं, विशेष है, श्रेष्ठ हैं , यह प्रकट रूप से कहा नही जा रहा है किंतु इस धारणा के मूल में यह अप्रत्यक्ष सोच ज़ाहिर हैइस्लाम भी तो एक जीवन पद्धती है; कहीं ज्यादा सम्पूर्ण और परिभाषित! इसी तरह अन्य धर्म भी एक जीवन शैली ही तो हैं किंतु अपने को विशेष समझने में कुछ जुदा ही अहसास होता है हम अन्य से बेहतर हैंअह अहसास, यह श्रेष्ठता का विचार ही हमें प्रतिष्ठित कलाकरों की मूल कृतियों पर करोड़ों रुपये खर्च करने को उतेजित करती है जबकि उपयोगिता के धरातल पर श्रेष्ठ कृत्यों के मूल और नक़ल में नाम मात्र का फर्क होता हैऐसा क्या है के एक ग़लत तरीके से प्रिंट डाक टिकट पर लाखों खर्च करने को हम प्रेरित हो जाते हैं?

सवाल उठता है के अगर कोई शख्स या समुदाय अपने को श्रेष्ठ समझता है तो इस बात से किसी अन्य को क्या फ़र्क पड़ता है? बात यहाँ ही नही ख़तम होती है, दरअसल इस विशिष्ट होने ललक के पीछे एक और भावना हावी होती है, सामने वाले पर सघन ईर्ष्या का भाव पैदा करनायही भावना संस्कृतियों के टकराव का कारण होती है

Wednesday, November 26, 2008

धर्म और नैतिक व्यव्हार

सवाल उठता है की क्या समाज में नैतिक व्यवहार (ethical behavior) धर्म की वजह से है और अगर ऐसा है तो धर्म की आवश्यकता अपरिहार्य है अन्यथा धर्म मात्र हमारी अध्यात्मिक मांग है सामाजिक ज़रूरत नही।

अक्सर धर्म को हमारे नैतिक व्यवहार का कारण माना जाता है जबके सत्य इसके विपरीत है यानी धर्म स्वयं ही हमारे प्राकृतिक नैतिक व्यवहार का नतीज़ा है। नैतिक व्यवहार हमारे मानस में 'hardwired' है यानी हमारा प्राकृतिक गुण है। दरअसल निरंतर प्रजातीय विकास के दौरान जब हमने कबीलों में रहना सीखा यह उस वक्त विकसित हुआ होगा। चूंके प्रजातीय विकास का मुख्य इंजन 'survival' है और कबीलाई जीवन नैतिक व्यवहार के बिना संभव नही इसलिए इसका निरंतर विकास होता चला गया।


अर्थात समाज को धर्म की ज़रूरत नही है व्यक्तिगत तौर पर चाहे कुछ लोगों को इसकी ज़रूरत हो ........

Tuesday, November 18, 2008

अहम् ब्रह्म आष्मि!

दरअसल यह सही है उतना ही जितना यह संसार सत्य है। हर एक व्यक्ति इस विश्व का केन्द्र है। विश्व हमारी सोच का प्रतिबिम्ब मात्र है। गौर करें:

हर ज़र्रा चमकता है अनवार ऐ इलाही से
हर साँस ये कहती है, हम हैं तो ख़ुदा भी है!

या यूँ कहें "हम हैं तो ये विश्व भी है"

Friday, October 31, 2008

खोलो प्रियतम खोलो द्वार

शिशिर कणों से लदी हुई कमली के भीगे हैं सब तार
चलता है पश्चिम का मारुत ले कर शीतलता का भार
भीग रहा है रजनी का वह सुंदर कोमल कबरी भाल
अरुण किरणसम कर से छु लो, खोलो प्रियतम खोलो द्वार

- जयशंकर प्रसाद

बचपन में ये कविता पढ़ी थी, आज तक नही भूला। अफ़सोस हिन्दी कविता का एक बेहतरीन दौर छायावाद पलक झपकते ही गुज़र गया।

Tuesday, October 28, 2008

अतियथार्थवाद

उन्नीसवीं शताब्दी के अंत पर जब एक थका हुआ सा Post- Impressionism आखिरी साँसें गिन रहा था, हेनरी मातिस की अगुवाई में एक क्रांतिकारी आन्दोलन 'फाओइज्म' योरोपीय चित्रकल में उभर कर आया (फाव का फ्रांसीसी भाषा में अर्थ जंगली जानवर होता है) यह आन्दोलन शुद्ध रंगों का उपयोग ओर फार्म का साहसिक विरूपण के लिए जाना जाता है. रंगों और फार्म का अनोखा इस्तेमाल जनता को चकाचौंध करने पूर्ण रूप से सफल रहा, किंतु इस से भी संतुष्ट न हो कर मार्सल ड्यूशेम्प एक कदम आगे बढ़ गए और दादाईज्म की शुरुआत कर लोगों की कला के विषय में पारंपरिक धारणा पर करार प्रहार किया. इन कलाकारों ने मूत्र पाट के साफ़ सफ़ेद दीवार के सम्मुख एक कलाकृति की तरह पेस किया. लेकिन, शुक्र है जनता की सदमे को सहने की क्षमता ज्यादा नही होती इसलिए जल्दी ही ये आन्दोलन छितर कर लुप्त हो गए। किंतु इस सब का एक फायदा यह हुआ के अन्य चित्रकार अब कला को अन्य रूपों में भी देखने लगे और जल्द ही शांत क्यूबिज्म, अमूर्त कला में Expressionism और रहस्य तथा स्वप्ना के मनिस्न्त फंतासी लिए अतियथार्थवाद अस्तित्व में आए।

सरिय्लिज्म अति यथार्थ है; रहस्य, समय की स्थिरता और स्वप्निल फंतासी है, आध्यात्मिक स्तर में कुछ सूफी मत के सदृश। अतियथार्थवाद जादू है और हमारी प्रकृति से मेल खाता है इसलिए कभी मंद नही पड़ता. अतियथार्थवाद की प्रतिनिधि कलाकृति सल्वाडोर डाली की 'Persistence of Memory' है लेकिन इसे हम कला के सभी माध्यमों में देख सकते हैं यह साहित्य में विद्यमान है तो छायाचित्रों में भी मिलेगा :



Thursday, October 23, 2008

प्रतिध्वनि!


हिन्दी ज़बान में मेरी दख़ल न के बराबर है फिर भी जितना इल्म है उस लिहाज़ से 'प्रति' उपसर्ग दो अर्थों में इस्तेमाल होता है, अंग्रेजी प्रीफिक्स 'per' और 'anti' के समकक्ष। उदाहरण के तौर पर प्रतिदिन, प्रतिशत और प्रतिवाद इत्यादि। बाकी़ पाठक अपना मत ज़ाहिर कर देंगे ऐसी उम्मीद है। प्रतिध्वनी में शायद यह 'anti' अर्थ में इस्तेमाल हुआ है जो कुछ अटपटा सा लगता है। उर्दू में तो प्रतिध्वनि के लिए कोई स्वतंत्र शब्द ही नही है।

यूँ तो प्रतिध्वनि किसी भी आवाज़ का प्रतिबिम्द है किंतु अध्यात्मिक धरातल पर वह अपनी ही अंतरात्मा की आवाज़ है। क्या हम इस आवाज़ को सुनते हैं? क्या है हमारी अंतःकरण की आवाज़? लालच, भय, सुख भोगने की लालसा और सबसे ज्यादा स्वयं को सुरक्षित रखने की इच्छा (Self preservation) इत्यादि हमारा मूल स्वभाव है इसके बिना शायद हमारा अस्तित्व ही न रहे। फिर छल कपट को अंतरात्मा की आवाज़ क्यों नही कहा जाता? अंतरात्मा की आवाज़ हमेशा ही सच्चाई और निःस्वार्थ त्याग के लिए जानी जाती है, आख़िर इसकी वजह क्या है!

Tuesday, October 21, 2008

'काल यात्रा' अर्थात 'टाइम ट्रेवेल' ! ! !


'काल यात्रा' में शायद वह प्रभाव नही या वह सटीक अर्थ नही जो अंग्रेजी लफ्ज़ 'टाइम ट्रेवेल' में है। इसमें कोई आश्चर्य नही क्योंकि अकसर लफ्जों का महत्व या वज़न इस बात पर निर्भर करता है के हम उसे कितनी सघनता से अनुभव करते हैं। उदाहरण के तौर पर 'अनुभूति' उर्दू लफ्ज़ 'एहसास' से ज्यदा प्रभावशाली है और ये दोनों ही अंग्रेजी लफ्ज़ 'फीलिंग' से कहीं अधिक दिल के क़रीब हैं। खैर इस आलेख का मुद्दा ये नही है बल्कि क्या 'काल यात्रा' सम्भव है?


मेरा अपना ख़याल है के शायद 'काल यात्रा' केवल एक दिशा में ही सम्भव है यानी केवल भविष्य की तरफ़! इसकी दो वजह हैं, पहली वज़ह तो ये है के समय में पीछे जाने का मतलब इतिहास के साथ छेड़छाड़ करना और कुछ ऐसी असंभव संभावनाएं पैदा कर देना जो हमारे अस्तिव ही को नकार दे। मसलन 'ग्रैंडफादर पैराडोक्स' जैसी स्थिति जिसमें कोई शख़्स 'काल यात्रा' कर ऐसे वक़्त में पहुँच जाता है जब के उसके पिता का जन्म ही न हुआ हो और अपने दादा की हत्या कर देता है। दूसरी वजह कुछ अटकलबाजी पर आधारित है। सोच का आधार साधारण सा है यानी अगर 'काल यात्रा' भविष्य में कभी भी संभव हुई, और इसके लिए हमारे पास अनंतकाल है, तो इस वक़्त हमारे दरम्यान अनेक 'काल यात्री' मौजूद होने चाहियें और चाहे ठीक इस वक़्त नही तो कमज़कम पूर्व में ऐसे यात्रियों के आने का संकेत तो होना चाहिए!

