Monday, June 06, 2011

लाइट हाउस


वह  शख्स  जो  डेक्क  पर  खड़ा  था 
सोच  रहा  था 
दिन  की  रौशनी  में  जो  समंदर
तर -ओ -ताज़ा  करने  की  कूव्वत  रखता  है 
रात  होते  ही  खौफनाक  नज़र  आता  है
इस  वक़्त, रात  के  अन्धेरे 
उँगलियों  में  दबी  सुलगती  सिगरेट 
एक  लेज़र  पेंसिल  की  तरह 
रात  के  सियाह  कैनवास  पर
आड़ी  तिरछी  लकीरें  खींच  रही  थी 
कभी  कोई  चिंगारी  हवा  के  झोंके  उठती 
एक  लम्हा  बल-खाती  लट  की  तरह  लहराती 
फ़ना  हो  जाती 
तन्हाई  में  वह  शख्स  कुछ  सोच  में  गुम  था ...
सामने  जो  खँडहर  इमारत 
आसमान  की  बुलंदी  पर  पहुँच  रही  थी
जान  पड़ता  था  कोई  लाइट  हाउस  होगा 
pager , कलईवाला , रुई  धुनने  वाला  ..
ऐसे  ही  इसका  भी  अहद  गुज़र  चुका  था
ना   जाने  कितने  ही  भूले  भटके  सफीनों  को  राह  दिखा 
ख़ुद  अपनी  मंजिल  की  तलाश  में   चूक  गया 
उसकी  दम  तोडती  हड्डियां 
जिस्म  से  फूटते  फव्वारे 
लहरों  की  चीख़  पुकार  के  दरमियान 
अपने  वजूद, अपने  हस्ती  का  ऐलान  कर  रही  थी
यकायक  उसे  लगा 
एक  रौशनी  का  गोला  उस  के  सामने
हवा  में  टंगा  है
उसे  लगा  कोई  कुछ  कह  रहा  था
'ये  तो  होना  ही  था ....'
'क्या  होना  ही  था ?' बरबस  उसके  मुंह  से  निकल  पड़ा   
'यही  जो  है  वह  नहीं  है ..
जो  आयेगा  वह  जाएगा  भी ..
रुका  कुछ  भी  नहीं  है
सिर्फ  रुकने  का  अहसास  है
ज़िन्दगी  का  मरकज़  एक  equilibrium   है
उसके  इर्द -गिर्द  pendulum   की  मानिंद  फिरती  है
रफ़्तार  का  अहसास  जीने  की  शक्ल  है ....'
'आप  कौन  हैं ?'
'मैं  तुम्हारा  ख़ुदा  हूँ!'
'मेरा  खुदा? '
'हाँ, तुम्हारा  ख़ुदा!'
'क्या  हर  बन्दे  का  अपना  ख़ुदा  है ?'
'यक़ीनन! मैं  तो  महज़  उसकी  सोच  का  projection   हूँ
इंसान  की  सोचने  की  क़ाबलियत  का  नतीज़ा  हूँ '
'इस  गोल  आकार  का  सबब ?'
'हर  सू  एक  सा  जो  दिखता  हूँ '
अचानक  ही  अन्धेरा  छा गया
ऑंखें  मल  कर  जब  उसने  देखने  की  कोशिश  की
लाइट  हाउस  की  तेज़  रौशनी
जो  अब  तक  ठीक  उस  पर  focus थी
अब  गुल  हो  चुकी  थी
उस  जगह  अब  इक  हल्का  सा  सफ़ेद  गोला
अपनी    आखेरी  साँसें    गिन  रहा  था





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