Sunday, July 06, 2025

Dawn

By Kali Hawa


I heard a Bird
In its rhythmic chatter
Stitching the silence.
This morning, I saw dew
Still incomplete
Its silver spilling over
To usher dawn.

Saturday, February 22, 2025

दैत्य का उद्धार

 प्राचीन काल में वितस्ता नदी के तट पर ऋषिवर मुंडकेश्वर, 5000 गाय सहित, एक  विशाल आश्रम में रहते थे । अनेक ऋषि और सैकड़ों विद्यार्थी वहां  रह कर तप और अध्ययन करते थे।  प्रायः यज्ञ का आयोजन कर इंद्र एवं अन्य देवों को प्रसन्न किया जाता था। देवों की प्रसन्नतावश सब सुचारु चल रहा था न अत्यधिक वर्ष होती थी न ही सरिता में आप्लव होता न अकाल पड़ता था। 5000 गौओं के कारण  दूध और धृत की कमी न थी।  सब कुछ ठीक चल रहा थी की आपदा आ पहुंची।  पास के जंगल में तमवात नाम का दैत्य आ पहुंचा और यज्ञ में विघ्न डालने लगा , गौवें उठा कर ले जाता।  जब तमवात का उत्पात सीमा से बहार हो गया तब ऋषिवर मुन्डेक्श्वर ने "रज्जुप्रग्रहम" यज्ञ  का आयोजन किया। दो दिवस तक प्रचंड मंत्रोचारण उपरान्त अश्विनीकुमारों  को  प्रकट होना पड़ा। तब ऋषिवर मुंडकेश्वर ने 1000 नामों से अश्विनों की वंदना की जिससे वे प्रसन्न हुए और वर मांगने को कहा।  ऋषिवर ने तमवात को रस्सी से जकड कर प्रस्तुत करने को कहा।  तथास्तु कह अश्विन अंतर्ध्यान हो गए।     

कुछ ही क्षणों में महाकाय तमवात यज्ञ शाला के पास पड़ा था।  तब बंधन जकड़े तमवात ने कहा, 'मुनिवर आप महान तपस्वी हो, यज्ञ के ताप से मैं यहां बंधन में जकड़ा हुआ हूँ, मेरा क्या दोष है और आप मेरा क्या करेंगे?

मुनिवर, 'तमवात, तुमने अकारण ही यहां यज्ञ में विघ्न डाला और गौओं को उठा कर ले गए , ये तुम्हारा अपराध है।  तुम्हें श्राप देकर मैं तुम्हें व्याघ्र योनि में डाल दूंगा। '

'परन्तु मुनिवर मैं दैत्य हूँ, उत्पात करना मेरा स्वाभाव है और गौ मेरा भोजन, ये कैसा अपराध? अतिरिक्त, अगर आप मुझे श्राप  देंगे तो आपके दस वर्षों के तप की ऊर्जा का ह्रास होगा और आप इस आश्रम में सभी ऋषियों के गुरु नहीं रह पाएंगे।'

'क्यों न हम शास्त्रार्थ करें, पराजित होने पर मैं स्वयं इस अरण्य से चला जाऊँगा।'
'तुम दैत्य हो तुमसे शास्त्रार्थ वर्जित है। '
'आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः' यह वेद वाक्य है इस दृष्टि से मेरे दैत्य होने पर भी आप मुझ से ज्ञान अर्जित कर सकते हैं अतः मुझ से शास्त्रार्थ पूर्णतः शास्त्र संगत है।'   
अस्तु  ! मैं तुमसे शास्त्रार्थ को प्रस्तुत हूँ।       

मुनिवर की स्वीकृति होते ही, छात्रों ने यज्ञशाला के समीप की भूमि साफ़ कर दी और जल का छिड़काव किया। इसके मध्य एक चौकोर वेदी बनाई गई, फूलों से सज्जित कर दीप प्रज्ज्वलित कर दिया। धुप की सुगंध वातावरण में आच्छादित हो गई।  दो मृगछाला  वेदी के दोनों तरफ बिछा दी गई। पांच वरिष्ठ ऋषि निर्णायक की भूमिका में तत्पर हो मृगछालाओं के सम्मुख बैठ गए। मुनिवर मुंडकेश्वर ने भी एक तरफ बिछी मृच्छाला पर आसान ग्रहण किया। तब उन्होंने अपने सबसे उद्धण्ड शिष्य भास्कर से कहा, 'आदरणीय तमवात के पैर धोएं।  

भास्कर, 'परन्तु, मुनिवर ये तो दैत्य है ?'
मुनिवर, 'नहीं, शास्त्रार्थ को प्रस्तुत व्यक्ति पूजनीय है। '

मनमसोस कर  उद्धण्ड भास्कर को तमवाप के पैर धोने पड़े। तब मुनिवर ने एक अन्य अनाज्ञाकारी शिष्य, आनंदकर को तमवाप को चन्दन का तिलक लगाने को कहा।  कर्मकांडी और दकियानूसी आनंदकर ने भी नाकभौं सिकोड़ कर तमवाप को चन्दन का तिलक लेप किया। मुनिवर ने आनंदकर को फटकार लगायी, अनिच्छा से कार्य नहीं करना चाहिए। 

