Friday, December 05, 2008

चीख . . .!


कहते हैं एक तसवीर हज़ार शब्दों के बराबर होती
है और मुंबई क़त्ले आम के संदर्भ में तो एडवार्ड मुन्ग्क (Edvard Munch) के यह तसवीर अनगिनत अल्फाज़ बयान करती है। तसवीर का शीर्षक है 'चीख' (The Screem)। क्या कुछ और कहने की ज़रूरत है?




Wednesday, December 03, 2008

फीनिक्स !


फीनिक्स ग्रीक गाथा का एक पौराणिक पक्षी है; सुंदर व चिरयुवा जो अपनी ही राख से पुनर्जीवित हो उठता है। दहसतगर्द फीनिक्स ही तो हैं आदर्शवादी , हौसले में पक्के और जितने मारो उतने नए खड़े हो जाते हैं। अक्सर समझदार व्यक्ति तर्क देते हैं के जब तक कारण समाप्त नही होता असर भी ख़तम नही होगा। तो क्या उग्रवादियों से समझौता कर शान्ति और सुरक्षा खरीद ली जाए ? इस तर्क में यह निष्कर्ष निहित है के उग्रवाद की जड़ के पीछे उचित कारण हैं।

क्या ऐसा वाक़ई है? सबसे पहले तो ये समझ लिया जाए के हम किसी आदर्श संसार में नही जी रहे हैं और लगभग सभी के साथ थोड़ा बहुत अन्याय होता रहा है इसलिए आतंकवाद का कोई भी सार्थक औचित्य नही है। आतंकवाद से समझौता उसके कारण को वैधता देने के बराबर है। तो फिर आतंकवाद से कैसे लड़ा जाए?

दरअसल इस में कोई संदेह नही के जितने भी आतंकवादी मारे जायेंगे उतने नए खड़े हो जायेंगे और यही हमारी अस्थायी नियति रहेगी। हम जितना हो सके अपने सुरक्षा प्रबंध चाक चौबंद करें और आतंकवाद से होने वाले नुक्सान को न्यूनतम करने की कोशिश करें। जल्द ही एक अस्थायी संतुलन कायम हो जाएगा जहाँ आतंक का साया तो रहेगा लेकिन उस से होना वाला नुकशान बर्दाश्त में रहेगा आखिर सड़क हादसों में भी तो लोगों जो जान जाती है।

देर सबेर 'law of diminishing return' के तहत आतंकवाद भी समाप्त हो जायेगा।

समझौता किसी सूरत में नही!

Monday, December 01, 2008

प्रजातीय विकास और क्रोध


प्रजातीय विकास के संधर्भ में क्रोध कब विकसित हुआ होगा और हमारे संरक्षण सन्दर्भ में क्या इसका कोई उपयोग भी है? क्रोध का विकास कैसे हुआ होगा इसका तो आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है आख़िर किसी भी उकसावे की कोई तो भावनात्मक प्रतिक्रिया होनी चाहिए, क्रोध इसी का नतीज़ा है। क्रोध अति प्राचीन है, आधुनिक मानव के आगमन से भी पूर्व सभी 'primates' और अन्य जीव जो भावना प्रर्दशित करते हैं गुस्से का भी इज़हार करते है। क्रोध को गहराई से समझने के लिए जटिल विश्लेषण की क्षमता अनिवार्य है इसलिए जानवरों में इस का होना तो समझ में आता है लेकिन मनुष्यों में यह धीरे धीरे क्यूँ नही विलुप्त हो गया? आखिर क्रोध हमारी स्वयं को संरक्षित रख पाने के सामर्थ्य को घटता ही है बढाता नही है!

चूंके मनुष्य एक सफल प्रजाति है इस लिए समय और परिस्थिति के अनुसार वह अपने को इस तरह ढालता चला गया के उसके संरक्षित रहने की संभावना सबसे अधिक रहे इसलिए उसका क्रोध के सामने बेबस होना आसानी से समझ नही आता। यक़ीनन ही हमारे तेज़ तरर्रार दिमाग ने आसानी से विश्लेषित कर लिया होगा के क्रोध हमारे विकास में रूकावट है कोई सहूलियत नही। क्रोध तर्कसंगत विचार में रूकावट डालता है इसलिए उकसाए जाने पर सबसे बेहतर प्रतिक्रिया नही बता सकता ऐसी परिस्थिति में क्रमशः विकास के दौरान क्रोध का ह्रास हो जाना चाहिए था परन्तु ऐसा हुआ नही।


मुंबई में हुए आतंक के तहत क़त्ले आम एक उकसावा है, क्रोध से हम इसका सबसे बेहतर उतर शायद नही दे सकते।

मूल्यांकन

 मुझे ट्रैन का सफ़र पसंद है, सस्ता तो है ही अक्सर ही दिलचस्प वाक़िये भी पेश आ जाते हैं। हवाई सफर महंगा, उबाऊ और snobbery से भरा होता है , हर क...