Thursday, September 25, 2008

लफ्ज़ों में बसी रूह .......


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कुछ लफ्ज़ अपने अर्थ से कहीं आगे निकल आते हैं और धीरे धीरे जीवित हो उठते हैं। मिसाल के तौर पर अगर लफ्ज़ 'मंजिल' पर ही गौर करें तो पायेंगे के शब्द का अर्थ कहीं आगे निकल चुका है, आखिर हम सब की मंजिल क़ज़ा (मौत) ही तो है। अब अगर 'भूख' और 'प्यास' पर गौर करें तो पाएंगे के भूख निहायत ही ज़मीनी लफ्ज़ है यानी सांसारिक ताम झाम में उलझा हुआ जबके 'प्यास' इस से इकदम जुदा हमारी अध्यात्मिक ज़रूरत की अभिव्यक्ति है। अब ऐसा क्या है के 'भूख' और 'प्यास' इतना नज़दीक होते हुए भी इस क़दर दूर हो गए?
'मुसाफिर' हमारे अपने जीवन के सफ़र का चित्र खींचता है, 'तन्हाई' हमें भीड़ में भी अकेला दिखाती है! 'धुआं' हमारे अंतर्मन के शंकाएँ, 'पिघलना' वस्तुओं, भावनाओं का प्रतिक्षण बदलना, 'शबनम' ताज़गी और स्वछता जैसी अभिव्यक्ति प्रदान करती है। आखिर ऐसा क्या है जो कुछ शब्दों को तिलिस्मी बना देती है और कुछ शब्द सिर्फ़ शब्द ही रह जाते हैं? मेरे ख़याल से शब्दों का दयारा फैलना इस बात पर निर्भर करता है के वह हमारी भावनाओं से किस क़दर जुडा हुआ है।

ज्यादातर वही शब्द 'power' विशेषणों में तब्दील हो जाते हैं जो अक्सर बोलचाल की जुबां में इस्तेमाल नही होते। कहने का मतलब यह है के ज्यादह इस्तेमाल होने वाले शब्द अपनी आत्मा खो देते हैं।
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- काली हवा

साहिब बीबी और गु़लाम

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मैंने जब यह फ़िल्म पहली बार देखी उस वक्त मैं छोटा सा बच्चा था और मुझे यह एक डरावनी फ़िल्म के तरह लगी बजाय एक गुज़रे हुए ज़माने की पतनशील सामंती व्यवस्था पर एक भावनात्मक लेकिन संवेदनशील कमेंटरी. फिल्म का ब्लैक एंड व्हाइट माध्यम इसके दबे हुवे षड़यंत्रपूर्ण कथानक के सर्वथा अनुकूल था तथा कहानी को पूर्ण तीव्रता से अनुभव करने के लिया अत्यन्त ही सार्थक भी. फ़िल्म की कहानी में आए अकष्मिक उतार चढ़ाव, घड़ी बाबू का स्क्रीन पर पागलपन से उत्प्रेरित उन्माद उस छोटे बच्चे के लिया हारर का सबब था. अब चूँकि कहानी की परिपक्वता और विचित्र घटनाओं का चक्र एक बच्चे के लिए समझना मुमकिन न था लिहाज़ा मेरे लिए वह एक डरावना अनुभव ही साबित हुआ. संवादओं की जटिलता, कहानी का धीमा बहाव और महिलाओं का ग्राफिक उत्पीडन मेरे लिए अच्छा अनुभव न था, नतीज़तन फ़िल्म देखने के बाद जब मैं घर लौटा तो मुझे उन सभी पुरुषों से नफरत थी जो महिलाओं के साथ क्रूरता से पेश आते थे.लेकिन फ़िल्म का गहरा स्याह परिवेश, उसका दिल को चुने वाला संगीत मेरे लिया एक बहुत ही आत्मीय अनुभव रहा. इसलिए जब कुछ लोग कहते हैं के लता मंगेशकर का सबसे रूहानी गीत "कहीं दीप जले कहीं दिल....... " है तो मुझे ये कतई इनकार है. मेरे लिए रूहों का सबसे बहतरीन गीत गीता दत्त का "कोई दूर से आवाज़ दे चले आओ ... ...." ही है.

मूल्यांकन

 मुझे ट्रैन का सफ़र पसंद है, सस्ता तो है ही अक्सर ही दिलचस्प वाक़िये भी पेश आ जाते हैं। हवाई सफर महंगा, उबाऊ और snobbery से भरा होता है , हर क...