Friday, October 31, 2008

खोलो प्रियतम खोलो द्वार

शिशिर कणों से लदी हुई कमली के भीगे हैं सब तार
चलता है पश्चिम का मारुत ले कर शीतलता का भार
भीग रहा है रजनी का वह सुंदर कोमल कबरी भाल
अरुण किरणसम कर से छु लो, खोलो प्रियतम खोलो द्वार

- जयशंकर प्रसाद

बचपन में ये कविता पढ़ी थी, आज तक नही भूला। अफ़सोस हिन्दी कविता का एक बेहतरीन दौर छायावाद पलक झपकते ही गुज़र गया।

3 comments:

Manish Kumar said...

मेरी भी पसंदीदा कविता है ये पर इसे जयशंकर प्रसाद ने नहीं बल्कि डा. राम कुमार वर्मा ने लिखा है। पूरी कविता मैंने पिछले साल पोस्ट की थी। यहाँ चाहें तो देख सकते हैं
http://ek-shaam-mere-naam.blogspot.com/2007/08/blog-post_07.html

Kali Hawa said...

शुक्रिया मनीष जी, लेकिन ऐसा लगता है आपने भी पूरी कविता नही लिखी है. जहाँ तक मुझे याद पड़ता है
"भीग रहा है रजनी का ......." लाइन भी इस कविता का हिस्सा है. अगर आप अपनी डायरी एक बार फिर देख लें तो तस्सली हो जायेगी.

Dr. Y.N.Pathak said...

कविता की कई लाइन छूट गयी है
किसी तरह से भूला भटका आ पहुंचा हूँ तेरे द्वार
डरो न इतना धुल धुसरित होगा नहीं तुम्हारा द्वार
धो डाले हैं इनको प्रियवर इन आँखों के आंसू धर

मूल्यांकन

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