निर्णायक मंडली ने निश्चय किया चूँकि, तमवाप ने शास्त्रार्थ की चुनौती दी अतः, प्रश्न का प्रारम्भ मुनिवर मुंडकेश्वर करेंगे। 

शास्त्रार्थ :

मुंडकेश्वर : "अथातो ब्रह्म जिज्ञासा" बल किले ब्वाल ?
तमवाप :  स्या सूत्र बादरायण रचित ब्रह्मसूत्र का पहला सूत्र है। शब्दार्थ तो 'अब हम ब्रह्म जिज्ञासा करें' परन्तु गूढ़ अर्थ; ब्रह्म पूर्ण है, समस्त है, सर्व व्याप्त है, निर्गुण है हर आयाम , हर वस्तु, हर जीव का मूल है स्रोत है  अतः उसकी जिज्ञासा अनिवार्य है। 
मुंडकेश्वर : साधु !साधु !

तमवाप :  विष्णु क्या है , जीवात्मा या परमात्मा ?
मुंडकेश्वर : विष्णु परमेश्वर है, जगत का संरक्षक, पालन कर्ता  है।   
तमवाप : परन्तु जीवात्मा है कि परमात्मा है ?
मुंडकेश्वर : विष्णु स्वयं ब्रह्म है, परमात्मा है।  
तमवाप : अगर विष्णु स्वयं ब्रह्म है तो उस दृष्टि से हम सभी ब्रह्म हैं "अहं ब्रह्मास्मि" विष्णु में विशेष क्या है ।  वह भी कर्म करता है, दस्युओं का वध करता है,  भक्तों, ऋषियों  को संरक्षण प्रदान करता है। ये कर्म है और इसका कर्मफल होगा तो कर्मफल का भोग कौन करेगा। 
मुंडकेश्वर :  ईश्वर कर्मफल से परे है वह पूर्ण ब्रह्म है । 
तमवाप :  अगर ईश्वर पूर्ण ब्रह्म है तो वह मोक्ष प्राप्त है फिर सगुण क्यों, कर्म क्यों ? कर्म वो करता है जो किसी योनि में जीव है , ईश्वर की क्या योनि है ? कर्म करने वाला वह पूर्ण ब्रह्म नहीं हो सकता। 
मुंडकेश्वर :   ईश्वर की कोई योनि नहीं , मैं बार बार कह  रहा हूँ की वह स्वयं ब्रह्म है। 
तमवाप : आप जो कह रहे हैं उसमें घोर विरोधाभास है। पूर्ण ब्रह्म मोक्ष से प्राप्त होता है।  मोक्ष के पर्यन्त अहम का नाश हो जाता है, जीव भावहीन, मोहहीन, विरक्त महाब्रह्म में विलीन हो जाता है। कर्म के लिया माया मोह भाव आवश्यक है अतः विष्णु पूर्ण ब्रह्म नहीं है।  फिर वह किस योनि में स्थापित  है?
मुंडकेश्वर :  मुझे नहीं पता। 

यह कह कर मुंडकेश्वर ने दीपक बुझा अपनी हार स्वीकार कर ली। 

अब निर्णायकगण ऋषि परामर्श करने लगे।  कुछ समय पश्चात वरिष्ठ निर्णायक मुनि ने तमवात की तरफ दृष्टि डाली, कहने लगे, 'हे तमवात, पूर्व में श्रावस्ती नगर में ममता नाम की परम विदुषी का निवास था।  किसी भी समस्या का तर्कसंगत समाधान  उसके पास था।  नगर के धनपति,  राजनितिक अधिकारी, कोतवाल और साधारण नागरिक, सभी उसके पास परामर्श के लिए आते थे।  उसकी ख्याति नगर के पर्यन्त भी फैली हुई थी।  एक बार वेद तिमिरम नाम का श्रेष्ठि उसके पास आया और कहने लगा, देवी आप परम विद्वान हैं अतः यदि मैं आपके प्रश्न का उत्तर न दे सका तो आपको 10 स्वर्ण मुद्रा दूंगा परन्तु यदि आप मेरे प्रश्न का उत्तर न दे सकी तो आपको मुझे 100 स्वर्ण मुद्रा देनी होंगी।  देवी ममता इसके लिए सहर्ष मान गयी।  तब श्रेष्ठि ने प्रश्न किया , 'ऐसा कौन सा जीव है जो तीन पैर से चलता है, उसके दो मुख हैं और एक छलांग में हिमालय चढ़ जाता है ?
देवी ममता हतप्रभ रह गयी, बहुत विचार बाद उसने 100 स्वर्ण मुद्रा वेद तिमिरम को दे दी।  फिर पूछा, ऐसा कौन सा जीव है ?
अब बेहया वेद ने अपनी झोली से 10 स्वर्ण मुद्रा निकाल कर  देवी ममता को प्रस्तुत कर दी और कहा मुझे भी नहीं पता और अपनी राह चला गया। 

तमवात, हमारा निर्णय है के यदि तुमने अपने प्रश्न का तर्कसंगत और संतोषजनक उत्तर दिया नहीं दिया तो तुम्हें शास्त्रार्थ का विजेता नहीं घोसित किया जाएगा। 

तमवात : अवश्य मुनिवर। आपकी आशंका निराधार नहीं।  मैं पूरी चेष्टा करूंगा की मेरा उत्तर आप लोगों को संतुष्ट कर दे। अस्तु !

