Monday, December 20, 2010

दरवाज़ा ..........

अग्रभाग निश्चय ही अप्रभावी या साधारण रहा होगा। इसी वजह से उसकी कोई छवि अंकित नहीं कर पा रहा हूँ। लेकिन दरवाज़ा ज़रूर नज़रों को खींच लेता था। वहां तक जाने वाली चंद क़दमों की सीढ़ी कोनों से क्षतिग्रस्त थी, निश्चय ही कुछ लोग वहां फिसल गए होंगे। दरवाज़े का फ्रेम फिर भी अच्छी हालत में था लेकिन पटल बुरी तरह से क्षतिग्रस्त था। दरवाजा उस दृश्य का विकृत हिस्सा था, घिसापिटा, जीर्णशीर्ण जिसकी वार्निश पूरी तरह से चमक खो चुकी थी। उस का पैनल झुर्रियोंनुमा दरारें से भरा था। दरवाज़ा, फ्रेम पर एक तरफ झुका हुआ था जिससे कुण्डी का फ्रेम पर लगे ब्रकेट से तालमेल खो गया था। कुण्डी लगाने के लिए दरवाज़ा उठाना पड़ता लेकिन इसकी ज़रूरत बेमानी थी क्योंकि कुण्डी का बोल्ट सदियों से नदारद था। बावजूद इसके दरवाजा फ्रेम पर सख्ती से ताना था और तेज हवा भी उसे खोलने में असमर्थ थी। लगातार चलती हवा दरवाजे पर बने छिद्रों से गुज़रती हुई एक विदीर्ण करने वाली आवाज़ पैदा करती थी। दरवाजे का निचला हिस्सा टूट-बिखर कर कंघिनुमा हो गया था और वहां से अन्दर का गहन अंधकार दिखाई पड़ता था।कुल मिला कर वह एक रहस्यमय और डरावनी तस्वीर नज़र आती थी। दरवाजे से अंदर जाने की क़तई इच्छा नहीं होती थी।

मृत्यु, हालांकि मात्र एक बार इस्तेमाल होने वाला रिकार्ड है, फिर भी वह 'ब्रांड न्यू' हालत में नहीं है। जीवन में हम कई बार उस रिकार्ड का आवरण खोलते हैं, उसे दिलचस्पी और भय के साथ टटोलते हैं, उसकी धुल साफ़ कर वापस उसके खोल में रख देते है। बार बार की ये हरकत रिकॉर्ड को घिस देती है और जब रिकॉर्ड बजाने का वक़्त आता है तो कोई आवाज़ ही नहीं निकलती। हम बेआवाज़, चुपचाप उस विचित्र दरवाज़े से निकल जाते हैं ...........

शोर तो वह लोग करते हैं जिन्हें अभी अपना रिकॉर्ड बजाना बाक़ी है।

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