Tuesday, June 04, 2024

एक अप्रत्याशित याद

 इंसान बाज़-औक़ात शर्मिंदा हो जाता है ऐसी बातों से जिसमें उसका कोई कसूर नहीं होता मसलन लोग अपनी ग़रीबी पर ही शर्मिंदा महसूस करते हैं जब कोई अमीर दोस्त या रिस्तेदार उनसे मिलने उसके घर चले आते हैं। वह हर कोशिश करता है घर को चमकाने में, उन चीज़ों को ढँक देने में जो उसकी पसमांदगी को नुमाया करे। ऐसा क्यों होता है, कुजाण !

जब मैं योग करता हूँ तो वह तीन मुखतालिफ़ स्टेजेस में होता है पहला हिस्सा जो के 15 से 18 मिनट का होता है, महज़ सांस लेना और छोड़ना, इस स्टेज में और कुछ भी नहीं होता, दिमाग़ ज़्यादा बड़ी संभावना के लिए तैयार होता है। दूसरा हिस्सा भी 15 से 17 मिनट का होता है और इसमें सांस लेने में तन्मयता आ जाती है और मानस गहनता में डोलता महसूस होता है अंतिम हिस्सा दूसरे हिस्से कि तरह 15 मिनट का ही होता है लेकिन कभी कभी आखरी 5 मिनट अवचेतन कि स्थिति में पहुँच जाता हूँ। आज सब करा-धरा व्यर्थ गया। तीसरी अवस्था के मध्य एक पुरानी याद उभर आई, ऐसी याद जो अपने ही प्रति ग्लानि पैदा करती है। वाक़िया बहुत पुराना है कॉलेज के वक़्त का और किसी सिलसिले में मुझे दिल्ली जाना पड़ा। उस वक़्त दिल्ली में बस एक ही ठिकाना था, स्वर्गीय चाचाजी का लोदी रोड वाला घर, 14/768; इत्तेफाक़न उस वक़्त चाचा और चाची कहीं बाहर गए हुए थे और मुझे मरहूम गुड्डू ( ब्रजेश काला) और प्रभाकर वहाँ मिले । शाम के वक़्त गुड्डू ने फरमाइश कि के बकरे गोश्त  बनाया जाए मैंने फौरन हाँ कर दी और चूंकि मैं हॉस्टल में रहता था इसलिए मेरे पास पैसे भी रहते थे। खन्ना मार्केट के आखरी छोर पर मुझे बताया गया के गोश्त मिलता है। मैं झोला लेकर निकल पड़ा।  इससे पहले मैंने गोश्त नहीं खरीद था सो जब दुकानवाले ने मुझे मांस काट कर दिया तो मुझे समझ नहीं आया के ये लाल/भूरे हिस्से क्यों दे रहा है जबकि सफेद हिस्सा खोये कि तरह दिल पज़ीर लग रहा था। मैंने कहा के सफेद वाला ही हिस्सा दो, उसने मुझे ताज्जुब से देखा और खुशी खुशी मांस हटा कर पूरा सफेदऐ वो तो आगे है  माल पकड़ा दिया। घर आ कर जब मीट गुड्डू के हवाले लिया तो उसका मुंह उतर गया, कहने लगा ये क्या ले आए इसमें तो मीट है ही नहीं सिर्फ चर्बी है। फिर दोषारोपण का दौर चला जिसमें मरहूम सर प्रभाकर ने जम कर चटकारे लिए, ‘बिंड़ी चकडैत’ जैसे शब्द हवा में उछले। बहरहाल जो क़िस्से में मीट है वह तो आगे है।

गुड्डू महाशय का उतरा मुंह देख कर मैंने पहल की कि और मीट ले आते हैं लेकिन मैंने उसी दुकान जाने से साफ मना कर दिया (वहाँ मैं क्या मुंह लेकर जाता?)। गुड्डू ने कहा एक दुकान और है जोरबाग़। मैंने कहा चलो। लेकिन पहले जोरबाग़ कि बात हो जाए । घर से पत्थर फेंकने कि दूरी पर ही ये दिल्ली का अप्टाउन इलाक़ा है, अमीरों कि बस्ती, यहाँ रहने को दड़बे नहीं, आलीशान कोठियाँ हैं और ज़ाहिर सी बात है जो दुकानें हैं वो भी उसी शक्ल में। गुड्डू ने दुकान ज़रूर देखी थी पर गया कभी नहीं था, वहाँ जा कर मुझे इशारा किया के वो दुकान है, मैंने कहा, ‘चलो’। उसने साफ इनकार कर दिया। चूंकि हमारे कॉलेज में भी शीशे के façade वाली बड़ी बड़ी imposing इमारतें थीं लिहाज मुझे ऐसी chic, मॉडर्न बिल्डिंग intimidate नहीं करती थी। लेकिन कॉलेज कि बात और है, यहाँ मामला दूसरा था। मैंने हवाई चप्पल पहनी थी और साधारण बेल-बाटम पेंट-कमीज़ जो उस दौर में अमूमन मिडल क्लास की कैजुअल पोशाक हुआ करती थी । दुकान एयर-कन्डिशंड थी, ग्लास के रैक्स में तरह तरह कि मीट से सजी प्लेटें थीं, दो अभिजात्य वर्ग कि मोहतरमा भी वहाँ मौजूद थी एक कोने में बतिया रहीं थी और खानसामा जैसी सफेद टोपी पहने और सफेद ही लिबास में दुकानदार या उसका मुलाज़िम इन racks के पीछे खड़ा था। मेरे अंदर आते ही मानो फ़ज़ा में मौजूद तवाजुम (equilibrium) बिखर गया, दोनों मोहतरमा ने यकायक ही बातचीत आधे में रोक मेरे तरफ रुख किया और इस तरह देखा जैसे मैं सर्कस से निकला कोई जोकर हूँ वही रैवय्या दूकान के मुलाज़िम का भी था।  मैंने सब को नज़रअंदाज़ कर उस खानसामा टोपी वाले से कहा, क्या मटन है ?

उसने सर हिला कर मना कर दिया, मैंने फिर पूछा, मटन , गोश्त? उसने फिर मना कर दिया। अब मुझे अहसास हुआ कुछ गड़बड़ है, वो मुझे नज़र-अंदाज़ कर रहा है, कोई तवज्जो नहीं दे रहा है। मैं उलटे पाँव लौट आया।  मुझे अब गुड्डू पर भी गुस्सा आ रहा था और अपने आप पर भी। उसने पूछा क्या हुआ मैंने बेरुखी से कहा, उसके पास नहीं है।

कभी कभी इस तरह की यादें दिल में खटास पैदा कर देती हैं, ज़ेहन में ख़याल लूप की तरह बार बार आता है मुझे ऐसा करना चाहिए था वैसा करना चाहिए था। उस रोज़ भी योग के दौरान जब ये याद उभर आयी तो बेचैन हो गया, ग्लानि से भर गया। क्यों नहीं मैंने अंग्रेजी झाड़ी (उस वक़्त अंग्रेज़ी इस तरह कि नहीं थी) और उन मोहतरमा के पास जा कर कहा, “Isn’t staring considered rude?”       

बोधिसत्त्व : श्रावस्ती पर एक और कथा

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