विष्णु कौन है? विष्णु , द्रव्यमान रहित, अमूर्त तरंगित माया हैं।  जिस तरह 'विचार' का द्रव्यमान नहीं होता, अमूर्त होता है फिर भी जीव को प्रभावित करता है उसी तरह माया भी अमूर्त है उसका स्वरुप नहीं परन्तु वह जीव को प्रभावित करती है।  माया कर्म और कर्म फल से परे है , न वह जीवात्मा है न परमात्मा है वह छलावा है, मृगमरीचिका।  विष्णु माया ही हैं। 

मुनिगण : साधु !साधु ! अंत्यंत हर्ष से हम घोषणा करते हैं के तमवात शास्त्रार्थ में विजयी रहे। 

उसी समय व्योम में मेघ आंदोलित हो उठे, भीषण गड़गड़ाहट से चपला चमत्कृत करने लगी और फिर आकाशवाणी हुई ,

"तमवात , तुम श्राप मुक्त हो गए हो , अपने मूल रूप काली हवा को प्राप्त हो जाओगे। "

उसी क्षण तमवात में परिवर्तन हुआ , उस स्थान पर स्नीकर्स, जीन्स और टी-शर्ट पहने  टकला व्यक्ति खड़ा था।  काली हवा !             

इति कथा।









कृष्ण गन्धवह

 प्राचीन काल में  त्रिस्ता नदी के तट ऋषिवर तुंडकेतु का आश्रम था। तुंडकेतु की छत्रछाया में अनेक ऋषि और विद्यार्थी श्रमपूर्वक अध्यन और तप कर रहे थे।  कालांतर में तुंडकेतु का एक प्रतिभाशाली तेजस्वि पुत्र हुआ। ऋषिवर ने पुत्र का नाम  कृष्ण गन्धवह रखा।  पुत्र अत्यंत ही मेधावी था। चार वर्ष का होते होते उसने सभी वेदों में पारंगता प्राप्त कर ली थी; छह वर्ष होते होते वह वेदांत में भी पारंगत हो गया और शास्त्ररार्थ में अपने से कई वर्ष वरिष्ठ विद्यार्थियों और ऋषियों को परास्त करने लगा। 

सात वर्ष का होते होते आश्रम में तुंडकेतु के अतिरिक्त कोई भी  ऐसा नहीं था जो उस के साथ शास्त्ररार्थ कर सके।  अब गन्धवह सभी को 'वत्स' कह कर पुकारने लगा। पहले तो सबने इसे हंसी में टाल दिया पर जब गन्धवह अपने व्यवहार से विचलित  नहीं हुआ तो सभी आश्रम में रहने वाले ऋषियों ने तुंडकेतु से इस बात का आक्षेप लगाया कि गन्धवह उन सभी को वत्स कह कर उनकी अवहेलना करता है अपमान करता  है।  यह सुनकर तुंडकेतु चकित रह गए, गन्धवह के  व्यवहार से पीड़ित हो गए।  तब उन्होंने गन्धवह को बुलाया और अपने व्यवहार का कारन बताने को कहा।  तब गन्धवह ने कहा :

वरिष्ठः जन्मना न भवति, ज्ञानेन भवति।
ज्ञानं प्रदाता शिष्येभ्यः वरिष्ठः। 

(Seniority is not by birth but by knowledge. The one who imparts knowledge is senior)


विक्रम और वेताल

 हठी विक्रमार्क ने वृक्ष से शव उतरा, कंधे पर रख चुप चाप शमशान की तरफ चलने लगा। तब उस शव में स्थित वेताल ने कहा, 'विक्रम,  मैं तुम्हारे अदम्य साहस की प्रशंसा करता हूँ।  रास्ता लम्बा है और थकाऊ अतः थकान दूर करने की लिए तुम्हे एक कथा सुनाता हूँ। 

