Friday, February 24, 2023

उरूज़-ए-शायरी

 

एक मर्तबा एक उर्दू बज़्म में मेरी शायरी की तनक़ीद हो गयी।  एक साहिब ने फ़रमाया, साहिब आपका कलाम खारिज़-अज़ -बहर है।  उस वक़्त तो मैंने कह दिया के मेरा कलाम किसी उरूज़--फन--शायरी का पाबन्द नहीं, मैं आज़ाद नज़्म कहता हूँ। लेकिन बाद में सोचा क्या हर्ज़ है क्यों ग़ज़ल के उसूलों की मालूमात हासिल कर ली जाय। सो एक दिन दोपहर बस पकड़ कर मुहम्मद अली रोड पहुँच गया, ऑफिस में मेरे आने जाने पर कोई पाबन्दी नहीं थी और उस रोज़ कोई काम भी बाक़ी नहीं था इल्म था के हर मस्जिद में एक मदरसा होता है सो किसी मौलवी साहिब को पकड़, उर्दू के साथ साथ उरूज़--शायरी भी सीख ली जाय। दांव थोड़ा टेढ़ा  पड़ा, दरअसल मोहम्मद अली रोड गुजराती मुसलमानों का इलाक़ा है ये लोग अमूमन तिज़ारती धंधे से वाबस्ता है, खोजा कम्युनिटी और बोहरा समाज से जाने जाते हैं। बोहरा लोग दुसरे मुसलामानों से हर लिहाज़ से अलहदा हैं, इनकी पोशाक ज़्यादातर सफ़ेद होती है और एक खसूसी क़िस्म की कटोरी नुमा स्कल कैप पहनते हैं। ख़वातीन सफेद या दुसरे चटकीले रंग का बुर्क़ा पहनती हैं  काला तो हरग़िज़ नहीं और इनकी ज़बान गुजराती है। मुसलमानों में ये लोग अधिक धनी हैं और दूसरों मुसलमानों से दूर ही रहते हैं।

दोपहर की नमाज़ हो चुकी थी लोग सफ़ेद कटोरी टोपी पहने मज़े मज़े अपने अपने घर, ऑफिस, दूकान को जा रहे थे। मस्जिद के बाहर ही मैंने एक भले से दिखने वाले शख्स को पकड़ लियाकहा, भाई साहिब, मुझे उर्दू सीखनी है। वह मुझे अजूबा समझ देखता रह गया, बोला, बाबा मैं क्या कर सकता, ज़रूर सीखो।

तब मैंने कहा मस्जिद मैं मौलवी साहिब क्या उर्दू सिखा सकते हैं ?अब उसकी लाइट जली, कुछ धिक्कार भरे टोन में कहने लगा, अरे बाबा आप उधर बायकुला जाओ वहाँ यू पी वालों की मस्जिद है। वहाँ आप को उर्दू सिखाने वाला मिल जाएगा।

बायकला, जहां मैं था, वहाँ से कोई एक किमी दूर होगा और चूंके मुझे यूँ ही सडकों पर आवारा घूमना पसंद है इसलिए मैंने मेन रोड छोड़ दी और रफ्ता रफ्ता गली गली कूचा कूचा बायकला की जानिब निकल पड़ा।  जिस एरिया का ज़िक्र हुआ था वह एक बेतरतीब बसा मुस्लिम ghetto था। जहां इंसान के रहने को बुनियादी सहूलियत मयस्सर नहीं थी। हर सू ग़ुरबत का आलम लेकिन बावजूद इसके लोग जी रहे थे, स्कूल जाते बच्चे, घरों में में काम करने को जाती ख़वातीन और मर्द भी किसी किसी धंधे से जुड़े कमाधमा रहे थे। मस्जिद के आगे एक पान की दुकान भी थी। बस फिर क्या था मैं उस पान की दुकान पर पहुँच गया। जब पानवाला फुर्सत में आया तब मैंने पूछा क्या यहां उर्दू सीखने का कोई ज़रिया है। उसने मुझ पर एक गहरी निग़ाह डाली, शक्ल--सूरत देख कर सारे ज़माने की कडुवाहट और नफरत मुझ पर उढेल दी। उसकी इस नफरत भरी निगाह से मैं दिल के गहरे गोशे तक सिहर गया। बर-अक्स, बाजू में खड़े एक खस्ताहाल ब्रीफ़केस लिए और खस्ताहाल सूट पहने अधेड़ उम्र शख्स ने मुझे दिलचस्प निगाह से देखा और पूछा, आप उर्दू किस सिलसिले में सीखना चाहते हैं।   

