शिशिर कणों से लदी हुई कमली के भीगे हैं सब तार
चलता है पश्चिम का मारुत ले कर शीतलता का भार
भीग रहा है रजनी का वह सुंदर कोमल कबरी भाल
अरुण किरणसम कर से छु लो, खोलो प्रियतम खोलो द्वार
- जयशंकर प्रसाद
बचपन में ये कविता पढ़ी थी, आज तक नही भूला। अफ़सोस हिन्दी कविता का एक बेहतरीन दौर छायावाद पलक झपकते ही गुज़र गया।
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3 comments:
मेरी भी पसंदीदा कविता है ये पर इसे जयशंकर प्रसाद ने नहीं बल्कि डा. राम कुमार वर्मा ने लिखा है। पूरी कविता मैंने पिछले साल पोस्ट की थी। यहाँ चाहें तो देख सकते हैं
http://ek-shaam-mere-naam.blogspot.com/2007/08/blog-post_07.html
शुक्रिया मनीष जी, लेकिन ऐसा लगता है आपने भी पूरी कविता नही लिखी है. जहाँ तक मुझे याद पड़ता है
"भीग रहा है रजनी का ......." लाइन भी इस कविता का हिस्सा है. अगर आप अपनी डायरी एक बार फिर देख लें तो तस्सली हो जायेगी.
कविता की कई लाइन छूट गयी है
किसी तरह से भूला भटका आ पहुंचा हूँ तेरे द्वार
डरो न इतना धुल धुसरित होगा नहीं तुम्हारा द्वार
धो डाले हैं इनको प्रियवर इन आँखों के आंसू धर
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