प्राचीन ताम्रलिप्ति में एक वणिक चंद्र बडोला रहता था। चूँकि ताम्रलिप्ति एक बड़ा समुद्र पट्टन था; जावा, सुमात्रा श्याम इत्यादि देशों से सामान से लदे बेडों का आना जान लगा रहता था  अतः उसका व्यवसाय अच्छा फलफूल रहा था।  परन्तु बडोला को द्यूत, अक्षक्रीड़ा की लत थी।  एक बार आनंद नाम का धूर्त  बडोला को नगर नर्तकी अम्बशोभा के महल ले गया जहाँ नृत्य के साथ द्यूत भी खेला जाता था।  अम्बशोभा के महल में आनंद काने ने पहले ही अपने मित्र अशोक चाकू और भास्कर बन्दूक को बुला रखा था।  तीनों ने मिल कर चंद्र बडोला को भरपूर मद्यपान कराया, जब वह होश में नहीं रहा तब उसे काली हवा के समुद्री बेड़े में फेंक दिया।  काली हवा का समुद्री बेड़ा सुमात्रा, जावा हो कर बाली जाने वाला था। इधर बेसुध बडोला, जलयान के उस खोंचे में पड़ा था जहां लाख, ताम्बे और चांदी बने हज़ारों गहने व्यापार के लिए रखे थे। उधर इन तीनों धूर्तों ने बडोला के व्यवसाय पर क़बज़ा कर लिया।  अगले दिन जब बडोला को होश आया तब वह अचंभित रह गया, अपने को लाख के बने खिलौनों और गहनों के ढेर पड़ा पा वह किंकर्तव्यविमूढ़ रह गया साथ ही डोलते लकड़ी के भंडार से उसे आभास हो गया की वह तो किसी व्यापारी बेड़े में है।  किसी तरह उसने शोर मचा कर नाविकों का ध्यान आकर्षित किया।  कपाट के खुलने पर नाविक भी अचरज में आ गए के ये कौन आगंतुक है और कैसे पोत में  आ गया।  व्यापारी काली हवा को खबर मिली के एक अनजान व्यक्ति भंडार गृह में पाया गया। पहले तो वह आगबबूला  हो उठा, फौरी तौर पर उसने कहा उस अनजान व्यक्ति को समुद्र में फेंक दिया जाय क्योंकि एक अनावश्यक व्यक्ति यात्रा में बोझ था पर फिर विचार कर उसने उस अनजान व्यक्ति को प्रस्तुत करने को कहा। बडोला प्रस्तुत होने पर काली हवा ने कहा, 'तुम कौन हो जलपोत पर कैसे? यदि तुम इसका समुचित कारण न बता सके तो तुम्हें समुद्र में फेंक देंगे। '

बडोला की सिटी पिट्टी गम हो गई, घिघियाते हुआ उसने अपने कहानी बताई फिर कहा वह इस यात्रा में जो कुछ भी उसे कार्य दिया जायेगा वह निष्ठा से करेगा और लौटने पर काली हवा को 100 स्वर्ण मुद्रा भी देगा।  

तब काली हवा अपने निजी पुरोहित, शुभाकर को बुलाया और पूछा की क्या बडोला सच बोल रहा है?

तब शुभाकर ने बडोला की हथेली देख कर कहा, 'ये निश्चित है के व्यक्ति ठग नहीं है। '

तत्पश्चात काली हवा ने बडोला को रसोइये का सहायक नियुक्त कर दिया और भुज्जी काटने, भाड़ा बर्तन धोना इत्यादि का उत्तरदायित्त्व सौंप दिया।  इसके अतिरिक्त, चूँकि बडोला पढ़ लिख सकता था और हिसाब लगाना आता था अतः उसे जलपोत की लॉगबुक एंट्री करना, विभिन्न पट्टन का विवरण, व्यापर की बही वगैरह को अप टू डेट रखना वगैरह कार्य भी उसी के हवाले कर दिया। 

इधर ताम्रलिप्ति में आनंद 'काना', अशोक 'चाकू' और भास्कर 'बन्दूक' ने चंद्र बडोला के अड्डे पर धावा बोल दिया पर उन्हें वहां कुछ न मिला। एक पुस्तिका मिली जिसमें   गुप्त संकेतों में उनके लोगों के नाम थे जिनसे बडोला को पैसे वसूलने थे, मात्रा 5 मुद्राएं, कुछ सौ कौड़ियां और दमड़ी मिली।  इन तीनों ग्याडूओं को व्यापार का कुछ भी ज्ञान न था अतः अड्डे में पड़ी सामग्री औने-पौने दामों में बेच दी।  जो पैसा मिला रात, अम्बशोभा के महल में मद्यपान और द्यूत में गँवा दिया। 'काने' ने देखा केवल तीन स्वर्ण मुद्रा बची थी उसने मटके में भरे पानी में विष घोल दिया। जब 'चाकू' और 'बन्दूक'  सुबह उठे तो रात मद्यपान के कारण dehydrated थे दोनों ने छक कर पानी पिया। देखते देखते 'चाकू' और 'बन्दूक' ने गाला पकड़ लिया, बात समझने में देर न लगी तब 'चाकू' ने चाकू फ़ेंक कर 'काने' पर प्रहार किया साथ ही साथ  'बंदूक' ने तमंचा निशाने पर दाग़ दिया।  मृत्यु के बाद तीनों ही पिशाच योनि को प्राप्त हुए।  

उधर बडोला निष्ठापूर्वक कार्य करता रहा, बाली पहुँचने पर काली हवा ने प्रसन्न हो कर उसे १०० स्वर्ण मुद्राएं दी साथ ही सभी बचे हुए लाख, ताम्बे और चांदी के गहने उसे दे कर वहीं व्यापार करने का परामर्श दिया जिसे बडोला ने सहर्ष स्वीकार कर लिए।  परन्तु उसके ह्रदय में बदले की भावना आग की तरह सुलग  रही थी। 