Monday, October 20, 2008

काला और सफ़ेद

हम चीजों और छवियाँ को रंगों में देखते हैं इसलिए काला और सफेद मीडियम प्राकृतिक नहीं है। ब्लैक एंड व्हाइट छवियाँ इस प्रकार होती हैं मानो किसी ने इनकी एडिटिंग की है। बावजूद इसके काला और सफेद माध्यम उबाऊ अथवा उदासी की भावना को उभारने वाला नही होता है बल्कि कई परिप्रेक्ष में हमारी उभरती भावनाओं को कई गुना बढ़ा देता है मसलन हॉरर और अधिक डरावना हो जाता है और खून-खराबा वास्तविकता से कहीं ज्यादा घट जाता है ठीक उसी तरह जिस तरह स्लो मोशन युद्ध की दरिंदगी ढांप देता है। इसका कारण यह है कि हम अक्सर अपनी कल्पना से अधूरी कृतियों को पूरा कर लेते हैं यही वजह है के खंडहर इतिहास का बढ़ा चढा कर कहीं ज्यादा वैभवशाली संस्करण प्रस्तुत करते हैं। अगर आज ताजमहल खंडहर होता यानी उसके गुम्बद क्षतिग्रस्त होते और नींव ज़मीन के आन्दोलन से विकृत हो जाती, सम्पूर्ण स्मारक घने जंगल से ढँक जाता तो वह हमें कहीं ज्यादा वैभवशाली नज़र आता।

मीडिया में भी रंग स्वाभाविक नही होते, वास्तविक से ज्यादा बढ़ चढ़ कर एक ग्लैमरस तस्वीर पेश करते हैं। रंग शहर की घिनौनी तस्वीर को अधिक उभार देता है जब के सर्वत्र धुंध की चादर उसी शहर को शांत और दिलकश बना देता। तो क्या हम हर चीज़ रंगों में देखना कहते हैं? इसका उत्तर साफ साफ़ है हाँ, पर वास्तविक से ज्यादा रंगीन।

Wednesday, October 15, 2008

सफ़ेद धुआं

इक अलसाई सर्दी की सुबह
जमुना में कोई हलचल ही नही
खिसकता था नभ में,पुल के ऊपर
सूर्य में कोई चमक ही नही

ज़मीं से कुछ ही ऊपर
टंगा था घना सफ़ेद धुआं
छिप गया था शहर का चेहरा
घिनौना था जो इसके बिना

मृत, नदी के किनारे पड़ा
लावारिस एक बच्चे का शेष
धुंध का शुक्र जो कफ़न दिया
हट के जाते थे बेखबर लोग

डूबा, उसने चोरी जो की
लगा के छलांग नदी में गहरी
सिक्के जो फेंके थे भक्तों ने
ईश्वर को रिझाने के लिए

ऊब रहे हैं फिर भी मगर
कर उपभोग, कर उपभोग
बहुतायत का है ज़ोर
खुश हैं मगर कुछ ही लोग

* * *

Tuesday, October 14, 2008

सूर्य प्रभाव

पिघला सोने के भद्दे स्ट्रोक उतने ही कम हैं जितना सोना दुर्लभ हैं और नीलिमा का फैलाव उसे आसानी से परास्त कर देता है। कोई भी सुबह की निःशब्दता को भंग करने का साहस नही जुटा पा रहा है। हलके धुंध की दूर पहाडों को ढंकने की कशिश व्यर्थ जा रही है। अकेला नाविक किश्ती सावधानी से खे रहा। इस सब के बीच सूर्य एक बिंदी मात्र रह गया है।

Cluade Monet की ये तस्वीर योरोपीय चित्रकला में आये क्रन्तिकारी दौर Impressionism की प्रतिनिधि कलाकृति है। दरसल "इम्प्रेसनिज्म" नाम भी इस चित्र के ऊपर ही पड़ा। मोने की इस तस्वीर का नाम है "Impression: Soleil Levant" है।



Saturday, October 11, 2008

हवा में दरार

कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें मूल कृतियाँ बटोरने का जूनून होता है। आख़िर इंसान की हर सूरत में विशिष्ट होने की हवस के पीछे क्या राज़ है? अगर तर्कसंगत तरीक़े से सोचा जाए तो अक्सर मूल कृति के पीछे विचार ज्यादा अहम् होता है न की कारीगरी। जब नकली कृति को एक्सपर्ट भी बड़ी मुश्किल से समझ पाते हैं तो ज़ाहिर है कृति की रचना में उसे उकेरने की अवधारणा कहीं महत्वपूर्ण थी बजाय उसे मूर्त स्वरुप देने में इसलिए नक़ल बनाने में ज्यादा कठिनाई पेश नही आती। इस लिहाज़ से देखा जाय तो करोड़ों रुपये खर्च कर मूल कृति प्राप्त करने के पीछे कला के लिए दीवानापन कम, व्यापार ज्यादा है। आख़िर कला हमें सौन्दर्यबोध के अतिरिक्त और कुछ भी नही देती। ऐसे में अगर नक़ल और मूल में फ़र्क़ न के बराबर हो तो दोनों से ही हमें सौन्दर्यबोध तक़रीबन बराबर ही होगा तो मूल के लिए करोड़ों रुपये लगाना कतई स्वाभविक नही लगता। इसके अतिरिक्त इतनी अधिक क़ीमत लगा कर शौकीन उसे कम से कम बुलेटप्रूफ ग्लास में और इंसानी पहुँच से कुछ दूर ही रखेगा। तो यूँ समझ लीजिये के करोड़ों रुपये लगा कर कलाकृति अंडरग्राउंड हो जाती है।

पहले का दौर कुछ ठीक था। कला के कद्रदान होते थे और कलाकार को एकमुश्त ही उसकी कला की क़ीमत मिल जाती थी, फिर कला सार्वजानिक हो जाती थी। हर व्यक्ति उसे क़रीब से देख, छू और अहसास कर सकता था। लेकिन जैसे ही कला पर मूल्य का तमगा लगा हमने मंदिरों और अन्य बेशकीमती धरोहरों के नष्ट होने का ऐलान कर दिया।

Wednesday, October 08, 2008

आख़िर बाबर मरा कैसे?

कल का शेष ..........

यह सुन वह आश्चर्य में डूब गया, अनायास ही उसके मुंह से शब्द निकल पड़े, "अल्लाह तुम सर्वशक्तिशाली हो, जो भी इस कायनात में होता है तुम्हारे इशारों से होता है। सम्पुर्ण ब्रह्मांड तुम्हारे निर्देशों से ही चलता है। उद्देश्य के बिना घटनाओं का रैंडम होना हमें भौचक्का कर देता है और सम्पुर्ण संसार को तर्कहीन!"

"यह तो तुम विचित्र सा कारण बताते हो, खैर इस विषय में बाद में, लेकिन उस सूरत में हुमायूँ की बिमारी का कई वैध कारण होगा! आखिर इस अव्यवस्था में भी कुछ व्यवस्था तो होगी? अल्लाह के कार्य सनक में तो नही होंगे? "

"आपकी बुद्धि पर सवाल उठाने वाला मैं कौन होता हूँ! ज़रूर कोई कारण होगा जिस वजह से हुमायूँ बीमार है। आप दयावान हैं और आप में क्षमा करने का सामर्थ भी है।"

"और उस कारण का क्या होगा अगर अल्लाह तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार कर ले?"

"निश्चित ही कारण का समाधान तो होना ही चाहिए। किसी को आगे आ कर कारण निरस्त करना होगा, चूंके कारण मुझे ज्ञात नही है पर परन्तु परिणाम निश्चित रूप से हुमायूँ की मृत्यु नज़र आती है लिहाज़ा मैं स्वयं को मृत्यु के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ।"

"तुम तो कर्म को इस तरह प्रस्तुत कर रहे हो मानो वह हस्तांतरणीय हों और अगर मान भी लिया जाए के ऐसा सम्भव है तो क्या यह असमान विनिमय न होगा।"

"असमान? क्यूँ परवरदिगार!"

"तुम वृद्ध हो जबके हुमायु युवा है दोनों की जीवन शैली में ज़मीन असमान का फर्क है। तुम एक वृद्ध की छोटी उम्र एक युवा की लम्बी उम्र से बदलना चाहते हो!"

"यह सत्य है, परवरदिगार। लेकिन इस विसंगति के लिया आप चाहें तो मेरी मृत्यु उतनी ही दर्दनाक बना दें।"

"यह तो बहुत ही दिलचस्प है। भला पीडा जीवन की अवधि और क्वालिटी की क्षतिपूर्ति कैसे कर सकती है? इंसान की पीडा उसका अपना ही कृत्य है, और दर्द मात्र एक मनःस्थिति है शरीर को होने वाले शंकट से आगाह करने वाला अलार्म। तुम तो ऐसा दिखा रहे हो मानो अल्लाह कोई क्रूर ज़मींदार हो जिसे मनुष्यों को दुःख देने में, उन्हें ज़लील करने में आनंद आता है?

"दया करो मेरे प्रभु! मैंने ऐसा कभी नही सोचा। आध्यात्मिक संसार में सुख देने वाली वस्तुओं का महत्व नही है लेकिन यही वस्तु भौतिक जगत में जब विनिमय में इस्तेमाल होती हैं तो दुःख का सृजन करती हैं। मै तो सिर्फ़ भौतिक और अध्यात्मिक संसार में एक समानांतर देख रहा था। चूंके दुःख और पीडा हर सौदे का आम पहलु है इसलिए मैंने सोचा के अपने पुत्र को जीवित देखने का संतोष और मेरी अपनी पीडा शायद बराबरी का सौदा है।"

"यह तो हास्यास्पद है। सांसारिक एक्सचेंजों में वस्तुओं का हस्तांतरण होता है और चूंके दोनों पार्टी एक दुसरे की वस्तु का अलग अलग मूल्य निर्धारित करती है इसलिए तो सौदा होता है। यही सिद्धांत अमूर्त एक्सचेंज में भी लागु होता है। भला किसी को दर्द में क्या दुर्लभता नज़र आएगी?

"सर्वशक्तिमान प्रभु, मुझ में आप से तर्क करने की क्षमता नही है। हम इंसान भावुक होते हैं और भावुकता में ही अक्सर काम करते हैं। तर्क वैसे भी सापेक्ष रूप में ठीक लगते हैं क्यूंकि यह इस बात पर निर्भर करता है की आप का ज्ञान कितना है आप में उन्हें प्रस्तुत करने का कितना कौशल है। मैं आप से कैसे मुक़ाबला कर सकता हूँ? हमारे लिए पीड़ा बलिदान का प्रतीक है। मेरे पास जो है वही मै प्रस्तुत कर रहा हूँ इसलिए सर्वशक्तिमान उसे स्वीकार करें!

"तुम तो अपनी कब्र ख़ुद ही खोद रहे हो। इंसान भी अजीब है, अगर उन्हें सुखी कर दें तो यह उन्हें अविश्वसनीय लगता है, वास्तविकता वे दर्द और पीडा से महसूस करते हैं। वे आसान और साधारण को जटिल व्याख्या में परिवर्तित कर ब्रह्मांड में स्वयं के महत्व देने की चेष्टा करते हैं। "

"ओह दयालु अल्लाह, मैं अपने बेटे की जान के बदले में जान देना चाहता हूँ मौत नही तलाश रहा हूँ!"

"अल्लाह! मुझे अल्लाह मत कहो। मैं अल्लाह नहीं हूँ।"

"मैं आप को किस नाम से पुकारों?"

"तुम क्यों नहीं समझते, मैं अल्लाह या भगवान या कुछ भी अलौकिक नहीं हूँ। मैं स्वयं तुम हूँ, तुम्हारी छवि, तुम्हारा अवचेतन स्वरुप। मैं तुम्हारा अहम् तुम्हारी स्वतंत्र आत्मा हूँ। तुम्हारा बेटा शायद फिर भी ठीक हो जाए लेकिन अगर तुमने मुझे न पहचाना तो तुम अवश्य ही मारे जाओगे, हुमायूँ चाहे जिंदा रहे या न रहे।"

अजीब बात हुई। यह चमत्कार नहीं था, लेकिन सिर्फ एक रैंडम घटना, हुमायूं के शरीर ने रोग के विरुद्ध आवश्यक एंटीबौडी पैदा कर ली। एक बार यह हो गया तो फिर उसे ठीक होने में देर न लगी। इसी समय बाबर का क्षय शुरू हो गया। उसे अल्लाह के हस्तक्षेप पर परम विशवास था लिहाज़ा मस्तिष्क ने kill संकेत भेजना शुरू कर दिया। एक एक कर उसके अंगों ने काम करना बंद कर दिया अंततः बाबर स्वयं ही चल बसा।

* * *

बाबर

[हुमायूं जब मृत्युशय्या पर पड़ा था, बाबर ने उसकी तीन बार परिक्रमा की और अल्लाह से प्रार्थना की के वह हुमायूं की ज़िन्दगी बख्स दे चाहे बदले में उसकी ज़िन्दगी ले ले। फिर ऐसा ही हुआ, हुमायूं तो ठीक हो गया लेकिन बाबर शीघ्र ही बीमार हो कर चल बसा। जब मैं पांचवीं या फिर छठी कक्षा में था तब ये कथा हमारी किताब में थी। यही कहानी मैंने कई मर्तबा अन्य जगह भी पढ़ी है लेकिन शायद ऐसा नही हुआ। तो फिर क्या हुआ था?]

