Sunday, October 05, 2008
दसवां रस!
हर व्यक्ति जो ललित कलाओं में रुच रखता है वह 'नव रस' से अनभिज्ञ न होगा। लेकिन इन नव रसों के अतिरिक्त भी एक ऐसी अनुभूति है जिसे ऋषि भरत 'नाट्य शास्त्र' में शामिल करना भूल गए!
"अम्बुआ की डाली डाली , कोयल ......" गीत सुनते है यादों का एक सैलाब उमड़ पड़ता है। मैं सिर्फ इतना कह सकता है, 'नोस्टैल्ज़िया' एक भ्रामक, समय की मार खायी धुंधली तस्वीर है जिसमें नुकीले कोने कुंद कर दिए गए हैं और एक गुज़रे ज़माने का रोमानी किंतु चुनिन्दा संस्करण पेश किया गया है। हैरत है की पश्चिमी जगत के मुकाबले इतना भावुक होते हुए भी हमारे पास 'नोस्टैल्ज़िया' का हिन्दी समानांतर शब्द नही है। चूँकि यादों का सैलाब 'सेलेक्टिव' होता है, इसलिए अक्सर भ्रम पैदा होता है की गुज़रा वक़्त आज से कहीं बेहतर था। सच्चाई तो यह है के वर्तमान हमेशा ही गुज़रे वक्त से बेहतर होता है चाहे समय के कुछ छोटे अन्तराल अपवाद ज़रूर होते हों।
आख़िर 'नोस्टैल्ज़िया' हमारी जीवित रहने की वृति के तहत कैसे विकसित हुआ होगा? शायद पुराने अनुभवों को याद रखने के लिए इन्हे रूहानी अहसास दे दिया हो। कुछ भी हो 'नोस्टैल्ज़िया' एक अनोखी अनुभूति है जिसे हम 'नव रसों' में शामिल करना भूल गए।
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