दो वर्ष हुए बडोला ने मेहनत और कौशल से बाली में अच्छा व्यापर खड़ा कर लिया परन्तु ताम्रलिप्ति में जो हुआ उसको वह भुला न पाया। अपना प्रतिष्ठान अच्छे लाभ पर बेच कर वह लौटने को प्रस्तुत हुआ।  ताम्रलिप्ति लौटने पर वह अच्चम्भित रह गया।  उसके पूर्व में व्यवस्थित व्यापार का भट्टा बैठा था,  भवन जहाँ से उसका व्यापार चलता था, खंडहर बना हुआ था परन्तु सबसे दुःखदायी दृश्य  भवन के सामने बरगद वृक्ष के नीचे उसने देखा कि उसकी पत्नी , कलिण मीनाक्षी देवी और बेटी भीख मांग रहे थे।  वह क्रोधित हो उठा और कलिण मीनाक्षी को फटकार लगाई के वह भीख क्यों मांग रही है। उसने 1000 स्वर्ण मुद्राएं उसी बरगद के नीचे एक कलश में भर गाड़ रखी थी और ये बात  कलिण मीनाक्षी को कई बार बताई थी।  कलिण मीनाक्षी भी तैश में आ गई और कहने लगी। अचानक ही उसके लापता होने से वह किंकजर्तव्यविमूढ़ हो गई थी, जो कुछ घर में था उससे जितने दिन चल सका चला फिर भीख के अतिरिक्त कोई गुज़ारा न था।  जो हुआ सो हुआ, कह बडोला ने फिर से भवन की मरम्मत करवाई और अपना पुराना व्यापार फिर से खड़ा कर लिया।  इस बात की उसे घोर निराशा थी के वे तीनों आतताई मृत्यु के ग्रास हो चुके थे जिनसे बदला लेने की भावना उसके ह्रदय में प्रज्ज्वलित थी।  

कुछ दिन उपरांत नयी समस्या खड़ी हो गई उसके निवास पर प्रेतों का उत्पात प्रारम्भ हो गया। बर्तन डोलने लगते, चारपाई अपनी जगह से दूसरी जगह मिलती, भात डोंगे से बहार भूमि पर गिरा मिलता। बडोला परिवार परेशान हो गया। तब उसने ओझा वेद 'निर्भगी' को बुलाया और समस्या का निदान करने की उपाय सुझाने को कहा। 'निर्भगी' ने झाड़ू, छिपकली, चमगादड़ और शमशान की राख लाने को कहा। बडोला ने अपने सहायक ओम 'गूंगा' को पैसे दे कर सब सामान की व्यवस्था कर दी।   'निर्भगी' ने रात 12 बजे अग्नि जला कर डोंगे में छिपकली और चमगादड़ पकाया , राख की छौंक लगाई , झाड़ू से मिक्स कर एक कुल्हड़ भर पी लिया।  फिर क्या था कुछ ही देर में  'निर्भगी' दृश्यहीन हो गया।  कोलाहल होने लगा, अदृश्य जगत में थप्पड़, चांटे के आवाज़ें गूँज रही थी। फिर सब शांत हो गया।  कुछ ही देर बाद  'निर्भगी' मूर्छित अवस्था में वहां दृश्यगत हुआ।  होश में आने पर उसने बताया कि बडोला निवास पर 'काना', 'चाक़ू' और 'बन्दूक' पिशाचों का प्रकोप है।  वे तीनों ही पिशाच योनि में तब तक रहेंगे जब तक उनका विधिवत दाह संस्कार न होगा।  

यह कह कर वेताल रुक गया, कहने लगा, 'विक्रमार्क बडोला की दुविधा देखो, एक तरफ वह इन तीनों दुष्टात्माओं को दण्डित करना चाहता है दूसरी तरफ स्वयं एवं परिवार की शांति , उसे इन दोनों अवस्थाओं में से एक को चुनना है? तुम बताओ कौन सा मार्ग तर्कसंगत है।  यदि जानते हुए भी तुम उत्तर न दिया तो तेरे मुंड के टुकड़े टुकड़े हो जायेंगे।  


Friday, June 07, 2024

बोधिसत्त्व : श्रावस्ती पर एक और कथा

 प्राचीन नगर श्रावस्ती वाणिज्य का प्रमुख केंद्र था, हर तरह कि वस्तुओं के बाजार (हिन्दी शब्द क्या है- हाट ?) थे, श्रमणों, व्यापारियों, कलाकारों, विचारकों इत्यादि का आना जाना लगा रहता था। नृत्य, संगीत की सभाएं और दर्शन पर वाद-विवाद होते रहते थे। पश्चिम दिशा से आने वालों को नगर के प्रवेश से पहले एक गहन जंगल पार करना पड़ता था जहां हिंसक जानवर और डाकुओं का भय रहता था। नगर में काली हवा नाम का अकिंचन व्यक्ति रहता था । दरिद्रता से काली हवा का संसार से मोहभंग हो गया अतएव नगर से उक्ता कर वह वानप्रस्थ के लिए तत्पर हो गया। कपाल के केश और दाढ़ी बढ़ जाने से वह किसी मुनिवर कि तरह प्रतीत होते थे। एक पोटली में कुछ अति आवश्यक वस्तुएं, ईश्वर की सूक्ष्म मूर्ति, अगरबत्ती इत्यादि लेकर वह पश्चिम दिशा को प्रस्थान कर गए। 

नगर प्राचीर पर्यंत ही जंगल प्रारंभ हो गया। ज्यों ज्यों वह बढ़ते गए जंगल गहन होता गया। साँझ होने तक वे थक कर निढाल हो गया परंतु प्रसन्नता कि बात थी के उन्हें वहाँ एक कल कल निरझर जल से बहता नाला दिखा और पास ही विशाल वृक्ष। आस पास हर प्रकार के जंगली फलों के वृक्ष थे साथ ही काली हवा को जड़ी बूटी का भी ज्ञान था अतः यह स्थान ध्यान के लिए उपयुक्त है सोच कर उन्होंने विचार किया यहीं रुक जाता हूँ । 

