Thursday, June 09, 2011

रेलवे स्टेशन

वह  जो  सामने  टीला  है
या  कहें  पहाड़ी  है
बदरंग  बे  सब्ज़ा
उसकी  बुलंदी  पर
दो  अदद  दरख़्त  हैं
पत्ते  तो  कम  हैं, शाखें  भी  कम  हैं
उनमें  जो  बड़ा  है, जान  पड़ता  है
कोई  औरत  कोहनी  मोड़े  हाथ  कूल्हे  पे  रख
किसी  गहरे  ख़याल  में  गुम  है
साथ  उसकी  बच्ची  सर  पे  टोकरी  लिए  खडी  है
ये  मंज़र  तकलीफदेह  है
पहाड़ी  के  पार  रेलवे  स्टेशन  है
वक़्त  जैसे  उसका  साथ  छोड़, आगे  बढ़  गया  हो
दो  कमरों  की  जर्जर  इमारत
कुछ  बिजली  के  खम्बे
और  इनसे  दूर  पानी  की  टंकी
इस्पात  के  फ्रेम  पर  टंगी  है
ये  तनहा  स्टेशन  दुनिया  जहान
से  अलग  थलग
महज़  एक  ट्रेन  सुबह
और  वही  शाम  लौट  जाती  है
प्लेटफ़ॉर्म  ज़मीन  से  पटरी  की  ऊंचाई  तक  ही  है
कुल  मिला  कर  एक  'sepia' तस्वीर
गोधूली  का  वक़्त  है
एक  बेसब्र  नौजवान
प्लेटफ़ॉर्म  पर  मुसलसल  चहल -कदमी  कर  रहा  है
सफेद  कमीज़  और  कड़क  इस्त्री  की  हुई  पतलून
हाथ  में  ब्रीफ-केस
वह  इस  मंज़र  का  क़तई  हिस्सा  नज़र  नहीं  आता
एक दम  अटपटा
शायद  'एग्रीकल्चर  औजारों'  का  सेल्समेंन  है!
अफ़सोस  ऎसी  कोई  सूरत  नहीं
के  वह  वक़्त  की  रफ़्तार  को  धक्का  दे  सके
शायद  क़िस्मत  को  कोस  रहा  है
गाडी  आने  की  बाबत
स्टेशन  मास्टर  से  कई  बार  तलब  कर  चुका  है
उसे  कुछ  उम्मीद  नज़र  आयी
दूर  पटरी  पर  एक  काला  धब्बा  हरकत  में  था
जल्द  ही  गाडी  नज़र  आने  लगी
जब  ब्रेक  की  चीखें  एक  लहर  की  मानिंद
इंजन  से  आखरी  डब्बे  की  तरफ  डूबने  लगी
उम्मीद  चकनाचूर  हो  गयी
वह  तो  मालगाड़ी  थी
अब  स्टेशन  पर  बेजान  खाड़ी   थी 
गार्ड  का  वह  जाना  पहचाना  डब्बा
गाडी  के  बीचों  बीच  लगा  था
वह  हैरान  रह  गया
जब  एक  बावला  सा  आदमी
गार्ड  के  डब्बे  से  कूदा
सरगर्मी  से  इंजन की  जानिब  दौड़ने  लगा
वह  फिर  इंजन की  छत पर चढ़ने की  कोशिश  करने  लगा
गार्ड  की  यह  हरकत
प्लेटफोर्म  पर  खड़े  जवान  की  फहम  से  बहार  थी
आखिर गार्ड  चाहता  क्या  है?
ये  डीज़ल इंजन था
ऊपर  बिजली  का  तार  उसकी  जान  ले  सकता  था
वह  तेज़  क़दम  स्टेशन  मास्टर  के  कमरे  की  तरफ  चल  पडा
उसे  लगा,
यकीनन  इस  बार  स्टेशन  मास्टर  का  गुस्सा  उबल  पडेगा
लेकिन  ऐसा  न  हुआ
स्टेशन  मास्टर  उसे  देख  हमदर्दी  से  कहने  लगा
'अरे  भाई,  पहले  माल  गाडी  गुजरेगी
फिर  आपकी  गाडी  आएगी!'
'मालगाड़ी  गुजरेगी? साहब, यही  बताने  तो  आया  हूँ.
मालगाड़ी स्टेशन  पर  खड़ी  है
गार्ड  पागल  सी  हरकत  कर  रहा  है'
'क्या  कह  रहे  हो  जनाब!',
कहते  हुए  स्टेशन  मास्टर  उठा 
प्लात्फोर्म  पर  नौजवान  हक्का  बक्का  रह  गया
वहाँ  मालगाड़ी  का  नाम -ओ -निशाँ  न  था
स्टेशन मास्टर बोला,
ये कैसे हो सकता है?
गाडी  तो   पिछले  स्टेशन  से  निकली  ही नहीं !'