जी, उर्दू सीखना ख़ास मक़सद नहीं लेकिन मुझे उर्दू शायरी का शौक़ है लिहाज़ा ग़ज़ल और तमाम शायरी के उसूलों से वाक़िफ़ होना चाहता हूँ।

उसने फ़ौरन ही अपना फटेहाल ब्रीफकेस खोला और एक डायरी निकाल ली, कहने लगा, वह भी ग़ज़लगोई का शाहकार है और पेज पलट कर अपने किसी ख़ास कलाम को ढूँढने लगा। हमारे दौरान होने वाली गुफ्तगू से, पानवाले की बर्ताव में मज़ीद फ़र्क़ आ गया, अब वो ताब-ओ-तेज़ नफरती अंदाज़ से जुदा एक हमदर्द वाला लहज़ा था, कहने लगा, लीजिये मौलवी साहिब आ गए हैं इनसे बात कर लीजिये, ये आप का उर्दू भी और अरबी भी सीखा देंगे। 

मौलवी साहिब बमुश्क़िल 25 बरस उम्र के रहे होंगे शायद हाल ही में इम्तिहान पास किया होगा। सफ़ेद कुर्ता और एड़ी से ऊँचा तंग पजामा, सफ़ेद टोपी और हाथ में चंद किताबें; बदहवास और परेशान से नज़र   रहे थे। पानवाले ने उन्हें  आवाज़ दी और बताया की मुझे उर्दू सीखना है। मौलवी साहिब जो अब तक अन्यमनस्क  नज़र रहे थे अब पुरजोश मेरी और मुख़ातिब हुए, कहने लगे ज़रूर सीखा देंगे। मैंने पूछा के क्या वे ग़ज़ल, रुबाई  और मुख़्तलिफ़ नज़्म से मुताल्लिक़ उरूज़ का भी इल्म रखते हैं तो उन्होंने हामी भर दी। पूछा, सब सीखने के लिए कितना वक़्त लगेगा तो वे सर खुजा कर बोले तीन महीने तो दरकार होंगे ही।  मैंने कहा, भला तीन महीने क्यों? तो कहने लगे, भाई साहिब एक महीना तो उर्दू और उरूज़ पर ही ज़ाया हो जाएगा, अरबी सीखने में ज़्यादा वक़्त लगता है।  मैंने कहा, मौलवी साहिब मुझे अरबी नहीं सीखनी, आप बस उर्दू और शायरी के तौर तरीक़े  समझा दें , महिना भर काफी होगा।  कहने लगे, अगर अरबी नहीं सीखनी तो महीना भर काफी होगा। तब मैंने उनकी फीस का ज़िक्र किया तो कहने लगे, वे 200 रु महीना अपने तालिबान से लेते हैं लेकिन आप शौक़िया उर्दू सीख रहे हैं लिहाज़ा आप से 150 रु ही लूंगा। 

