दिल ना उम्मीद तो नहीं नाकाम ही तो है
लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है
इस शेर से मुझे कॉलेज के दिन याद आ गए. उस दौरान हम अक्सर शाम के वक़्त लम्बी सैर पर निकला करते थे. चूंके कॉलेज शहर से दूर था लिहाज़ा कैम्पस दूर तक फैला हुआ था, जगह जगह निर्जन विस्तार! हम नित्य ही सैर के लिए नए रास्ते ढूंडा करते थे. एक रास्ता जो के छात्रावास समूह के अंत पर स्थित पुलिया के पार हो कर दूर मोड़ पर स्थित महिला छात्रावास हो कर गुजरता था, हमें खास प्रिय था. पुलिया के पार सड़क के एक ओर कॉलेज द्वारा एक विशाल गड्ढा किया गया था, स्विमिंग पूल बनाने के लिए, लेकिन पैसा न आने की वजह से वह गड्ढा एक भद्दे दाग के नुमा वहां एक अरसे तक मौजूद रहा. जैसे ही सड़क छात्रावास समूह से पार उठती और पुलिया से नीचे उतरती एक तरफ वह विशाल गड्ढा नज़र आता और दूसरी तरफ दूर दूर तक फैले निर्जन में एक अकेला दरख्त! वह वृक्ष विशेष था नितांत अकेला. उसका तना निहायत ही चकना था यूकलिप्टस के दरख्त के मानिंद. तना लगभग हमारी उंचाई तक उठा था फिर दो आसमान की तरफ लपकती शाखाओं में विभाजित हो गया. जिस स्थान पर तना विभाजित हुआ था वहां पर एक ध्यान आकर्षित करने वाला उभार था. ऐसा प्रतीत होता था मानो वह वृक्ष गर्भ से है. मैं उसे 'Pregnent Tree' कहता था.
क्या आश्चर्य के उस दरख्त ने कभी भी प्रसव नहीं दिया? ज़िन्दगी उन के लिए खुशनुमां है जो उसे प्रसव से जानते हैं. उम्मीद उन्हें जीने का सहारा देती है..........
Tuesday, November 16, 2010
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मूल्यांकन
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