अब अत्यंत ही दुर्बल, हड्डियों का एक बंडल, पतली सूखी झुर्रीदार त्वचा में लिपटा हुमायूं तेजी से अंत की ओर फिसल रहा था। बाबर सभी उपाय कर चुका था, श्रेष्ठतम हकीमों और वैद्यों का इलाज कुछ भी काम नही कर रहा था अंततः क्रोधित हो उसने हकीमों और वैद्यों की काल कोठरी में डाल दिया। यह पहला अवसर था जब बाबर ने अपने आप को पुरी तरह असहाय महसूस किया। दरअसल बाबर के लिए यह पहला मौका था जब वह किसी समस्या से एकदम बेबस हो गया था, अन्यथा वह सम्पुर्ण रूप से स्वयं सिद्ध पुरूष था, एक शक्तिशाली सम्राट जिसने अपनी विलक्षण बुद्धि के कुशल उपयोग और ताक़त के बल पर एक विशाल राज्य की स्थापना की। उसे किसी के सामने झुकने की ज़रूरत कभी नही पड़ी क्यूंकि वह सब कुछ अपने बलबूते ही प्राप्त करने की हैसियत रखता था। विजय कभी भी उसके लिए अति आनंद का विषय नही रही, मात्र सही तकनीक और बल के उचित उपयोग का तर्क पूर्ण नतीजा और उसी तरह पराजय भी विषाद का सबब न बन सकी। लेकिन अब, जब कुछ भी काम न आया और उसके अत्यन्त ही नजदीकी और विश्वसनीय सलाहकारों ने अल्लाह से प्रार्थना करने की बात कही तो वह हतप्रभ रह गया। अपने प्राण से प्रिय पुत्र को मृत्यु की और अपरिवर्तनीय रूप से फिसलता देख वह असहाय हो गया था और अंततः अल्लाह से विनती करने को तत्पर हो गया।

हुमायु की शय्या की तीन परिक्रमा कर, वह घुटनों के बल झुक गया और कहने लगा, "अल्लाह सर्वशक्तिमान, मेरे बेटे को जीवन दान दे दे चाहे तो मेरी जान ले ले।" उसके अन्दर मौजूद सौदेबाज अब भी सक्रिय था।
निराश और थका, जल्द ही वह पस्त हो बेहोश हो गया। कुछ समय पश्चात् उसे एक आवाज़ सुनाई दी, "तुम अल्लाह को अपने बेटे की बीमारी का सबब क्यूँ बनाते हो? क्यों तुम इसे इतना जटिल बना रहे हो? घटनाओं का बेवजह होना क्या उन्हें समझने का आसान तरीका नहीं?"


शेष कल ........

Monday, October 06, 2008

दिमाग़ (Brain) और ज़ेहन (Mind)

अक्सर ये दोनो लफ्ज़ पर्यायवाची की तरह इस्तेमाल होते हैं लेकिन सच्चाई यह है के इन दोनो शब्दों का अर्थ जुदा है। दिमाग़ हमारा मस्तिस्क यानी वह गूदा है जो हमे खोपडी में भरा है जबके ज़ेहन अमूर्त है, हमारा मानस। अगर कंप्यूटर का सादृश्य लें तो समझ लीजिये के दिमाग़ हार्ड-वेयेर है और ज़ेहन सॉफ्ट-वेयेर। दरअसल हम तमाम दुनिया की अपने ज़ेहन से व्याख्या करते हैं। हर चीज़ हमारी इन्द्रियों के ज़रिये ज़ेहन तक विद्युत् तरंगों द्वारा पहुँचती जहाँ ज़ेहन उनका विश्लेषण कर तय करता है की वह क्या है इत्यादि। लेकिन क्या इन्द्रियां वास्तविक हैं? दरअसल यह प्रक्रिया यानी इन्द्रियों द्वारा विद्युत् तरंगों का मानस तक पहुंचना और उसका मानस द्वारा विश्लेषण भी तो ज़ेहन का ही interpretation है। अगर इस तर्क और आगे ले जाए तो पाएंगे की हमारा ज़ेहन भी ज़ेहन का ही सृजन है। कहने का मतलब ये है की तमाम सृष्टि हमारे 'Mind' का ही 'Creation' है.

इस लिए अगर इस संसार को माया कहें तो क्या ग़लत है?

धर्म!

हर धर्म मेरे लिए विरोधाभास की इन्तेहा है. मेरी नज़र में हिंदू धर्मं या फिर जिस भी नाम से वे इसे पुकारते हैं एक कबीलाई धर्म है. मुझे `हनुमान' में या फिर किसी अफ्रीकी देवता में कोई अन्तर नही सूझता सिवाय इसके के 'हनुमान' सिल्क की वस्त्र और कुछ सुवर्ण आभूषणों में से सुसज्जित हैं. यही बात अन्य देवताओं पर भी लागू होती है जैसे नाग, हाथी, चील, मूषक, मोर इत्यादि इसके साथ ही साथ कई मुंह, हाथ वाले 'mutants' भी हिंदू देवताओं की सूची में बढ़ चढ़ कर शामिल हैं. दरअसल एक हिंदू अपने रीति रिवाजों की भव्यता और चकाचौंध से भ्रमित हो इन्हे ही धर्म की महानता समझ लेता है. कुछ लोग कह सकते हैं की हिदू धर्म इन रीति रिवाजों से परे वेदांत, संख्या जैसा दर्शन भी है लेकिन क्या इनका कोई व्यावहारिक महत्व है? एक बार मुझे एक १२ वीं कक्षा के अध्यापक, जो अपने आप को प्रोफेसर कहते थे, ने कहा, " हिंदू धर्म का उच्च बिन्दु यज्ञ है." मैंने कहा, " श्रीमान, यज्ञ का मुख्य उधेश्य बलि है जो की ईश्वर की परिभाषा से किसी भी सूरत में मेल नही खाता."

यूँ तो बौध धर्म की शुरआत काफी आशाजनक रूप में हुई लेकिन शीघ्र ही वह भी हिदू धर्म की तरह कर्म-काण्ड के माया जाल में फंस गया और अब लगभग फार्म और चरित्र में उसकी तरह ही रह गया है. इसाई और यहूदी धर्म भी मसखरेपन की इन्तेहा ही हैं लेकिन इधर कुछ समय से वे धर्म से कई विषाक्त परम्पराओं की तिलंज्जली देने में समर्थ हुए है. लेकिन इन सब से अलग इस्लाम तो भयभीत करने वाला है.

Sunday, October 05, 2008

दसवां रस!


हर व्यक्ति जो ललित कलाओं में रुच रखता है वह 'नव रस' से अनभिज्ञ न होगा। लेकिन इन नव रसों के अतिरिक्त भी एक ऐसी अनुभूति है जिसे ऋषि भरत 'नाट्य शास्त्र' में शामिल करना भूल गए!

"अम्बुआ की डाली डाली , कोयल ......" गीत सुनते है यादों का एक सैलाब उमड़ पड़ता है। मैं सिर्फ इतना कह सकता है, 'नोस्टैल्ज़िया' एक भ्रामक, समय की मार खायी धुंधली तस्वीर है जिसमें नुकीले कोने कुंद कर दिए गए हैं और एक गुज़रे ज़माने का रोमानी किंतु चुनिन्दा संस्करण पेश किया गया है। हैरत है की पश्चिमी जगत के मुकाबले इतना भावुक होते हुए भी हमारे पास 'नोस्टैल्ज़िया' का हिन्दी समानांतर शब्द नही है। चूँकि यादों का सैलाब 'सेलेक्टिव' होता है, इसलिए अक्सर भ्रम पैदा होता है की गुज़रा वक़्त आज से कहीं बेहतर था। सच्चाई तो यह है के वर्तमान हमेशा ही गुज़रे वक्त से बेहतर होता है चाहे समय के कुछ छोटे अन्तराल अपवाद ज़रूर होते हों।

आख़िर 'नोस्टैल्ज़िया' हमारी जीवित रहने की वृति के तहत कैसे विकसित हुआ होगा? शायद पुराने अनुभवों को याद रखने के लिए इन्हे रूहानी अहसास दे दिया हो। कुछ भी हो 'नोस्टैल्ज़िया' एक अनोखी अनुभूति है जिसे हम 'नव रसों' में शामिल करना भूल गए।


Saturday, October 04, 2008

आत्मा !

माया मरी न मन मारा, मर मर गया शरीर
आशा तृष्णा न मरी कह गए दास कबीर

जो भी विचार हमारे मस्तिष्क से गुज़रता है दरअसल हम उसे सुनते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो कोई हमारे विचारों को पढ़ रहा है। शायद इसी वजह से यह आभास होता है के इस शरीर से परे भी कोई अमूर्त चीज़ है जो हमारे मानस में निवास करती है और सम्भव है के इसी कारण से 'आत्मा' की अवधारणा पनपी हो। चूँकि यह अनोखी चीज़ अमूर्त है इसलिए शायद न नष्ट होने का गुण तो स्वयं ही निकल आया होगा। एक दूसरी बात और भी है; हमारी सोच यह कभी बर्दाश्त नही कर सकती के मृत्यु हमारे वज़ूद का अंत है। यह ख़याल हमें बौखलाने के लिए पर्याप्त है इसलिए जीवन की निरंतरता का नक्शा हर धर्म विचार में मिलता है। आत्मा की मौजूदगी से इस धारणा को बल मिलता है। लेकिन सोचने की बात यह है के अगर मृत्यु सिर्फ़ एक इंटरफेस है तो निश्चय ही मृत्यु के पर्यंत जीवन का नक्सा गुणात्मक रूप से इस जीवन से भिन्न होना चाहिए अन्यथा मृत्यु का इंटरफेस होना बेमानी, लेकिन ऐसा कोई भी संकेत नही मिलता है बल्कि हर विचार जीवन की इसी धारा का विस्तार है।

दरअसल भाषा के बिना जटिल विचार असंभव है और ज़बान तो बोली और सुनी जाती है! सोचिये भला! बिना ज़बान के हमारी सोच जानवरों की तरह रह जायेगी यानी मात्र ग्राफिक। स्वप्न जानवरों को भी आते हैं मगर वही वर्चस्व की लडाई अथवा अन्य जानवर से अपनी जान बचने के लिए पलायन करना इत्यादि। भाषा हमें जानवरों से 'क्वांटम जम्प' आगे पहुँचा देती है। इस परिप्रेक्ष में तो यही लगता है 'आत्मा' मात्र हमारे दिमाग का फितूर है।

Friday, October 03, 2008

त्रिकालदर्शी!