इस बात से पूर्णतः अनजान के यह विशाल तरु एक विस्तृत वानर परिवार का आवास है, उसने तने के समीप एक भूभाग को साफ किया और वहीं चादर बिछा कर सो गया। वानरों का मुखिया, सुमंत नाम का बलिष्ठ वानर था, सुमंत ही बोधिसत्त्व था। वानर स्वभाव से ही चंचल होते हैं अतः उस वृक्ष के नीचे एक सर्वथा अपरिचित व्यक्ति को देख अचरज में पड़ गए। प्रातः होते ही उन्होंने काली हवा पर अधखाए फल, गुठलियाँ फेंकना प्रारंभ कर दिया। काली हवा ने अपने ऊपर गिरती गुठलियाँ इत्यादि देख कर चहुं ओर दृष्टि डाली, वानरों को देख अपनी परिस्थिति की नाजुकता का एहसास हुआ। उसने सोच ये वानर कुछ देर शरारत करेंगे फिर अपने रास्ते चल देंगें। अतः वानरों पर अधिक समय नष्ट करना मूर्खता होगी सोच कर उन्हें अनदेखा करने का विचार किया। इस तरह कुछ दिन बीत गया, वह सुबह उठ कर प्रतिदिन नित्य क्रिया से निपट कर स्नान करता, कंद मूल ढूंढ कर क्षुधा शांत करता और ध्यान पर बैठ जाता। उधर वानरों को उसका अपने निवास का अतिक्रमण बिल्कुल भी पसंद नहीं आया उन्हें विचार था कि यह साधु एक दो दिन बाद चला जाएगा लेकिन जब नहीं गया तो उनका उत्पात और बढ़ गया। सुमंत ने अपने साथियों को समझने कि कोशिश की कि साधु को अपने हाल पर छोड़ दो, उसके वहाँ रहने से वानरों को कुछ भी अंतर नहीं पड़ता, लेकिन वह जानता था उसका परामर्श व्यर्थ है, वह वानरों का स्वभाव नहीं बदल सकता। सप्ताह भर बाद टकराव कि स्थति या गई, काली हवा समझ गया के ये वानर जाने वाले नहीं और वानरों का उसे निष्कासित करने निश्चय भी नहीं डिगा। उधर सुमंत किसी अनहोनी के संशय में पड़ गया। अगली सुबह काली हवा ने ध्यान लगाने का विचार त्याग दिया तभी उसे एक उपाय सूझा, वह जंगल से कुछ पत्तियां, जड़ी और फूल लेकर लौटा, जड़ी पीस कर उसने लाल रंग बनाया, ईश्वर कि मूर्ति स्थापित कर चारों तरफ लाल रंग कि रंगोली बनाई, फूल मूर्ति पर चढ़ाए, पत्ते अपने जल भरे लोटे में डाल दिए। सभी वानर उसका यह नया क्रिया कलाप अचरज से देख रहे थे। उसने अगर बत्ती जलाई, उसकी सुगंध चारों दिशा फैल गई। अब वह जोर जोर से अगड़म बगड़म मंत्र पढ़ने लगा। हवा में एक तनाव कि स्थति पैदा हो गई, वानर किसी गंभीर संभावना के डर शांत हो गए। जब वह संतुष्ट हो गया कि समुचित तनाव पैदा हो गया है, तब उसने मूर्ति के सामने रखी लकड़ी उठाई उसका छोर लाल रंग से निपोड़ दिया और खड़ा हो गया । लकड़ी को उसने बंदूक कि तरह तान दिया और वानरों पर घूम घूम कर निशाना लगाने लगा जब लकड़ी सबसे पास के वानर पर तनी, वह रुक गया। हाथ में रखे लाल रंग को उसने पास के वानर पर फेंकते हुए, हथेली कि तीन उँगलियाँ उठाई और मेघ कि तरह गरजते हुए कहा, तीन दिन में तेरा काल निश्चित है। वानर जो अब तक स्तब्ध उसका उपक्रम देख रहे थे अब अलग अलग गुटों में बंट गए और दिनों से भिन्न, दबी उत्तेजना में बातें करने लगे लेकिन वह वानर जिसे काली हवा ने तीन दिन में काल ग्रसित होने का दावा किया था, अकेला, शांत बैठा   दिखा। सुमंत शीघ्र ही पाखंडी काली हवा का प्रपंच समझ गया, उसने व्यथित वानर को समझाने का अथक प्रयास किया लेकिन कोई सफलता नहीं मिली । इंगित वानर ने उसी समय खाना पीना छोड़ दिया, किसी भी क्रिया कलाप में हिस्सा नहीं लिया। उसकी दशा देख सुमंत बहुत चिंतित हो गया। अगले दिन ही वह वानर बीमार पड़ गया, उसका वज़न तेज़ी से घटने लगा। वानर अब काली हवा से दूर ही रहे कोई पास फटकने का साहस न कर सका। 

दूसरे दिन सुमंत काली हवा के सामने बैठ गया, कहने लगा, ‘हे काली हवा, मेरा नाम सुमंत है और मैं इन वानरों का अधिपति हूँ। मैं जानता हूँ जो तुमने किया वह पूर्णतः ढोंग था लेकिन ये भी ठीक है के वानरों का तुम पर उत्पात भी अनुचित था। अब जब, वानर तुम से दूर रहते हैं अतः तुमसे आग्रह है के उस वानर के प्राण न लो।‘

काली हवा: हे सुमंत, तुम ज्ञानी प्रतीत होते हो क्यों नहीं उस वानर को समझाते कि जो मैंने किया वह ढोंग था?