यह सुन कर मैं सकते में गया। मेरे दिल में एक तीखी कसक सी उठी, दिल बैठ सा गया, ये कैसी तिलिस्मी दुनिया है, ये कैसे लोग हैं, क्या ये वाक़ई हक़ीक़त है ? नब्बे की दहाई का दौर था तो भी उस वक़्त 200 रु की कोई ख़ास क़ीमत नहीं थी। आप अंदाज़ा करें की सिनेमा का टिकट उस वक़्त 50 रु का मिलता था और ये कह रहा है 150 रु में रोज़ाना एक घंटा मुझे पढ़ायेगा! मैं अपने ज़ेहन में 1000 रु बजट ले कर चला था। मैंने कहा, नहीं मौलवी साहिब मैं आप को 300 रु दूंगा, तालिब तो कमाते नहीं है मुझे कोई रियायत की ज़रुरत नहीं। मेरी बात सुन पानवाला कहने लगा मौलवी साहिब आप चाहें तो ये 400 रु भी दे देंगे। मैंने उसकी बात अनसुनी कर दी और कहा के कहाँ आप तालीम देंगें। मौलवी साहिब कहने लगे जहां आप कहें मैं हाज़िर हो जाऊँगा। मैंने कहा मेरा घर तो गोरेगाँव में है  वह बहुत दूर है सो मुमकिन नहीं  वहाँ आप सकें सो आप ही बताएं मैं कहाँ जाऊंमौलवी साहिब ने कहा, के मैं आप के ऑफिस हाज़िर हो सकता हूँ, लेकिन मेरे लिए ये मुनासिब था और मौलवी साहिब को कोई दूसरी जगह नहीं मिली सो मामला वहीं अटक गया।

अब तक वह शरीफ आदमी जो ब्रीफ़केस लिया पास खड़ा था, हमारे दरमियान होनेवाली गुफ्तगू में कोई दखलंदाज़ी से बच रहा था लेकिन जब मामला स्टेल-मेट पर पहुँच गया तो कहने लगा, आप मेरे साथ चलिए, घंटे भर में मैं आप को ग़ज़ल की बारीक़ियों से वाक़िफ़ करा दूंगा। मैंने कहा, कहाँ ?तो कहने लगा, पास ही उसका कमरा है, पांच मिनट की दूरी पर। तो मैंने कहा, चलिए। उसने ब्रीफकेस उठाया और चल दिया और मैं ऐन उसके पीछे पीछे। मस्जिद से थोड़ा ही आगे बढे थे की उस आदमी ने मेन रोड छोड़ एक गली का रुख अख़्तियार कर लिया गली बमुश्क़िल 3 फ़ीट चौड़ी थी और उसके बीचों बीच संकरा नाला बह रहा था। दोनों तरफ टीन -टप्पर से बनी झोपड़-पट्टियां थी। ये दुनिया कोई माया नगरी लग रही थी, ऐसी जगह मैं कभी नहीं आया था। ज़ेहन के एक गोशे में ख़याल उभरा कि मैंने क्या कोई भारी ग़लती कर डाली है। आगे एक अजनबी और आजू -बाजू तिलिस्मी दुनिया। ज्यों ज्यों गली नागिन की तरह बलखाती आगे बढ़ती त्यों त्यों मेरे अंदर दहशत का ग़ुबार घर करने लगा। अगर मुझे यहां क़त्ल कर दिया गया तो किसी को कानोकान खबर होगी या अगर यहां आग लग गयी या कोई दूसरा हादसा हो जाय तो बचने का कोई रास्ता मिलेगा। दर हक़ीक़त दोनों ही मुआशरे, मुसलमानों और हिन्दुओं, के दरमियान सतह से नीचे एक तल्खी, शक़ और नफरत का अंडरकरंट है जिसकी वजह से दहशत होती है। यहां में तरह तरह के अंदेशों  में घुल रहा था और आगे वह शख्स बेपरवाह उन तंग गलियों में आगे बढ़ता जा रहा था। जैसे जैसे  हम आगे बढ़ते गए वैसे वैसे उस आदमी के मिज़ाज और अंदाज़ में मुझे तब्दीली महसूस हुई। अब वह उस कॉन्फिडेंस से आगे नहीं बढ़ रहा था, शायद अपने फैसले को दोबारा असेस कर रहा था।