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कई वर्ष पूर्व एक अंग्रेजी सीरयल 'स्टार ट्रेक' देख रहा था। कॅप्टन कॅर्क ने एक महत्वपूर्ण बात कही। हुआ यूँ के अपनी एक यात्रा के दौरान वे पृथ्वी पर पहुंचे जहाँ उन्हें कुछ अच्छी तरह संरक्षित मनुष्यों के शव प्राप्त हुए। चूंके उनके पास टेक्नोलोजी उपलब्ध थी, उन्होंने आसानी से उन शवों को जीवित कर दिया। जीवित व्यक्ति भविष्य की अत्याधुनिक जीवन पद्धति से चकाचौंध रह गए, मसलन हर शान-ओ-शौकत-ओ-आराम का सामान पलक झपकते है हाज़िर हो जाता था। कुछ ही रोज़ में पुनः जीवित एक व्यक्ति ने अचरज से पूछा, "कॅप्टन कॅर्क, आप लोगों के पास हर ऐश-ओ-आराम का सामान है, ऐसी कोई भी चीज़ नही जो आप पलक झपकते ही पैदा नही कर सकते, मृत्यु पर आप विजय पा चुके हैं फिर ऐसा क्या है जो आप को जीवित रहने का कारण देता है? कुछ सोच कर कॅप्टन कॅर्क ने कहा, "ज्ञान! हम नई नई चीज़ों के बारे में जानना चाहते हैं, ब्रह्माण्ड में अभी भी अनगिनत रहस्य हैं जिन्हें हम जानना चाहते हैं। हमारी यही इच्छा हमें जीवित रहने को प्रेरित करती है."

त्रिकालदर्शी, तो तीनों कालों का ज्ञाता होता है, फिर उसे क्या जीवित रखता है?

Thursday, October 02, 2008

फिर क्या शंकर विफल नही रहे..........

! उपसंहार !

मुझे ईश्वर में क़तई आस्था नही है लेकिन फिर भी कई बार तीर्थ स्थानों की यात्रा करनी पड़ती है। दरअसल हम पैदा ज़रूर आज़ाद होते हैं लेकिन उसके बाद हर तरह की बंदिशें झेलनी पड़ती हैं और यही कारण था के कुछ वर्ष पुर्व मुझे केदारनाथ की यात्रा पर जाना पड़ा। मेरे लिए तो यह एक अच्छा 'एडवेंचर' रहा। मन्दिर वाक़ई एक बहुत ही खूबसूरत स्थान पर स्थित है और ८- से १० घंटे की कठिन चढाई के पश्चात वहाँ पहुंचना सहमुच ही अनूठा अनुभव है। वहां पहुँच कर मुझे एक अजीब ही नज़ारा दिखा। लोग पौ फटते ही गौरीकुंड* से केदारनाथ की कठिन यात्रा पर निकल पड़ते हैं। वे अपनी कमजोरियों पर विजय पाकर साहसपूर्वक ८- १० घंटे बाद केदारनाथ पहुँचते हैं। थक के चूर वे जल्द ही दर्शन की चिंता में डूब जाते और वक्त इसी सोच में बिता जल्द ही सो जाते। अगले दिन फिर सुबह ही वे मन्दिर में दर्शन के लिए लाइन में लग जाते। वे क्षुद्र बातों पर लाइन में अपनी स्थिति के लिए झगड़ते, प्रबंधकों को गालियाँ देते और धक्का-मुक्की कर मन्दिर में प्रवेश करते। किसी प्रकार जब वे पूजा अर्चना से निवृत हो कर बहार आते तो उन्हें वापस जाने की चिंता सताने लगती। रास्ता लंबा है इसलिए वे आनन-फानन गौरीकुंड के लिए रवाना हो जाते ताकि शाम ढलने से पहले वहाँ पहुँच जाएँ। इस आपा-धापी में वे केदारनाथ के जादुई तिलिस्म से वे पूरी तरह नावाकिफ़ रह जाते हैं।

लेकिन शायद पहले ऐसा न था। लोगों किसी शेडयूल के तहत यात्रा नही करते थे, न ही उन्हें घर वापस पहुँचने की जल्दी रहती इसलिए वे केदारनाथ के तिलिस्मी भौगोलिक स्थिति का वास्तविक आनंद उठाने में सक्षम रहते होंगे । इस लिहाज़ से देखा जाए तो वाकई शंकर पहले तो सफल रहे लेकिन आज के सन्दर्भ में पूर्ण रूप से विफल.....................

काली हवा

*गौरीकुंड से केदारनाथ १४ किलोमीटर का पैदल रास्ता है।

Wednesday, October 01, 2008

शंकर की सफलता ....

भालू के असामान्य आकार से शंकर आश्चर्य में डूब गए जबकि उनके शिष्य भयभीत थे। कुछ देर सोच विचार के बाद शंकर ने भयभीत शिष्यों की तरफ़ नज़र डाली फिर उन्हें अपने पीछे आना का इशारा किया। शंकर शांत भाव से अहिस्ता अहिस्ता भालू के पास से गुजर गए और उनके पीछे पीछे डरे हुए शिष्य भी चले आए। जब सबके के सब भालू के पास से गुज़र गए तो भालू ने ज़ोर से कहा:
"हे महान आचार्य, तुम सफल होगे और असफल भी।"

भालू की बात सुन सब आश्चर्य चकित रह गए, आचार्य ने मुड कर देखा और पूछा,

"आप ऐसा क्यों कह रहे हैं, महान रीछ"

"हे आचार्य तुम ज्ञानी हो और तीक्ष्ण द्रष्टि रखते हो। तुमने मेरे अप्राकृतिक आकार को देखा और जल्दी है निष्कर्ष निकला के मै कोई साधारण भालू नही हूँ, तुमने मेरे भावों को पढ़ा और ठीक अंदाज़ा लगाया के मैं कोई नुकशान पहुँचाने का इरादा नही रखता। तुम बेवजह जिज्ञासु भी नहीं इसलिए मेरी उपस्थित से सर्वथा उदासीन रहे। मेरी यहाँ उपस्थिति का तुम्हारे उधेश्य से कोई सरोकार नही इसलिए तुम ने मुझ नज़रंदाज़ कर दिया। तुम्हारा यही गुण यानी अपने उधेश्य पर पूर्ण 'फोकस' तुम्हे सफल बनाएगी। लेकिन विचित्र और असामन्य परिस्थिति को विस्तार से न जानने की तुम्हारी उदासीनता अंततः तुम्हे असफल भी कर देगी।"

ऐसा कह कर भालू चुपचाप जंगल तरफ मुडा़ और बियाबान में अदृश्य हो गया। आदि शंकर कुछ देर विचारमग्न और विस्मित से भालू की तरफ़ देखते रहे फिर आगे बढ़ गए। जल्द ही उन्हें नदी का किनारा मिल गया लेकिन साथ ही अब मार्ग अत्यधिक दुर्गम और चुनौतीपूर्ण चढाई वाला हो गया था। अब उनकी प्रगति अत्यन्त ही धीमी तथा थकान से कमर तोड़ने वाली हो गई थी लेकिन उन्होंने यात्रा साहस के साथ रुक रुक कर जारी रखी। अंततः कई दिनों की यात्रा के बाद वे एक ऊँचे पठार पर पहुंचे। ये एक अदभुद नज़ारा था। वनस्पति का नामोनिशान नहीं, दूर दूर तक छोटी छोटी हरी घास के सपाट टीलों का विस्तार और उसके पार हिमाच्छादित पर्वत श्रृंगमाला के छोर पर ग्लेशियर से टप टप टपकता हुआ पानी की बूंदों से मन्दाकिनी का स्रोत।

वहां की मनमोहक ताज़ी हवा, मन्दाकिनी के हीरे जैसे चमकते पानी का कलरव, हिम से ढंकी शिखरों का मनमोहक द्रश्य, और एक सर्वव्याप्त निस्तब्धता; पलक झपकते ही उनकी सारी थकान मिट गई। एक गहरा आत्मबोध उन्हें मंत्रमुग्ध कर एक गहरी तंद्रा में चला। अंततः शंकर ने कहा:

"वत्स, मैंने तुम्हें जीवन, मृत्यु और मोक्ष का ज्ञान दिया है। मैंने तुम्हे द्वैत और अद्वैत की अवधारणा से परिचित किया है। माया के गुण समझाए हैं और आत्मा के किसी भी अवस्था में नष्ट न होने की प्रकृति के बारे में विस्तार से बताया है। मैंने तुम्हे सांख्य, मीमांशा, दर्शन और वेदांत की शिक्षा दी है और अब वक्त आ गया है की तुम परमब्रह्म की निकटता का अनुभव करो। अगर तुम एक अखंड मौन से व्याप्त हो, कोई अनोखी शक्ति का तुम्हारे नश्वर शरीर में संचार हो रहा है, किसी अलौकिक आनंद से भावविभोर हो रहे हो तो तुम ब्रह्म के सानिध्य में हो।"

इन गंभीर शब्दों के साथ शंकर मौन हो गए। उन्होंने अपने चारों और देखा और अत्यन्त संतोष से पाया के सभी शिष्य उनके साथ पूर्ण सामंजस्य में थे। वे सभी ब्रह्म की उपस्थिति का अनुभव कर रहे थे। उन्होंने कहा,

"वत्स, हम एक अनोखे अनुभव से गुज़र रहे हैं. ये स्थान अत्यन्त ही पावन और सुख प्रदान करने वाला है। पाँचों तत्वों के अनोखे संगम से यहाँ अदभुद उर्जा का संचार हो रहा है। जो भी व्यक्ति यहाँ होगा वह ब्रह्म की नज़दीकी का अनुभव करे बगैर नही रह सकता " , फिर कुछ सोच कर उन्होंने कहा:

"बच्चों ! यह हम लोगों के लिए अत्यन्त ही स्वार्थपूर्ण होगा के हम सम्पूर्ण जगत के साथ इस अनुभव को न बांटे लेकिन साधारण लोगों को आसानी से एक अमूर्त अनुभव के लिए इस तरह की खतरनाक और मुश्किल यात्रा करने के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता है। हम यहाँ पर एक मंदिर का निर्माण करेंगे और जनसाधारण को यहाँ के आराध्यदेव की असाधारण शक्तियाँ का बखान करेंगे। केवल ऐसा करने से ही आम व्यक्ति एक कठिन यात्रा करने को प्रेरित हो पायेगा। जो भी हो यहाँ आने से वह भी इस अलौकिक अनुभव से लाभ अर्जित कर सकेगा।"

इस तरह केदारनाथ का मंदिर आचार्य शंकर के निर्देश पर बनाया गया था। कालांतर में वह एक भव्य मन्दिर में तब्दील हो गया।

Tuesday, September 30, 2008

आखिर शंकर क्यों असफल रहे?