सुमंत : इसके दो कारण हैं। पहला तो ये कि अगर वह वानर इस बात से आश्वस्त हो जाए कि तुम्हारा किया आयोजन ढोंग था तो वानर फिर से उत्पात शुरू कर देंगे और मैं नहीं चाहता हमारे बीच कोई टकराव रहे, दूसरा कारण है कि उस वानर को आश्वस्त करना संभव नहीं । मेरा अनुग्रह  है के तुम फिर उसी तरह का चकाचौंध करने वाला तंत्र करो और दिखाओ के तुमने अपना श्राप वापस ले लिया है नहीं तो उस वानर कि मृत्यु निश्चित  है। 

काली हवा: सुमंत तुम सचमुच परम ज्ञानी हो, अत्यंत ही सुलझे मानस के स्वामी। उस वानर से कहो कल प्रातः ही मैं उसका श्राप वापस ले लूँगा।

अगले दिन सुबह सुमंत, श्रापित वानर को लेकर काली हवा के समक्ष प्रस्तुत हो गया तब काली हवा ने उस वानर से कहा, तुम नदी में स्नान करो फिर जंगल से एक सफेद पुष्प लेकर आओ, ध्यान रहे पुष्प पूर्ण हो कहीं कोई दोष न हो। तब काली हवा ने पहले कि तरह मूर्ति स्थापित की, फूलों से सज्जित कि और आम्र पत्र लोटे में भरे जल में डूबा दिए, अगरबत्ती जल दी। वानर के समक्ष वह वही अगड़म बगड़म मंत्र ज़ोरों से पढ़ने लगा, बार बार आम्र पत्रों से जल वानर पर छिड़कने लगा। अंततः  लकड़ी का छोर लाल रंग में लपोड़ा और इस बार लकड़ी की दिशा अपनी तरफ कर मुट्ठी भींच अपनी तरफ खींचते मानो किसी अदृश्य अस्त्र को खींच रहा हो, चिंघाड़ा , "दत्तः शापः प्रत्यर्पितो भवेत्" । फिर उसने मुंह से लाल रंग उगल दिया और जमीन पर मूर्छित गिर गया। सुमंत ने उसके मुख पर लोटे का जल छिड़क उसे उठाया, अब काली हवा प्रसन्न मुख से बोल, ‘जा अब तेरा कुछ नहीं होगा।‘ इस इस अतिरंजित स्वांग का समुचित प्रभाव पड़ा, श्रापित वानर अब आश्वस्त दिखा, एक राहत का असर मुख पर साफ दिखा। 

वहाँ से निकाल कर सुमंत ने अपने समूह से कहा, जब तक ये साधु यहाँ है हमें कहीं और चले जाना चाहिए, न काहू से दोस्ती न काहू से बैर।   

वानर प्रकरण इति !!



Tuesday, June 04, 2024

एक अप्रत्याशित याद

 इंसान बाज़-औक़ात शर्मिंदा हो जाता है ऐसी बातों से जिसमें उसका कोई कसूर नहीं होता मसलन लोग अपनी ग़रीबी पर ही शर्मिंदा महसूस करते हैं जब कोई अमीर दोस्त या रिस्तेदार उनसे मिलने उसके घर चले आते हैं। वह हर कोशिश करता है घर को चमकाने में, उन चीज़ों को ढँक देने में जो उसकी पसमांदगी को नुमाया करे। ऐसा क्यों होता है, कुजाण !