आख़िरकार हम एक चौड़ी सड़क के किनारे पहुँच गए जहां जा कर वह आदमी ठिठक गया। सड़क के दूसरी तरफ भी वैसा ही झोपड़-पट्टी का संसार था जैसा हम अभी अभी लांघ कर आये थे। उसके चेहरे पर गहरी पसमांदगी और लज़्ज़ा का भाव साफ़ नज़र रहा था, गोया ग़ुरबत कोई जुर्म हो। घर ले जा कर वह अपनी अस्मत तार तार नहीं होने देना चाहता था। उसकी उलझन मैं समझ रहा था। तब उसने सामने एक टीन के दो-मंज़िले घर की तरफ इशारा कर कहा, वो ऊपरवाला मेरा कमरा है।

उसे ज़्यादा दुविधा में डालने के मक़सद से मैंने कहा, देखिये जनाब, वक़्त बहुत हो गया है, मुझे घर चलना चाहिए। आप बता दें यहां से बॉम्बे सेंट्रल स्टेशन का रास्ता किधर से है। उसने कोई एहतजाज़ नहीं किया और बोला, ये सड़क बायीं बाजू  2  मिनट में मराठा मंदिर पहुंचा देगी, सामने ही बॉम्बे सेंट्रल स्टेशन है।

 बस उसे वहीं छोड़ मैं घर चला आया।


Monday, January 11, 2021

बौद्धिक आयाम

एक बार नंदन मोहन के यायावर स्वभाव ने हठ की कि चरेख डांड विचरण किया जाय। तदर्थ दाणी (नंदन मोहन) प्रातः ही गुदड़ी में चून की रोटी और चटनी रख डान्ड की ओर प्रस्थान कर गया। शनैः शनैः प्रकृति का आनंद लेते मंथर गति से वह आगे बढ़ने लगा। जीवन से संबंधित घटनाक्रम भी बिना किसी अपवाद घटित होता रहा, जैसे पत्थर से ठोकर खा,  खरोंच आना, सुन्दर तितलियों के समूह द्वारा सम्मोहित हो जाना इत्यादि। जैसे जैसे दाणी आगे बढता गया वैसे वैसे प्रकृति में निरंतर बदलाव आता गया। उत्तरोत्तर अधिक परिपक्व वनस्पति और वन्य जन जीवन के दर्शन होने लगे। दाणी हतप्रभ था, उसे इस बात का रत्ती भर आभास न था कि वह किस काल में है, किस स्थान पर है। वह विभिन्न आशंकाओं से घिर गया, विचार करने लगा कि इस मार्ग पर चलना मूर्खता होगी? उसने मुड कर देखा,  घोर आश्चर्य ! पीछे कुछ भी नहीं था। कुछ भी नहीं अर्थात कुछ भी नहीं। अनंत व्योम मानो गज भर की दूरी में समा गया हो और विश्व अणुओं में विच्छेदित हो मात्र एक छोटे से व्यास खन्ड में समाहित हो गया हो। पीछे चलने का कोई लाभ नहीं था, चलने का आभास मात्र था किन्तु परिदृश्य में कोई बदलाव न आता था केवल चलने का अहसास था पर वह अपनी जगह से टस से मस नहीं हो रहा था।

अंततः आगे बढने के सिवाय कोई चारा नहीं था। दाणी आगे बढने लगा, पूर्व की तरह प्रकृति में बदलाव जारी रहा अर्थात निरंतर विकसित वन्य जन जीवन और वनस्पति का अवलोकन हो रहा था। अब भय की भावना भी उसके मानस से धीरे धीरे समाप्त हो रही थी। इसका कारण था पशुओं का विचित्र स्वभाव, अब वे अकारण न तो शिकार करते थे न ही मादाओं के लिए संघर्ष। एक ही स्थान पर बैठ मानो मनुष्यों की तरह समाधिस्थ हों। शाकाहारी पशु और मांसाहारी पशु एक साथ विचरण करते और आवश्यकता अनुसार शाकाहारी पशु का वध किया जाता। इसमें वधित पशु कोई प्रतिरोध अथवा अक्षोभ का प्रदर्शन नहीं करते। जैसे जैसे वह आगे बढ़ रहा था बदलाव की गति तीव्रतर होती जा रही थी। फिर उसे एक कुटिया दिखाई पडी, उसकी  प्रसन्नता का ठिकाना न था। वह तुरंत ही कुटिया में जा पहुंचा। जब दाणी ने कुटिया में झाँक कर देखा तो अचरज में पड़ गया।  अंदर टी-शर्ट और जीन्स पहने एक दाढ़ी वाला व्यक्ति था जो लैपटॉप पर ध्यान लगाए था।  उसने संकोच से पूछा, 'श्रीमान आप कौन हैं?'  