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[ हमारी सहज प्रकृति हमें कम से कम प्रतिरोध का रास्ता अख्तियार करने के लिए प्रेरित करती है और यही वजह है के अक्सर हम जीवन में कई अदभुद वक़ियात से वंचित रह जाते हैं। ये कोई पौराणिक गाथा नही है मात्र कल्पना की उड़ान है - काली हवा ]
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एक बार आदि शंकर अपने कुछ शिष्यों के साथ दूर हिमालय पर संक्षिप्त काल के लिए डेरा डाले थे। उनका निवास एक ऊंची पर्वत शिखर पर उफनती मंदाकिनी के किनारे स्थित था। वहाँ से उन्हें बर्फ से ढँकी हिमालय पर्वतमाला का अप्रितिम दृश्य बिना किसी बाधा के दिखता था। अब चूंके शंकर जन्म से जिज्ञाशु थे लिहाज़ा उनकी उत्सुकता एक दिन रंग लायी और उन्होंने निष्चय किया के वे मंदाकिनी के उदगम का पता लगायेंगे। तदनुसार वह अपने शिष्यों के साथ जरूरत का न्यूनतम समान लेकर मन्दाकिनी का मूल स्थान पता लगाने एक लंबी और कठिन यात्रा पर निकल पड़े। उन्होंने यात्रा नदी के किनारे किनारे चल कर शुरू की और मन्दाकिनी को अनेक विस्मयकारी रूपों में देखा। नदी कही सौम्य शांत भाव से बहती थी और कहीं उफनती, रौद्र शेरनी के तरह हिंसक हो जाती। ये सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा तब वे एक ऐसे स्थान पर पहुंचे जहाँ नदी के किनारे चलना सम्भव न था। यहाँ नदी दो विशाल चट्टानों के दरमियान बह रही थी मानो सदियों के बहाव ने उन चट्टानों को बीचोंबीच काट दिया हो। जब नदी के किनारे चलना सम्भव न दिखा तो शंकर ने तय किया के वे एक चक्करदार मार्ग से चट्टनों को पार कर नदी की किनारे पहुंचेंगे परन्तु ये काम आसान न था क्यूंकि चट्टान के चरों तरफ़ घना जंगल था। कोई और चारा न देख उन्होंने जंगल में प्रवेश किया। जंगल घना होने के कारण उनका आगे बढ़ना बहुत ही कठिन हो गया, जगह जगह उन्हें टहनियों को काटछांट कर आगे बढ़ना पड़ता था। काफी देर चलने के बाद वे अचानक एक खुले स्थान पर आ पहुंचे। यह एक विचित्र जगह थी एक बड़ा सा घेरा हरी मखमल से घास और चरों तरफ़ घना जंगल। खुले स्थान के बीचों बीच एक नाला बह रहा था जिसमें पानी शीशे की तरह पारदर्शी था। दल अब थक कर चूर हो गया था इसलिए शंकर ने उन्हें वहीं आराम करने को कहा। जल्द ही कुछ शिष्यों ने आसपास के वृक्षों से फल, कंद-मूल इत्यादि इकठ्ठा कर भोजन किया तथा नाले से पानी पीने के बाद वहीं विश्राम करने लगे। शंकर ने गौर किया के नाला के साथ साथ वे जंगल से आसानी से बाहर निकल सकते हैं। कुछ देर विश्राम के पश्चात जब वे प्रस्थान के लिए उठे तो उन्होंने अचरज से देखा के एक महाकाय रीछ ऐन नाले के साथ निकलने वाले रास्ते पर खड़ा है .............
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कहानी कुछ लम्बी हो गई है इसलिए शेष कल के ब्लॉग में .....

Monday, September 29, 2008

लंगड़ा फाटक !

लखनऊ में एक जगह है लंगड़ा फाटक !

भारत में रेलवे क्रॉसिंगों प्रायः दो प्रकार की होती हैं। एक तो बहुत ही साधारण पीले और काले रंग के पोल पर कंघी की तरह झालर लटकी हुई होती है जो के एक काउंटर वेट की वजह से ऊपर सीधा तना रहता है। एक रस्सी द्वारा इसे खींच कर नीचे लाने से सड़क ट्रैफिक के लिए बंद हो जाती है। यह तो हुआ ज्यादातर इस्तेमाल होने वाला गेट। दूसरा कुछ ज्यादा ग्लैमरस गेट होता है यानि 'स्विंग गेट्स'। इस्पात का बना भरी भरकम गेट शुरआत में तो अच्छा काम करता है लेकिन जल्दी ही अपने वज़न की वजह से इसका फ्री छोर झुक जाता है नतीजतन अगर इसे खोला जाए और छोड़ दें तो गुरुत्व की वजह से स्वयं ही बंद हो जाता है। यहाँ तक तो फिर भी गनीमत है लेकिन समय के साथ गेट और झुक जाता है और फ्री छोर ज़मीन छू लेता है। अब तो गेटकीपर की शामत ही आ जाती है। उसे गेट बहुत ताकत लगा कर खोलना पड़ता है और जब हाथ गेट से हटता है तो गेट बड़ी देर तक 'vibrate' होता रहता है। मेरी स्मृति में ऐसे अनेक क्षण हैं जब मैंने 'वेस्पा' स्कूटर पर बैठे, अधीर हो गेटकीपर को बड़ी मेहनत से गेट घसीटते हुआ बंद करते देखा है और जिद्दी वक्त था के घिसटने का नाम ही नही लेता। दरअसल उस जगह का नाम 'लंगडा फाटक' इस वजह से नही हुआ के गेट घसीटना पड़ता था बल्कि वहां का गेटकीपर ही लंगडा था। उसे तो रिटायर हुआ एक ज़माना बीत गया है शायद वह अपनी कब्र में बेखबर सो रहा हो इस तथ्य से अनजान के वह 'लंगडा फाटक' पर सदा के लिए अमर हो गया है.

Sunday, September 28, 2008

किम आश्चर्यम....... 2

(कल का शेष )

यक्ष - युधिष्ठिर तुम स्वयं का ही प्रतिवाद कर रहे हो । एक सदियों पुराने मिथक को ध्वंश कर एक शॉक का निर्माण कर रहे हो और शॉक भी तो समीक्षा से साफ़ बच निकलता है। ऐसा कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं कि तुम सही हो?

युधिष्ठिर - क्यूंकि मुझे पता है के सबे ज्यादा विस्मित करने वाली बात क्या है।

यक्ष - और वह क्या है ?

युधिष्ठिर - यक्ष! जीवन हँसी मज़ाक की वस्तु नही है, निरंतर जीवन की इच्छा न होने पर जीवन ही समाप्त हो जाएगा। याद है बुद्ध ने क्या कहा था? जन्म लेना ही हमारे सभी दुखों का कारण है और अगर जीवन की इच्छा न हो तो फिर जिया ही क्यूँ जाए? तुम अपने ही कृत्य पर विचार करो! तुम कहते हो के तुम एक देवता हो और श्राप ग्रस्त हो कर यक्ष का जीवन बिता रहे हो, एक देवता हो कर भी तुम्हे अपने निहित स्वार्थ के लिए अन्य जीवों की हत्या करने में ज़रा भी हिचकिचाहट नही! मेरे भाइयों को ही देखो; वे बुद्धिमान और शक्तिशाली हैं परन्तु तुम्हे परास्त करने की बजाये उन्होंने अपनी प्यास को तरजीह दी; अगर ये आश्चर्यजनक नही तो फिर क्या है?

यक्ष तुम्हे यक़ीन न होगा लेकिन पमेश्वर का विचार ही सबसे विस्मित करने वाली बात है? ईश्वर, मात्र एक अवधारणा है, योरोपीय क्लासिकल चित्रकारों की तरह बेहतरीन नाक, सर्वश्रेष्ठ होंठ, सर्वश्रेष्ठ आँखों आदि मिला कर बनी एक तस्वीर जो बेहद ख़ूबसूरत अवश्य है लेकिन वास्तविक क़तई नही। ईश्वर मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ कल्पना का प्रक्षेपण है अर्थात मनुष्य के सभी अच्छे गुणों से निर्मित कृति और विडम्बना के दुर्गुण भी जुड़ गए हैं। यानी ईश्वर सर्वशक्तिशाली, सर्वज्ञानी इत्यादि तो है ही परन्तु वह ईर्ष्या, लालच, योजना और साजिश कर हत्या तक करने को प्रेरित एक परिकल्पना है। क्यों! भगवान की पुरूष फार्म ही संदिग्ध है आखिर हमारी मूल फार्म स्त्री है।

दरअसल बुद्धि का होना ही हमें संसार में हमारी वास्तविक स्थिति से भ्रमित कर देता है, ऐसा कोई भी संकेत नही के हम ऊँची जाती के मांसाहारी जंतुओं का आहार नही थे! संसार में ऐसा कोई भी संकेत नही के प्रक्रिति के नियमों के अतिरिक्त कोई अन्य शक्ति हमारी निरंतर 'Evolution' प्रक्रिया में हस्तक्षेप करती है ऐसी परिस्थिति में ईश्वर की कल्पना से विस्मयकारी और कोई चीज़ नही!

यक्ष, मै निश्चय ही ग़लत था! हम मांस के टुकड़े हैं, और कुछ भी नही। यही सत्य है ।

* * *

Saturday, September 27, 2008

किम आश्चर्यम ! ! ! !

( महाभारत का यह बेहद ही नाटकीय हिस्सा है, मैंने इस एक नया अर्थ देने की कोशिश की है)

यक्ष - रुको! मेरे सवालों के जवाब दिए बिना तुम पानी नहीं पी सकते ?

युधिष्ठिर - क्यूँ भला? तुम कौन हो?

यक्ष - युधिष्ठिर मेरे सवालों का जवाब दो, वरना तुम भी अपने भाइयों की तरह मारे जाओगे!

युधिष्ठिर - तुम कौन हो और तुम मेरा नाम कैसे जानते हो? मेरे भाई! वे तो सिर्फ़ थक गए हैं और आराम कर रहे हैं मरे नहीं हैं।

यक्ष - ओह! वे सब निश्चित ही मर चुके हैं और मैं उनकी मौत के लिए जिम्मेदार हूँ। मैं बहुत अच्छी तरह तुम्हे और तुम्हारे भाइयों को जानता हूँ। मैं एक यक्ष हूँ और इस झील का स्वामी। तुम्हारे भाइयों ने मेरी बात सुनने से इनकार कर दिया और दुर्भाग्य का सामना करना पड़ा। दरअसल मैं एक देवता हूँ जब तक मैं कुछ प्रश्नों के उत्तर नही खोज लेता यक्ष की तरह जीने को मजबूर हूँ। आप अपने सभी भाइयों के बीच में बुद्धिमान हैं और आसानी से मेरे सवालों का जवाब दे सकते हैं।

युधिष्ठिर - तब तो मुझे तुम्हारे प्रश्नों का क़तई जवाब नही देना चाहिए। कुछ भी हो मै अत्यधिक प्यासा हूँ, मुझे पानी पीने दो, शायद फिर मै तुम्हारे सवालों का जवाब दे दूँ!

यक्ष - नहीं युधिष्ठिर! पहले जवाब दो.

युधिष्ठिर - ओह ठीक है, पूछो!

यक्ष - हवा से भी तेज गतिमान क्या है?

युधिष्ठिर - चूंकि आपका प्रश्न व्यापक है इसलिए मूर्त और अमूर्त सभी शामिल हैं. कल्पना की उड़ान वायु तेज है।

यक्ष - सागर से भी गहरा क्या है?

युधिष्ठिर - विचार ! इसमें कोई दुविधा नही होनी चाहिए।

यक्ष - पहाड़ों से बड़ा?

युधिष्ठिर - कई चीजें हैं जैसे लालच, इच्छा, ईर्ष्या और अन्य भावनाओं।

यक्ष - लेकिन आश्चर्य क्या है?