Tuesday, June 07, 2011

आरसी

 
इस  बार  में  कुछ  भी  खुशनुमा  नहीं  था 
बदरंग, मैला कुचैला  चौकोर  कमरा 
हर  शै  दबे  रंगों  में  डूबी  थी 
बोरियत  की  गहरी  चादर  से  ढका 
वहाँ  वक़्त  भी  घिसटने  पर  मजबूर  था 
बार  दीवार  से  सट  कर 
कमरे  की  तीन -चौथाई  लम्बाई  तक  था
सामने , दीवार  के  छोर  से  ज़रा  हट  कर
तरह  तरह  की  शराबें 
अपनी   अपनी  जगह   झिलमिला  रही   थी
दीवार  और  कैबिनेट  के  दरमियान

जो   फासला   था 
वहाँ  एक  आईना  लगा  था
वह  भी  अपनी  पॉलिश  खो  चुका  था
चिटका  हुआ  था
ऊपर  बाईं  तरफ  मानो  किसी  ने  गोली  दाग़ी  हो 
फिर  वह  चिटक  गया 
बालों  के  बे-तरतीब  दायरे 
उस  जगह  के  इर्द  गिर्द 
साथ  ही  सीधी  लकीरें  भी  radiate हो  रही  थी 
कुल  मिला  कर  वह  एक  मकड़ी  का  जाल  नज़र  आ रहा  था
आईने  के  ठीक  सामने  बैठा  वह
उकताया  शख्स 
सामने  भरा  जाम  उसने  छुआ  तक  नहीं  था
गहरी  नज़रों  से  आईना  तकते  तकते
उस  धुंधले  अक्स  में 
वह  अपना  चेहरा  तलाश  रहा  था 
बारटेंडर  बार  के  दूसरे  छोर  पर 
कोहनियाँ  बार  पे  टिका, हथेलियों  पर  सर  थामे 
जो  गिने  चुने  लोग  उस  बार  में  थे 
उन्हें  अलसाया  सा  देख  रहा  था
कुछ  देर  बाद  उस  शख्स  को  लगा
वह  जाला  जो  आईने  पर  था
उठा  और  उसके  सर  से  लिपट  गया
अब  अक्स  बेहतर  नज़र  आने  लगा  
उसने  देखा  एक  अजनबी 
गाम  गाम  उसकी  तरफ  चला  आ  रहा  था
हर  क़दम  उसका  क़द  बढ़ता 
तेवर  खौफनाक  होते  जाते 
हडबडा  कर  उसने  अपनी  ज़ेब  टटोली 
पिस्तौल  निकाल  गोली  दाग़  दी 

यकायक  उसके  ख़यालों  का  तांता  टूट  गया
Judge खीज  कर  पूछ  रहा  था
शायद  दूसरी  मर्तबा 
'तुमने  बारटेंडर  को  गोली  क्यूँ  मारी?'
उसने  कहा,
'चूंके  आईने  में  जाला  था!'

