Saturday, January 12, 2019

एक बेमानी दिन

एक आम तल्ख़ सुबह
आफताब उठ रहा था
परली तरफ उसके
महताब ढल रहा था
और इनके दरमियान
हल्का सा कोहरा था
जब रोशनी हुई
परवाज़ हुए परिंदे
एक झुण्ड में  उड़ते
अर्श पर कुछ लिखते
फ़ौरन ही मिटा देते
फिर आहिस्ता आहिस्ता
एक शोर उमड़ पड़ा
देखते ही देखते हरकत में शहर था
हर कोई बोलता था
सुनता कोई नहीं था
शाम होते होते
सब पस्त  हो गए
बेजान दिल को लेकर
अब घर को लौटते हैं
सुबह होती है, शाम होती है
दरमियाँ  में इनके
यादों को कुछ नहीं है


Thursday, January 03, 2019

सर्दी की सुबह

मुड़ के जो देखा
कोई न था
क़दमों की आहट न थी
शायद कोई टहनी चटकी थी
मैं था और तन्हाई थी
सिलसिला देवदारों का
मोड़ पर जो था मकाँ
चिमनी से उसकी सफ़ेद धुआं
घुलता था नीले आसमां
मैला कुचैला कुछ भी न था
बर्फ ने सब ढँक दिया था
साहिर का खींचा तिलिस्म था
ये मरहला जब गुज़र जाएगा
धुआं काला हो जाएगा
कागज़ के पुर्ज़े,  कपड़ों के टुकड़े
प्लास्टिक के बैग, कुचली घास
बदरंग ज़मीन और गिले - शिकवे
सब उभर आएंगे
चल अभी दूर जाना है
नक्स-ए -क़दम छोड़ जाना है

मूल्यांकन

 मुझे ट्रैन का सफ़र पसंद है, सस्ता तो है ही अक्सर ही दिलचस्प वाक़िये भी पेश आ जाते हैं। हवाई सफर महंगा, उबाऊ और snobbery से भरा होता है , हर क...