युधिष्ठिर - ओह! याद आया कई हज़ार वर्ष पूर्व मैंने तुम्हे कहा था के मृत्यु की निश्चितता जानते हुए भी मनुष्य की अमरत्व की इच्छा ही सबसे अधिक विस्मित करने वाली बात है। यक्ष, मैं गलत था। दरअसल स्वाभविक सवालों का, विशेष रूप उन का जो परम्परागत ज्ञान से मेल खाते हों एक विशेष अंदाज़ में जवाब देना जिसकी हम अवचेतन में उम्मीद करते हैं, बहुत ही प्रभावशाली लगता है; नतीजतन ऐसा उत्तर किसी भी गंभीर समीक्षा के परे निकल जाता है। तुम देख सकते हो के मेरा जवाब इस दौरान गुज़रे हजारों वर्ष तक मनुष्य की जांच का सबब न बन सका।


To be Contd. बाकी कल के ब्लॉग में

स्टील का दरख्त

यहाँ एक बूढा दरख्त हुआ करता था,
रस्सी से बंधा तख्ता झूला बन जाता
बारिश थमने पर बचों का झुण्ड चला आता
वे खेलते, झूलते और झगड़ते
यहाँ तक के कमीजें फट जाती
अब ऐसा नही है
शीशे का आलीशान फ़रोख्त का स्टोर है
बच्चे भी आते हैं और झगड़ते हैं
पर अब कमीजें नही फटती,
बहस होती है
बात बढ़ जाने पर माँ बाप झगड़ते हैं
उसके बाद उनके वकील जिरह करते हैं
सौंप, बिच्छू और मेंढक नही हैं
साबुन से धुले कुत्ते हैं
लोहे के पिंजरे मैं एक दरख्त भी है
वो दरख्त एकदम सीधा उठ रहा है
और उसके फूल-पत्ते शायद गेंदनुमा होंगे
दूर से वो लोलीपॉप जैसा नज़र आयेगा
शायद सबसे अच्छे दरख्त का क्लोन
एक स्टील का दरख्त!
पर मुझे फिर भी जाने क्यूँ
कुदरत का वो बेढब दरख्त याद आता है

काली हवा

Friday, September 26, 2008

एक दिन का कोंट्राक्ट ............................

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मेरे साथ एक अजीब सा वाकि़या हुआ; सुबह के वक्त में लिफ्ट में था के व्यक्ति दौड़ता हुआ लिफ्ट में घुसा, जगह पाने का संतोष मिलते ही अपने विचारों में खो सा गया। जल्दी ही वह गुन गुनगुनाने लगा, " न ना ना न न्न्न्न्न्न" वह हम से बिल्कुल ही बेखबर और बेपरवाह गुन गुनता रहा। जल्दी ही मैंने गीत के बोल पहचान लिए, " बलमा माने न, बैरी चुप न रहे, लागी मन की कहे, हाय पा के अकेली मोरी बैयाँ गहे....." वह व्यक्ति दक्षिण भारतीय था इस वजह से शायद गीत के शब्द उस के ज़ेहन में न आ रहे हों! जो भी हो, वह हमारी उपस्थिति को बिल्कुल ही नज़रंदाज़ करते हुआ अपने आप में बेखबर गुनगुनाता ही रहा.

उस रोज़ वह गीत मेरे जुबान पर चढ़ गया और दिन भर, वक़्त बे वक़्त होंटों पर चढा रहा। जैसे ही मै काम में मशगुल हो जाता गीत ज़ेहन में पीछे धकेल दिया जाता और फुर्सत के वक्त सामने आ जाता। दिन भर ऐसा ही चलता रहा. अगले रोज़ ज़िन्दगी फिर पटरी पर आ गई और वह गीत न जाने कहाँ खो गया.

मेरे साथ ऐसा अक्सर होता है, न जाने किस वजह से किसी रोज़ कोई मधुर गीत जुबान पर चढ़ जाता है, दिन भर सर पर सवार रहने के बाद अगले रोज़ फरार हो जाता है .........................

काली हवा

Thursday, September 25, 2008

लफ्ज़ों में बसी रूह .......


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कुछ लफ्ज़ अपने अर्थ से कहीं आगे निकल आते हैं और धीरे धीरे जीवित हो उठते हैं। मिसाल के तौर पर अगर लफ्ज़ 'मंजिल' पर ही गौर करें तो पायेंगे के शब्द का अर्थ कहीं आगे निकल चुका है, आखिर हम सब की मंजिल क़ज़ा (मौत) ही तो है। अब अगर 'भूख' और 'प्यास' पर गौर करें तो पाएंगे के भूख निहायत ही ज़मीनी लफ्ज़ है यानी सांसारिक ताम झाम में उलझा हुआ जबके 'प्यास' इस से इकदम जुदा हमारी अध्यात्मिक ज़रूरत की अभिव्यक्ति है। अब ऐसा क्या है के 'भूख' और 'प्यास' इतना नज़दीक होते हुए भी इस क़दर दूर हो गए?
'मुसाफिर' हमारे अपने जीवन के सफ़र का चित्र खींचता है, 'तन्हाई' हमें भीड़ में भी अकेला दिखाती है! 'धुआं' हमारे अंतर्मन के शंकाएँ, 'पिघलना' वस्तुओं, भावनाओं का प्रतिक्षण बदलना, 'शबनम' ताज़गी और स्वछता जैसी अभिव्यक्ति प्रदान करती है। आखिर ऐसा क्या है जो कुछ शब्दों को तिलिस्मी बना देती है और कुछ शब्द सिर्फ़ शब्द ही रह जाते हैं? मेरे ख़याल से शब्दों का दयारा फैलना इस बात पर निर्भर करता है के वह हमारी भावनाओं से किस क़दर जुडा हुआ है।

ज्यादातर वही शब्द 'power' विशेषणों में तब्दील हो जाते हैं जो अक्सर बोलचाल की जुबां में इस्तेमाल नही होते। कहने का मतलब यह है के ज्यादह इस्तेमाल होने वाले शब्द अपनी आत्मा खो देते हैं।
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- काली हवा

साहिब बीबी और गु़लाम

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मैंने जब यह फ़िल्म पहली बार देखी उस वक्त मैं छोटा सा बच्चा था और मुझे यह एक डरावनी फ़िल्म के तरह लगी बजाय एक गुज़रे हुए ज़माने की पतनशील सामंती व्यवस्था पर एक भावनात्मक लेकिन संवेदनशील कमेंटरी. फिल्म का ब्लैक एंड व्हाइट माध्यम इसके दबे हुवे षड़यंत्रपूर्ण कथानक के सर्वथा अनुकूल था तथा कहानी को पूर्ण तीव्रता से अनुभव करने के लिया अत्यन्त ही सार्थक भी. फ़िल्म की कहानी में आए अकष्मिक उतार चढ़ाव, घड़ी बाबू का स्क्रीन पर पागलपन से उत्प्रेरित उन्माद उस छोटे बच्चे के लिया हारर का सबब था. अब चूँकि कहानी की परिपक्वता और विचित्र घटनाओं का चक्र एक बच्चे के लिए समझना मुमकिन न था लिहाज़ा मेरे लिए वह एक डरावना अनुभव ही साबित हुआ. संवादओं की जटिलता, कहानी का धीमा बहाव और महिलाओं का ग्राफिक उत्पीडन मेरे लिए अच्छा अनुभव न था, नतीज़तन फ़िल्म देखने के बाद जब मैं घर लौटा तो मुझे उन सभी पुरुषों से नफरत थी जो महिलाओं के साथ क्रूरता से पेश आते थे.लेकिन फ़िल्म का गहरा स्याह परिवेश, उसका दिल को चुने वाला संगीत मेरे लिया एक बहुत ही आत्मीय अनुभव रहा. इसलिए जब कुछ लोग कहते हैं के लता मंगेशकर का सबसे रूहानी गीत "कहीं दीप जले कहीं दिल....... " है तो मुझे ये कतई इनकार है. मेरे लिए रूहों का सबसे बहतरीन गीत गीता दत्त का "कोई दूर से आवाज़ दे चले आओ ... ...." ही है.

Tuesday, September 23, 2008

ख़ाब चुन रही रात बेक़रार है ...............................

ख़ाब चुन रही रात बेक़रार है ...............................

ये शब्द फ़िल्म 'ख़मोशी ' के एक गाने से लिए गए हैं । हैरत के मुझे इन कि अहमियत का अंदाज़ पहले कभी नही हुआ यानी एक तिलिस्म कि तरह उत्सुकता और शब्दों में ख़ूबसूरती तो ज़रूर झलकती थी लेकिन गहरी साज़िश नज़र नही आती थी । दरअसल अगर शब्द होते "ख़ाब बुन रही है रात .............." तो फिर बात कुछ और ही होती यानी बुनना तो एक क्रिया है और उसमें एक अनिश्चितता है लेकिन चुनना? इसमें शरारत कि झलक है एक तक़लीफ़ देने का अंदाज़ है। चुननने में एक निश्चितता है और जिस तरह शब्द इस्तेमाल हुए हैं नुकशान पहुंचाने कि तीव्र इच्छा है। अगली बार जब आप ये गाना सुने और सहमे सहमे नज़र आयें तो मुझे कोई आश्चर्य नही होगा।

Sunday, September 21, 2008

Struggle


There is a failed attempt to contain pressurized gold which shoots out of openings in palms. There is a piece of dark cloth blown away by the violence of burst. Loose strands of the hairs dangle oblivious to action below. A dark calm sea below looks at the struggle petrified………………………


Thursday, September 18, 2008

Molten Gold

.....
It began with diffusion of gold spreading and dissipating down. The contaminated azure though soon overwhelmed yellow tinge. Deep dark mercury covered the bottom in bland geometric rectangle. In the interface stood silhouette of a breathtaking cluster of trees lonely and uncared. In the background the profile of mountains was barely visible. The picture has been taken in an inspired moment....................



* * *

Tolerance

I think people by and large are same everywhere. The facade of tolerance in people is only so much deep until there is just the whiff of threat to their cozy existence. Haven’t there been cases of vigilante justice in the aftermath of 9/11! And how old is the Second World War!

The only religions that were tolerant were those which did not believe in proselytisation and this primarily due to their monumental smugness about the superiority of their faith।

Any reference to past for the purpose of comparison is bogus; the parameters of existence were totally different. Tolerance comes from a sense of security about not being overwhelmed by an alien philosophy we are not used and which could alter our life style. We, in general, hate life style alteration and would like to maintain status quo merely because it is a situation we are coping with no matter how bad it is. For this precise reason we fear ‘Death’ because it means certain alteration in life style. Deep down we all, if not believe at least crave for continuation of existence.

Haqeeqat-e-Muntzar

This Allama Iqbal sh'er is slightly altered :

कभी ऐ हकी़क़त-ऐ-मुन्तज़र नज़र आ लिबास-ऐ-मजाज़ में
के हज़ारों सजदे उमड़ पड़े हैं मेरी जबीं -ऐ -नियाज़ में

हकी़क़त-ऐ-मुन्तज़र - unfolding fate
मजाज़ - manifest
लिबास-ऐ-मजाज़ - show up in physical form

original :

"के हज़ारों सजदे तड़प रहे हैं मेरी जबीं -ऐ -नियाज़ में "

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Wednesday, September 17, 2008

गौरय्या




गौरय्या जाने कहाँ फना हो गयी हैं
शायद मुझे देख कर निहां हो गयी हैं
इक वक़्त ऐसा था
हर सू इनका चर्चा था
आशिअना था हर रोशनदान
नीम, आम या फिर बरगद का पेड़
तन्हाई में भी रहता था कुछ शोर
भोर होते ही बढ़ता था जोर
सींक के टुकड़े और सूखी घास
बन जाता इतने में ही आवास
फ़िज़ा कुछ गर्म हो गयी है
गौरय्या जाने कहाँ खो गई है


---- काली हवा

Tuesday, September 16, 2008

The Collapse of Lehmann Brothers & Dawn of Exclusivity Economy!


