लामा निहायत ही तनहा था! उसने सोचा कि वह प्रगति पर है, अकेलेपन की विचित्रता से उसे अपने को तात्विक ज्ञान प्राप्त होने की अनुभूति होती थी. किन्तु सच कुछ और ही था. वह चेतन के साथ संपर्क के लिए अवचेतन से संपर्क, एक विकल्प के रूप में साध रहा था. गुफा के गहरे अंत में उभरी एक चट्टान एक बुद्धिमान बूढ़े आदमी का आभास देती थी जिससे वह घंटों मूक भाषा में बातें करता था. कबूतरों का एक जोड़ा रोज़ ही वहाँ आता था जो के उसके द्वारा छोड़े कंद-मूल के टुकड़ों को खा कर चला जाता. कबूतरों का आना उसके लिए संतुष्टि का सबब था जिसका उसे बेसब्री से इंतज़ार रहता.
कठिन अनुशासन ने उसे शरीर का तापमान नियंत्रित करने में सफल बना दिया था और तत्वों के साथ संतुलन स्थापित करने का सामर्थ्य भी. वह अंधेरे में और उजाले में भी सामान रूप से सत्चितानंद स्थिति में था. साधारण मनुष्यों के विपरीत जीवनचर्या से उसे अपने अस्तित्व के विघटन होने का डर जाता रहा, मात्र एक जीवन के लिए प्राकृतिक प्रतिक्रिया के स्तर तक रह गया. तर्कसंगत सोच ने उसे मृत्यु के विषय में पूरी तरह उदासीन बना दिया था. बावजूद इसके वह फिर भी कबूतरों की जोड़ी का बेसब्री से इंतज़ार करता था.
एक रोज़ वह जोड़ा नहीं आया. वह इंतजार करता रहा ... ... ... ... ..
उस दिन उसने महसूस किया वह तो सिर्फ एक साधारण नश्वर है, जिसे विविध तापमान और अकेलेपन को झेलने का सामर्थ्य है. उस रोज़ वह बुद्ध बन गया !
Wednesday, November 17, 2010
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बोधिसत्त्व : श्रावस्ती पर एक और कथा
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