एक आम तल्ख़ सुबह
आफताब उठ रहा था
परली तरफ उसके
महताब ढल रहा था
और इनके दरमियान
हल्का सा कोहरा था
जब रोशनी हुई
परवाज़ हुए परिंदे
एक झुण्ड में उड़ते
अर्श पर कुछ लिखते
फ़ौरन ही मिटा देते
फिर आहिस्ता आहिस्ता
एक शोर उमड़ पड़ा
देखते ही देखते हरकत में शहर था
हर कोई बोलता था
सुनता कोई नहीं था
शाम होते होते
सब पस्त हो गए
बेजान दिल को लेकर
अब घर को लौटते हैं
सुबह होती है, शाम होती है
दरमियाँ में इनके
यादों को कुछ नहीं है
आफताब उठ रहा था
परली तरफ उसके
महताब ढल रहा था
और इनके दरमियान
हल्का सा कोहरा था
जब रोशनी हुई
परवाज़ हुए परिंदे
एक झुण्ड में उड़ते
अर्श पर कुछ लिखते
फ़ौरन ही मिटा देते
फिर आहिस्ता आहिस्ता
एक शोर उमड़ पड़ा
देखते ही देखते हरकत में शहर था
हर कोई बोलता था
सुनता कोई नहीं था
शाम होते होते
सब पस्त हो गए
बेजान दिल को लेकर
अब घर को लौटते हैं
सुबह होती है, शाम होती है
दरमियाँ में इनके
यादों को कुछ नहीं है
No comments:
Post a Comment