The collapse of Lehmann Brothers brings into focus how fragile modern economics systems have become. In the past value of an article was based on the perception of its utility and availability. The perception of value was much more tied down to ground than merely on a sense of exclusivity. Gold and land were always valued for rarity and utility respectively however all that changed in modern age. Take for example a 100 million dollars Rembrandt original; from purely functional point of view its utility as a work of art to provide a sense of exhilaration is only slightly better than a good fake worth some 500 dollars yet the 100 million dollar price tag for original has basis on value appreciation and our desire for the exclusivity. The same paradigm applies to stock values and currencies. The problem is that perception of value in modern times is a kind of bubble; while it lasts the returns are prodigious and when it collapses the fall is immediate and abysmal.

In old days the economic down turns were mostly due to wars and famines where as in modern age the down turns are cyclical, quite irrelevant to natural causes though may bring forward such a cyclical phenomenon. The basis of cyclical nature of economy is purely in are inability to correctly calibrate our response to supply and demand. When the demand rises investment is poured into manufacturing which with time over shoots the demand and generates surplus inventory and when this happens investment dries up in manufacturing so there is down turn but natural incremental demand again dries up inventory and manufacturing capacities setting off yet another cycle of investment.

We are in an age of cyclical economy!

* * *

Sunday, September 14, 2008

ONEIROLOGY (Study of Dreams)


We seem to interpret everything that is not properly understood and which have some kind of patterns; the lines in palms, the forehead, the tipping of cards, movement of planets, constellations, placement of numbers etc and also dreams. This is because of our innate fascination to have a glimpse of unfolding future. The random occurrence of events in nature and not the most efficient way of rewarding the best gives hope to everyone to obtain best out of life and the world.

Working of dreams are not well understood so far but we may know more about them with passage of time, however for the time being occult interprets them to know future while rational minds interprets it just a play of mind. Do animals dream? They do, even without the advantage of language they dream about fights for territory and of being chased by predators etc. We have much more elaborate dreams, some simple some very complex mostly playing out events from life but sometimes bizarre scenes play out in our dreams having no connection with conscious mind. We have no control over our dreams; when, how and what will be played out in our dreams. We remember nightmares because intensity of such dreams seeps out of the subconscious to conscious and wakes us up abruptly. Do dreams have message?

Who knows! They could be giving signs of failing health or mental fatigue or just telling us to slow down in life.


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BLACK HOLES


On 10th Sept, scientists are going to conduct a unique experiment. They will run up protons in a 24 Km long circular tunnel with the help of gigantic magnets cooled to 2 Deg Kelvin with liquid helium (At that temperature metals become superconductors) and smash them; tunnel is built painstakingly over several years on Franco-Swiss border. The experiment will create situation similar to the time when universe was created in cataclysmic big bang.

To understand creation of universe we must first understand that space is not limitless! It is not easy for us to visualize warping of three dimensional space but the fact is that universe is limited space just like a loop has no ends universe has no ends. The space is folded back into loop therefore when scientists say the universe is expanding it means the space is actually spreading out or in other words the loop is getting bigger. At the beginning of time the entire universe was a tiny dot called singularity. Again, visualize that entire space was trapped in a dot!!! When it exploded the temperature was very high. The purpose of the experiment is to create similar condition as when Universe exploded in a big bang. What happened during the few nano seconds after the bang is very important to know the working of quantum mechanics and thereby understand how universe came into being.

Now the alarmists have created suspicions in the mind of lay public that some thing terrible could happen during the experiment. Something terrible could happen is a possibility but in the realm of impossible odds. The point of contention is the creation of black holes. Black holes will be created is a high possibility but of the size of lesser than a proton. Now we all know that Black Holes have super gravity and that every thing that comes close to it is sucked in, nothing comes out of it. Yet, the fact that Black Holes lose mass and dissipate is not commonly known. In addition we must understand that this sucking of matter is not instantaneous and to understand this in astronomical context imagine an average size black Hole (Event Horizon diameter approx. 3 KM) put right at the centre of our Sun will take several thousand years to suck in entire Sun.

How does Black Hole lose mass? Actually Event Horizon is the radius around a Black Hole beyond which nothing goes out of it even the light. We also know that energy is in constant dynamic state of matter and radiation i.e. gamma ray splitting into positron and electron and reconverting into gamma ray. So at the event horizon when this conversion takes place some matter escapes the black hole thus it gradually dissipates and eventually disappears.

The Black Holes that will be created in this experiment will be so small and will lose out the mass so fast that there is virtually no possibility of any of the black holes surviving and causing disaster!!! So relax and enjoy unfolding of science……..

Monday, September 08, 2008

Soft Targets

Rabid parochialism is stock fodder for demagogues. When Raj Thackery attacks Bachchan family he is actually going for maximum eyeballs. Bachchans are soft targets because they do not have the destructive potential of withdrawal, at the same time they bring in maximum media mileage and people like Raj, who are on the fringe of political oblivion desperately seeking a captive constituency, seek precisely this. Attacking Tatas or Ambanis or such men of their ilk, who are equally outsiders and most likely do not speak Marathi have a lot of destructive potential therefore are left alone. Bengal has already seen the repercussions of Tata’s threat of withdrawal from Singur.

Will these political rabble rousers survive in the long term! Are they like the pop music, flavor of the season and will loose their sheen gradually and fade away. I don’t think so, Bal Thackery has survived long enough, so has Thallavi Jayalalitha and so on. As long as people seek simplistic solutions("make me a dictator and I will set the world right"), without going into nitty-gritty of their implications, there will always be space for Hitler like demagogues and people will pay the price for their novice and ignorance.

Sunday, August 17, 2008

Anger!



Where does 'anger' fit in our survival scheme of things? Its genesis can be fairly judged; after all there was a need for emotional response to provocation and 'anger' is manifestation of that response. Anger, apparently is primal, preceding arrival of modern man. Anger is also universal; all creatures who can display emotions also express anger. One can understand the need of analytical resources required to understand dynamics of ‘anger’ therefore its prevalence in animals is understandable but Man?
Man has have evolved with time adapting and assimilating with experience best ways that help in his survival therefore our surrender to ‘anger’ is incomprehensible. Surely our complex mind must have realized the destructive nature of ‘anger’. Anger inhibits rational thinking therefore restricts best retaliation to provocation. This is very elementary conclusion therefore our mind should have figured this out and gradually blunted its persistence. Indeed ‘anger’ cannot be eliminated but our evolution with time must have allowed its quick dissipation rather than its snowballing feature!

Thursday, August 07, 2008

The Stranger


‘Stranger’ does not have the aura, mystery or expectation of encounter associated with ‘Ajnabi’. It is a fascinating word, full of contradiction because you only use it in anticipation of unraveling the mystery of ‘ajnabi’ or in expectation of an encounter with the stranger. But more than external significance ‘ajnabi’ has deep spiritual meaning in literature; of exposing or understanding our own other persona. Do we know us? Hardly, we surprise ourselves revealing layers over layer during our lifetime meanwhile external persona itself undergoing metamorphosis repeatedly.

What derails serenity of life are unexpected occurrences forcing reassessment of our own identity. We pride on some of our power attributes only to learn how in astonishingly bizarre manner in they affect us.

Am I a stone hearted, feelingless monster? Why then I don’t cry like others, why doesn’t sorrow overwhelm me? Why I am left lacking, dissatisfied and incomplete in life?

The only time I cried uncontrollably was when I saw inert body of my daughter in the hearse. The cries on other occasions were not the same perhaps it was socially appropriate therefore!

I am in state of denial, I can’t imagine Kriti in any other form but alive.

The more I know about myself the more ‘ajnabi’ I become.


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Wednesday, July 16, 2008

K R I T I - K A L A

कृति काला
(3rd August 1988 - 6th July 2008)
अगर वह कभी गंभीरता से गुस्सा हुई है तो सिर्फ़ मासूम बचपन में । एक लंबे समय तक वह जापानी गुड़िया की मानिंद नज़र आई । वह किसी भी अन्य लड़की की तरह थी, मासूम आकर्षक और जिज्ञासु; गहरे नीले रंग की स्कर्ट और चटक लाल धारियों की चेक्स की शर्ट वाली युनिफोर्म में वह बेहद आकर्षक नज़र आती थी । उसे अपना स्कूल बैग और पानी की बोतल स्वयं धारण करना पसंद था, शायद इस से उसे अपनी आज़ादी और अहमियत का अहसास होता था। स्कूल जाते वक्त वह ज़ोर दे कर अपनी माँ से कहती "तू मेरे पीछे पीछे मत आ!" ऐसा न करने पर वह गुस्से में वहीं खडी़ हो जाती। माँ हताश वापस मुडती और मोड़ पर पेड़ के पीछे छुप कर उसे स्कूल जाते देखती। नर्सरी स्कूल कुछ ही दूर था , वह सावधानी से सडक के किनारे किनारे चल कर स्कूल जाती , रुक रुक कर पीछे देखती के कहीं माँ पीछे पीछे तो नही आ रही है! उसका वह अक्स आज मेरे ज़ेहन में फ्रीज़ फ्रेम की तरह दर्ज है।
कई मायने में वह उसकी तरह ही थी, संवेदनशील, उदार और फिर एक जुदा से अंदाज़ में विद्रोही भी। हैरत के एक विशिष्ट अंदाज़ में उससे एकदम भिन्न भी! " सॉरी ! " उसके होंठों पर आसानी से चढ़ता था चाहे वह सही हो या ग़लत इसका सबूत उसके दोस्तों की एक लम्बी फेहरिस्त में था।
जब वह हवाई अड्डे के लिए सुबह की उड़ान पकड़ने के लिए जा रहा था के एक कॉल , "पापा ! वापस आ जाओ, कृति का एक्सीडेंट हो गाया है! अब वह नही रही ।"
..
ज़िंदगी मेरे लिया सदा के लिए बदल गई ...............
.......