बिना उसकी तरफ देखे वह बोला, 'गलत प्रश्न दाणी ! नाम में क्या रखा है, चलो मैं वशिष्ठ हूँ।' 

'वशिष्ठ काला ?' 

वह हंसने लगा। फिर कहा, 'दाणी, तुम अचरज कर रहे मैं कौन हूँ और यहां क्या कर रहा हूँ। लेकिन मुद्दा ये नहीं की मैं यहां क्या कर रहा हूँ , मुद्दा ये है की तुम यहां क्या कर रहे हो? आज सुबह जब तुम घर से निकले तो अनायास ही तुमने समय और स्थान के आयाम विखंडित कर नए आयाम में प्रवेश कर लिया।  यूँ समझो की एक अंधा व्यक्ति, जो रंगों की कल्पना तक नहीं कर सकता था, अनायास ही दृष्टि पा कर रंगों की लीला से अचंभित हो गया हो। बौद्धिक आयाम में तुम्हारी सोच में अभूतपूर्व बदलाव आया है और शेष अज्ञान का समाधान मैं कर दूंगा।' 

'श्रीमान, पशु पक्षियों का व्यवहार क्यों बदला हुआ है ?' 

'वत्स, वेदांत में हमें जो समझाया गया है वह एक अंश तक ही ठीक है शेष निराधार है । हम बार बार जन्म तो लेते हैं और अपने कर्मानुसार अन्य योनियाँ प्राप्त करते हैं किन्तु ये ठीक नहीं है के कर्मों के संचय से हम जीवन दर जीवन उत्तरोत्तर ज्ञान लाभ कर मोक्ष की प्राप्ति करते हैं। वास्तव में साक्ष्य हमारे सामने ही हैं किन्तु हम उन्हें देख नहीं पा रहे। जन जीवन में क्रमिक विकास (Evolution) हमारे सामने है सोचो ज़रा इस विकास की परिसीमा क्या है ? जब एक गणतीय श्रंखला के पद निरंतर बढ़ते जाएँ और उसे अनंत तक जोड़ा जाय तो क्या उत्तर मिलेगा ? अनंत ! उसी तरह जीव का विकास हर अगले चरण में बेहतर होता जाता है जैसे मनुष्य वानर से बेहतर है, सोचो क्रमिक-विकास शृंखला की पराकाष्ठा क्या होगी ? मनुष्य विकास के अगले चरण क्या होगा , उसे हम देवता ही तो कहेंगे ? अंततः जीव ज्ञान से भी परे, ईश्वर से भी परे हो जाएगा, दिक्-काल से परे परमब्रह्म में लीन हो जायेगा। बौद्धिक आयाम में यही झलक तो तुम्हे दिखाई पड़ी ! 

वस्तुतः हर प्राणी का चरमोत्कर्ष मोक्ष है। इसमें निश्चित ही समय लगेगा किन्तु तुम इस असंभव से जान पडने वाले अंतराल से अभिभूत मत हो ओ। समय का आभास मायावी है मात्र बीतने की दिशा के विपरीत अथवा तीव्र गति से चलना संभव है।' 

'तो, श्रीमान आप दिक्-काल जयी हैं।'

'अवश्य, मैं वशिष्ठ हूँ।' 

अहंकार

 कृष्ण गन्धवह बड़ा हुआ और पिता की आज्ञा ले कर देशाटन  को निकल गया।  मेधावी तो था ही शास्त्रार्थ में दिग्गजों को पराजित कर, अभिमान से भरा  वह ...