Monday, June 06, 2011

लाइट हाउस


वह  शख्स  जो  डेक्क  पर  खड़ा  था 
सोच  रहा  था 
दिन  की  रौशनी  में  जो  समंदर
तर -ओ -ताज़ा  करने  की  कूव्वत  रखता  है 
रात  होते  ही  खौफनाक  नज़र  आता  है
इस  वक़्त, रात  के  अन्धेरे 
उँगलियों  में  दबी  सुलगती  सिगरेट 
एक  लेज़र  पेंसिल  की  तरह 
रात  के  सियाह  कैनवास  पर
आड़ी  तिरछी  लकीरें  खींच  रही  थी 
कभी  कोई  चिंगारी  हवा  के  झोंके  उठती 
एक  लम्हा  बल-खाती  लट  की  तरह  लहराती 
फ़ना  हो  जाती 
तन्हाई  में  वह  शख्स  कुछ  सोच  में  गुम  था ...
सामने  जो  खँडहर  इमारत 
आसमान  की  बुलंदी  पर  पहुँच  रही  थी
जान  पड़ता  था  कोई  लाइट  हाउस  होगा 
pager , कलईवाला , रुई  धुनने  वाला  ..
ऐसे  ही  इसका  भी  अहद  गुज़र  चुका  था
ना   जाने  कितने  ही  भूले  भटके  सफीनों  को  राह  दिखा 
ख़ुद  अपनी  मंजिल  की  तलाश  में   चूक  गया 
उसकी  दम  तोडती  हड्डियां 
जिस्म  से  फूटते  फव्वारे 
लहरों  की  चीख़  पुकार  के  दरमियान 
अपने  वजूद, अपने  हस्ती  का  ऐलान  कर  रही  थी
यकायक  उसे  लगा 
एक  रौशनी  का  गोला  उस  के  सामने
हवा  में  टंगा  है
उसे  लगा  कोई  कुछ  कह  रहा  था
'ये  तो  होना  ही  था ....'
'क्या  होना  ही  था ?' बरबस  उसके  मुंह  से  निकल  पड़ा   
'यही  जो  है  वह  नहीं  है ..
जो  आयेगा  वह  जाएगा  भी ..
रुका  कुछ  भी  नहीं  है
सिर्फ  रुकने  का  अहसास  है
ज़िन्दगी  का  मरकज़  एक  equilibrium   है
उसके  इर्द -गिर्द  pendulum   की  मानिंद  फिरती  है
रफ़्तार  का  अहसास  जीने  की  शक्ल  है ....'
'आप  कौन  हैं ?'
'मैं  तुम्हारा  ख़ुदा  हूँ!'
'मेरा  खुदा? '
'हाँ, तुम्हारा  ख़ुदा!'
'क्या  हर  बन्दे  का  अपना  ख़ुदा  है ?'
'यक़ीनन! मैं  तो  महज़  उसकी  सोच  का  projection   हूँ
इंसान  की  सोचने  की  क़ाबलियत  का  नतीज़ा  हूँ '
'इस  गोल  आकार  का  सबब ?'
'हर  सू  एक  सा  जो  दिखता  हूँ '
अचानक  ही  अन्धेरा  छा गया
ऑंखें  मल  कर  जब  उसने  देखने  की  कोशिश  की
लाइट  हाउस  की  तेज़  रौशनी
जो  अब  तक  ठीक  उस  पर  focus थी
अब  गुल  हो  चुकी  थी
उस  जगह  अब  इक  हल्का  सा  सफ़ेद  गोला
अपनी    आखेरी  साँसें    गिन  रहा  था





मूल्यांकन

 मुझे ट्रैन का सफ़र पसंद है, सस्ता तो है ही अक्सर ही दिलचस्प वाक़िये भी पेश आ जाते हैं। हवाई सफर महंगा, उबाऊ और snobbery से भरा होता है , हर क...