Saturday, January 12, 2019

एक बेमानी दिन

एक आम तल्ख़ सुबह
आफताब उठ रहा था
परली तरफ उसके
महताब ढल रहा था
और इनके दरमियान
हल्का सा कोहरा था
जब रोशनी हुई
परवाज़ हुए परिंदे
एक झुण्ड में  उड़ते
अर्श पर कुछ लिखते
फ़ौरन ही मिटा देते
फिर आहिस्ता आहिस्ता
एक शोर उमड़ पड़ा
देखते ही देखते हरकत में शहर था
हर कोई बोलता था
सुनता कोई नहीं था
शाम होते होते
सब पस्त  हो गए
बेजान दिल को लेकर
अब घर को लौटते हैं
सुबह होती है, शाम होती है
दरमियाँ  में इनके
यादों को कुछ नहीं है


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