Friday, June 13, 2008

कुलदीप सिंह


सुन लीजिये फुरसत है फिर क्या हो खुदा जाने
कब से हैं मेरे दिल में बेताब कुछ अफ़साने

------------------------जोश मलीहाबादी

हर किसी की तरह मैं भी इस संदेह का शिकार था कि प्रकृति एक भव्य साजिश के तहत मुझे ज़िंदगी में हमेशा नाकामयाब बनाए रखना चाहती है। मैंने अपने को जीवन में अक्सर अवसर से एक कदम पीछे पाया, जैसे के जब मुझे जब ' युवा बाबू ' होना चाहिए था में 'नन्हा बाबू था और जब 'परिपक्व बाबू' होना चाहिए था उस वक्त में ' युवा बाबू ' था। कुलदीप सिंह अंतरफलक मेरे जीवन में पलक झपकते ही गुजर गया लेकिन वह मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण मरहला था। कुलदीप एक सिख था , अनिच्छुक नहीं , बल्कि एक उदासीन सिख; तर्कसंगत और बहुत ही परिपक्व जो जीवन को बहुत ही गहराई से और निष्पक्ष अंदाज़ से तोलता था। कुलदीप धूम्रपान करता था , सिखों में एक अपवाद ख़ास तौर पर एक छोटे से कस्बे में है . हम 'Flower Childern' के दौर में कुछ वक्त देर से आए, यह दौर अब ढल रहा था । 'बीटल्स ' का उफान थम रहा था और 'बेलबाटम्स' संकरे हो रहे थे किंतु 'संताना' का जादू आज भी हमें उद्वेलित करता था और 'साउन्ड ऑफ़ साइलेंस' कि मधुर धुन हमें मदमस्त कर देती थीं . कभी कभी हम मारिजुआना और चरस का भी इस्तेमाल कर लेते थे , मैं कुछ अपराध भाव से और कुलदीप लोकाचार की उपेक्षा करते हुए उत्सुकता और सुख कि चाह से। वे दिन पैसों की तंगी के थे , जब जेब खाली हो सिगरेट के फेंके हुए टुकड़ों से काम चला लिया जाता था । कुलदीप ने सिगरेट के मांसल टुकड़ों को एकत्र करने का एक नायाब तरीका़ हासिल कर लिया था। सरकंडे कि छड़ी पर एक पिन लगा कर शाम के वक्त जब हम घूमने के लिए निकलते, कुलदीप सिगरेट के उन उपयोगी टुकड़ों को बड़ी आसानी से पाकेट में पहुँचा देता। इस काम में उसने अच्छी खासी महारत हासिल कर ली थी और बिना किसी की नज़र में आए सिगरेट बटोरने के काम को वह बखूबी अंज़ाम दे देता था। किंतु तंगी का ये दौर सिर्फ़ महीने के अंत तक ही रहता था और जैसे ही महीने के शुरू में घर से मनी आर्डर चला आता , हम फिर अपनी ब्रांड 'Wills' पर लौट आते। . हमारा हॉस्टल काफ़ी 'avante -garde' था इसलिए कुलदीप का सिगरेट पीना, जो भी कुछ सिख विद्यार्थी वहाँ थे, उन्हें नागवार ज़रूर लगता पर बर्दास्त के बाहर नही ! किंतु जब स्टाफ के एक सिख ने कुलदीप को सिगरेट पीते देख लिया, बस कहर बरपा हो चला !

वह सर्दियों में रविवार की एक आलस भरी सुबह थी। हमारे कमरे छात्रावास के भूतल पर थे, सिर्फ़ चार कमरे हमारे दरमियाँ! उस रोज़ मैं जनवरी के मद्धम सूर्य की धूप का सेवन करते हुए, हाथों में एक झागदार टूथब्रश लिए छात्रों के विशिष्ट अंदाज़ में फर्श पर बैठा दांतों को ब्रुश कर रहा था। अभी सुबह के सिर्फ़ नौ बजे थे और एक मूर्ख जिसे वक्त का ज़रा भी अहसास न था, ऑल इंडिया रेडियो से बेगम अख्तर की मशहूर-ऐ-ज़माना ठुमरी "ऐ मुहोब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया … ... ' बजा रहा था। उस वक्त बेगम की ये स्वर के साथ कुश्ती " रोना ...आया । । ॥ रो नअ आ आया " बहुत ही बेहूदा लग रही थी॥ खंभों कि छाया हॉस्टल के गलियारे को एक बाघ के धरियुं कि तरह प्रकशित कर रही थी। छात्रों के कई समूह कुछ कुछ दूरियों पर गपशप में मशगूल थे। कुलदीप अभी तक सो रहा था।

उस वक्त मैंने देखा, सिखों की एक मंडली जिनमें कुछ रंगीन लिबास पहने, कमर में किरपान बांधे हुए और कुछ अपनी सफ़ेद दाढी लहराते, गलियारे के अंत से मेरी ओर तेजी से आ रही थी। वे लोग कुछ इस कदर संजीदा और शांत थे के उनके आने का आभास ही न होता था, मानों वे हवा में तैर रहे हों। वे छात्रों के समूह को इस तरह पार कर गये मानों उनका कोई वाज़ूद ही न हो। जब वे मेरी नज़दीक पहुंचे तो डर की एक लहर मेरे शरीर में व्याप्त हो गयी। परन्तु मेरा डर बेवज़ेह था, इन लोगों ने मुझे घूरा फिर बिल्कुल ही नज़रंदाज़ कर दिया और कुलदीप के कमरे पर जाकर ठहर गए। अचानक ही उन सभी में शक्ति का संचार हुआ और वे कुलदीप का दरवाज़ा बे-सबरी से खटखटाने लगे। कुछ ही पलों में नाराज़ कुलदीप ने दरवाज़ा खोल दिया। इस से पहले के वह कुछ बोलता , सिखों ने कमरे में प्रवेस किया फिर कुलदीप को अन्दर खींच कर दरवाज़ा ज़ोरदार आवाज़ के साथ बंद कर दिया। फिर एक लंबा दौर फुसफुसाहट और शोर शराबे का शुरू हुआ। अब तक दुसरे छात्र भी वहाँ पहुँच गए थे और विभिन्न अटकलबाजी़ में व्यस्त हो गए। ये सिलसिला तक़रीबन बीस मिनटों तक चलता रहा और फिर एक ज़ोरदार कोरस "जो बोले सो निहाल, बोलो सतश्री अकाल" के साथ खत्म हुआ।

अब सभी सिख एक क़तार में बाहर आए, उनके चेहरे अभी भी गंभीर थे । संदेह और संतोष की मिश्रित भावनाओं के साथ बे-आवाज़ ,बेलाग लपेट उसी तरह, जिस तरह के वह लोग आए थे , वापस चले गाए।

हम सभी एक अंदेशा भरी निगाहों से कुलदीप के दरवाज़े पर टकटकी लगाये खड़े थे। कुछ आशंकित और कुछ अनहोनी के भय से कुलदीप के निकलने का इंतज़ार करने लगे।! लेकिन आश्चर्य! कुछ ही देर में एक नाराज़ और कुछ शर्मिंदगी में डूबा कुलदीप बाहर आया।
" क्या हुआ ? " मैंने पूछा
" कुछ नही यार!" उसने कहा फिर क्रोध में बोला," ये सिरफिरे! शराब तो ठीक है , सिगरेट नहीं , कतई नहीं ! "

उसने मेरी तरफ़ देखा और बोला, "क्या तेरे पास इस वक्त पाँच रूपये हैं?"
मैंने मुंह बनाया और बेमन से कहा, "हाँ!"

कुछ ही पलों हम नजदीक के हज्जाम के पास गए जहाँ कुलदीप ने पहली बार दाढी और अपने लंबे केश ट्रिम करवाए। एक बार जब बाल और दाढी कट गई, कुलदीप ने अपने आप को पहली बार इतना हल्का और आज़ाद महसूस किया, जो उसके चेहरे पर बखूबी झलक रहा था। मैं हमेशा से पढ़ाई, पॉलिटिक्स के ज्ञान और आर्ट्स के संधर्भ में कुलदीप से कहीं बेहतर था , फिर भी मैं उस की ज़िंदगी पर तीक्ष्ण पकड़, जीवन की जटिलताओं को समझ पाने और आसानी से सुलझाने की कला से आश्चर्यचकित था। उसका ज़िंदगी को जीने का अंदाज़ मुझे गहराई से प्रभावित करता था। उस ने एक गहरी सांस ली जेब से सिगरेट कि डिब्बी नकली और एक सिगरेट सुलगा ली। एक बहुत ही गहरी कश लगा कर निकोटीन को अपने फेफड़ों में घुलने दिया और धुआं मेरे तरफ़ फेंका जिस से मेरे चेहरा ढँक गया। कुछ देर सोच कर उसने दार्शनिक अंदाज़ में कहा,

डरता हूँ असमान का जादू न टूट जाए
लब पर कोई सवाल सा आया हुआ तो है!

मैं हैरत में था! एक अजी़बो-ग़रीब 'स्किजो़फ्रेनिक' कायापलट से मैं काली हवा से 'नन्हें बाबू' में बदल गाया। एक मासूम नासमझ के मानिंद मैंने अपने सिर के झटका,
"इस का क्या मतलब है? " मैंने पूछा
उस ने मुझे एक लंबी और गहरी व तीक्ष्ण द्रष्टि से देखा और पहेली के अंदाज़ में कहा,
"ये तो फिलोसोफी है ! "

मुझ में उसकी सोच पर प्रश्न उठाने का साहस नहीं था इसलिए जो भी कहा गया उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। लेकिन उसके ये शब्द मेरे अन्तःकर्ण कि गहराइयों में समा गए और रह रह कर झंकृत होने लगे। आज तक ये शब्द मेरे अवचेतन में लिपिबद्ध हैं कभी कभार उभर कर मुझे उद्वेलित करते रहते हैं।

डरता हूँ असमान का जादू न टूट जाए
लब पर कोई सवाल सा आया हुआ तो है!

"सचमुच क्या फिलोसोफी है!"

Sunday, May 18, 2008

Mushaira

Some years back while playing online Bridge I was listening (not watching) to this Mushiara telecast live on ETV Urdu from Malegaon, Maharashtra. It was a very big show, some 5000 – 10000 people had gathered. Malegaon has large Muslim population therefore the popularity of the Mushiara. After a while I decided to record it and then forgot about it.

Since I was playing Bridge therefore not much registered at that time but listening to it yesterday I found some good poerty in it. May be you will like it. Some poets have very powerful voices and recited their ghazals in tarranum.

There is powerful ghazal at the fag end

woh koi jaanwar ho, parindaa ho, ya ke inshaan ho
bhatak gaya to yaqeenan shikaar hota hai.

Hope you will like it.
http://kalihawa.googlepages.com/mushayara1.mp3

Saturday, May 17, 2008

साया

साया बेचेहरा होता है
जज़बात भी नही
बेआवाज़ भी
कोई साया चुरा ले
हम बेलिबास हो जाते हैं
नरगिस* भी एक साया था
मौत का साया
दबे पाँव आया
क़ज़ा रक़्स हुआ
और ख़ामोश चला गया
नरगिस से क्या शिकवा?
७७००० हलाक हुए
७००० नरगिस कि बाहों में
७०००० हुकूमत ने क़त्ल किए

Wednesday, May 07, 2008

बर्फ गिरती रही मेरे चेहरे पर

कुछ सोच कर मै उठा
चल दिया तनहा तनहा
चुप था दरख्तों का सिलसिला
बर्फ गिरती थी मेरे चेहरे पर

निहां भी और मुका़बिल भी
था भी नही भी इक अजनबी
करता था बातें कभी कभी
बर्फ गिरती थी मेरे चेहरे पर

पूछा जो मैंने तू कौन है
हंस के बोला, गौ़र से देख
नही कोई और तू ही तो है!
गिरती थी बर्फ मेरे चेहरे पर

ताहम, कुछ है अज़ीबो ग़रीब
क़िस्मत जो तेरी जिस्म ही नही
न तुझ को भूख न तिस्नगी
बर्फ मेरे चेहरे पर गिरती रही

हैरत से देखा उसने मुझे
तो क्या हुआ जो जिस्म ही नही
तुझ को भी तो ज़ायका़ नसीब
गिरना बर्फ का अब कम हुआ

बातों मी तेरी कुछ तो है
ये सवालात और गहराइयां
तस्व्वुफ़ ऐ ज़िंदगी कि अनुभूतियाँ
गिरना बर्फ का थम सा गाया



अभी बाकी़ है..........................





मूल्यांकन

 मुझे ट्रैन का सफ़र पसंद है, सस्ता तो है ही अक्सर ही दिलचस्प वाक़िये भी पेश आ जाते हैं। हवाई सफर महंगा, उबाऊ और snobbery से भरा होता है , हर क...