दरअसल यज्ञ एक बहत ही विचित्र आयोजन है जिस से हम ईश्वर के विचार की उत्पत्ति का आभास पाते हैं. हमारी दो अत्यन्त ही स्वाभावित प्रवृत्ति है स्वयं को सुरक्षित रखना और सौदा करना. अगर इन दोनों प्रवृत्तियों को लेकर प्रक्षेपण करें तो हमें पायेंगे की किस प्रकार ईश्वर के विचार का सूत्रपात हुआ. हिन्दुओं का आयोजन यज्ञ एक बहुत ही सटीक उदाहरण है जिस के द्वारा इस विचार की उत्पत्ति की व्याख्या आसानी से की जा सकती है. पहले यह स्वीकार लें के यज्ञ आयोजन का केन्द्र बलि है.
जब से मनुष्य ने औज़ारों का इस्तेमाल करना सीखा वह अपने मुख्य प्रतिद्वंदी यानी ऊँचे दर्जे के मांसभक्षियों से आसानी से निजात पा गया लेकिन आकस्मिक और अबोध प्राकृतिक आपदाओं जैसे बिजली का गिरना अथवा बाढ़ इत्यादि द्वारा होने वाली मृत्यु से लड़ने का उन्हें कोई उपाय न सूझा. किंतु यह अनुमान लगाने में उन्हें कोई दिक्कत शायद न पेश आई होगे की ये अदृश्य शक्ति भी अन्य जीवों की तरह जीवन का क्षय भक्षण के लिए ही करती हैं, लिहाज़ा अपने स्वाभाविक प्रकृति के अनुरूप उन्होंने सौदा किया होगा, स्वयं ही जीवन उपहार में देना. अब चूंके प्राकृतिक आपदाओं का कोई निश्चित समय तो होता नही, निश्चय ही कभी काफ़ी वक्त तक कोई घटना न घटी हो जिस से उनका इस सौदे में यक़ीन पुख्ता हो गया होगा. और जब ऐसा न हुआ तो कबीलाई मुख्या अथवा उसके सलाहाकार ने अनुमान लगाया के शायद 'शक्ति' ने बलि देखी ही नही लिहाज़ा उन्होंने आग जलाई होगी और शोर किया होगा ताके 'शक्ति' बलि देख ले. बावज़ूद इसके भी अगर घटना चक्र चला तो शायद उन्हें लगा होगा के 'शक्ति' ने सौदा अस्वीकार कर दिया है इसलिए बड़ी जाति के जानवर की बलि दी होगी और ऐसा करते करते मनुष्य की बलि तक पंहुच गए होंगे!
इसमें कोई हैरत की बात नही के आज भी ईश्वर से डरा और उसे तुष्ट किया जाता है. अगर वह दयालु होता तो क्या किसी को उसकी परवाह होती?
Sunday, February 08, 2009
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