Thursday, November 27, 2008

जीवन पद्धती!

हिंदू कोई धर्म नही, सम्प्रदाय नही बल्कि एक जीवन पद्धती है !

हैरत है! इस सोच के पीछे कुछ और नही सिर्फ़ हमारी विलक्षण होने की फितरत है. हम कुछ अलग हैं, विशेष है, श्रेष्ठ हैं , यह प्रकट रूप से कहा नही जा रहा है किंतु इस धारणा के मूल में यह अप्रत्यक्ष सोच ज़ाहिर हैइस्लाम भी तो एक जीवन पद्धती है; कहीं ज्यादा सम्पूर्ण और परिभाषित! इसी तरह अन्य धर्म भी एक जीवन शैली ही तो हैं किंतु अपने को विशेष समझने में कुछ जुदा ही अहसास होता है हम अन्य से बेहतर हैंअह अहसास, यह श्रेष्ठता का विचार ही हमें प्रतिष्ठित कलाकरों की मूल कृतियों पर करोड़ों रुपये खर्च करने को उतेजित करती है जबकि उपयोगिता के धरातल पर श्रेष्ठ कृत्यों के मूल और नक़ल में नाम मात्र का फर्क होता हैऐसा क्या है के एक ग़लत तरीके से प्रिंट डाक टिकट पर लाखों खर्च करने को हम प्रेरित हो जाते हैं?

सवाल उठता है के अगर कोई शख्स या समुदाय अपने को श्रेष्ठ समझता है तो इस बात से किसी अन्य को क्या फ़र्क पड़ता है? बात यहाँ ही नही ख़तम होती है, दरअसल इस विशिष्ट होने ललक के पीछे एक और भावना हावी होती है, सामने वाले पर सघन ईर्ष्या का भाव पैदा करनायही भावना संस्कृतियों के टकराव का कारण होती है

3 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

स्वयं को और अपने समुदाय को अन्य से श्रेष्ठ समझने में दूसरों को निम्न समझना शामिल है। यहीं से सब बीमारी शुरू होती है। दुनिया में दुनिया से कोई श्रेष्ठ नहीं है, न कोई संपूर्ण है।
सब अधूरे हैं। बस यह सोच हो कि हम दूसरे से क्या सीख सकते हैं? तो झगड़े का कोई कारण नहीं है।

कामोद Kaamod said...

sharmnak, dukhad, nindneeya.
sabhi shaido ko shadhanjali.

प्रवीण त्रिवेदी said...

" शोक व्यक्त करने के रस्म अदायगी करने को जी नहीं चाहता. गुस्सा व्यक्त करने का अधिकार खोया सा लगता है जबआप अपने सपोर्ट सिस्टम को अक्षम पाते हैं. शायद इसीलिये घुटन !!!! नामक चीज बनाई गई होगी जिसमें कितनेही बुजुर्ग अपना जीवन सामान्यतः गुजारते हैं........बच्चों के सपोर्ट सिस्टम को अक्षम पा कर. फिर हम उस दौर सेअब गुजरें तो क्या फरक पड़ता है..शायद भविष्य के लिए रियाज ही कहलायेगा।"

समीर जी की इस टिपण्णी में मेरा सुर भी शामिल!!!!!!!
प्राइमरी का मास्टर

मूल्यांकन

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