जब मैं योग करता हूँ तो वह तीन मुखतालिफ़ स्टेजेस में होता है पहला हिस्सा जो के 15 से 18 मिनट का होता है, महज़ सांस लेना और छोड़ना, इस स्टेज में और कुछ भी नहीं होता, दिमाग़ ज़्यादा बड़ी संभावना के लिए तैयार होता है। दूसरा हिस्सा भी 15 से 17 मिनट का होता है और इसमें सांस लेने में तन्मयता आ जाती है और मानस गहनता में डोलता महसूस होता है अंतिम हिस्सा दूसरे हिस्से कि तरह 15 मिनट का ही होता है लेकिन कभी कभी आखरी 5 मिनट अवचेतन कि स्थिति में पहुँच जाता हूँ। आज सब करा-धरा व्यर्थ गया। तीसरी अवस्था के मध्य एक पुरानी याद उभर आई, ऐसी याद जो अपने ही प्रति ग्लानि पैदा करती है। वाक़िया बहुत पुराना है कॉलेज के वक़्त का और किसी सिलसिले में मुझे दिल्ली जाना पड़ा। उस वक़्त दिल्ली में बस एक ही ठिकाना था, स्वर्गीय चाचाजी का लोदी रोड वाला घर, 14/768; इत्तेफाक़न उस वक़्त चाचा और चाची कहीं बाहर गए हुए थे और मुझे मरहूम गुड्डू ( ब्रजेश काला) और प्रभाकर वहाँ मिले । शाम के वक़्त गुड्डू ने फरमाइश कि के बकरे गोश्त  बनाया जाए मैंने फौरन हाँ कर दी और चूंकि मैं हॉस्टल में रहता था इसलिए मेरे पास पैसे भी रहते थे। खन्ना मार्केट के आखरी छोर पर मुझे बताया गया के गोश्त मिलता है। मैं झोला लेकर निकल पड़ा।  इससे पहले मैंने गोश्त नहीं खरीद था सो जब दुकानवाले ने मुझे मांस काट कर दिया तो मुझे समझ नहीं आया के ये लाल/भूरे हिस्से क्यों दे रहा है जबकि सफेद हिस्सा खोये कि तरह दिल पज़ीर लग रहा था। मैंने कहा के सफेद वाला ही हिस्सा दो, उसने मुझे ताज्जुब से देखा और खुशी खुशी मांस हटा कर पूरा सफेदऐ वो तो आगे है  माल पकड़ा दिया। घर आ कर जब मीट गुड्डू के हवाले लिया तो उसका मुंह उतर गया, कहने लगा ये क्या ले आए इसमें तो मीट है ही नहीं सिर्फ चर्बी है। फिर दोषारोपण का दौर चला जिसमें मरहूम सर प्रभाकर ने जम कर चटकारे लिए, ‘बिंड़ी चकडैत’ जैसे शब्द हवा में उछले। बहरहाल जो क़िस्से में मीट है वह तो आगे है।

गुड्डू महाशय का उतरा मुंह देख कर मैंने पहल की कि और मीट ले आते हैं लेकिन मैंने उसी दुकान जाने से साफ मना कर दिया (वहाँ मैं क्या मुंह लेकर जाता?)। गुड्डू ने कहा एक दुकान और है जोरबाग़। मैंने कहा चलो। लेकिन पहले जोरबाग़ कि बात हो जाए । घर से पत्थर फेंकने कि दूरी पर ही ये दिल्ली का अप्टाउन इलाक़ा है, अमीरों कि बस्ती, यहाँ रहने को दड़बे नहीं, आलीशान कोठियाँ हैं और ज़ाहिर सी बात है जो दुकानें हैं वो भी उसी शक्ल में। गुड्डू ने दुकान ज़रूर देखी थी पर गया कभी नहीं था, वहाँ जा कर मुझे इशारा किया के वो दुकान है, मैंने कहा, ‘चलो’। उसने साफ इनकार कर दिया। चूंकि हमारे कॉलेज में भी शीशे के façade वाली बड़ी बड़ी imposing इमारतें थीं लिहाज मुझे ऐसी chic, मॉडर्न बिल्डिंग intimidate नहीं करती थी। लेकिन कॉलेज कि बात और है, यहाँ मामला दूसरा था। मैंने हवाई चप्पल पहनी थी और साधारण बेल-बाटम पेंट-कमीज़ जो उस दौर में अमूमन मिडल क्लास की कैजुअल पोशाक हुआ करती थी । दुकान एयर-कन्डिशंड थी, ग्लास के रैक्स में तरह तरह कि मीट से सजी प्लेटें थीं, दो अभिजात्य वर्ग कि मोहतरमा भी वहाँ मौजूद थी एक कोने में बतिया रहीं थी और खानसामा जैसी सफेद टोपी पहने और सफेद ही लिबास में दुकानदार या उसका मुलाज़िम इन racks के पीछे खड़ा था। मेरे अंदर आते ही मानो फ़ज़ा में मौजूद तवाजुम (equilibrium) बिखर गया, दोनों मोहतरमा ने यकायक ही बातचीत आधे में रोक मेरे तरफ रुख किया और इस तरह देखा जैसे मैं सर्कस से निकला कोई जोकर हूँ वही रैवय्या दूकान के मुलाज़िम का भी था।  मैंने सब को नज़रअंदाज़ कर उस खानसामा टोपी वाले से कहा, क्या मटन है ?

उसने सर हिला कर मना कर दिया, मैंने फिर पूछा, मटन , गोश्त? उसने फिर मना कर दिया। अब मुझे अहसास हुआ कुछ गड़बड़ है, वो मुझे नज़र-अंदाज़ कर रहा है, कोई तवज्जो नहीं दे रहा है। मैं उलटे पाँव लौट आया।  मुझे अब गुड्डू पर भी गुस्सा आ रहा था और अपने आप पर भी। उसने पूछा क्या हुआ मैंने बेरुखी से कहा, उसके पास नहीं है।

कभी कभी इस तरह की यादें दिल में खटास पैदा कर देती हैं, ज़ेहन में ख़याल लूप की तरह बार बार आता है मुझे ऐसा करना चाहिए था वैसा करना चाहिए था। उस रोज़ भी योग के दौरान जब ये याद उभर आयी तो बेचैन हो गया, ग्लानि से भर गया। क्यों नहीं मैंने अंग्रेजी झाड़ी (उस वक़्त अंग्रेज़ी इस तरह कि नहीं थी) और उन मोहतरमा के पास जा कर कहा, “Isn’t staring considered rude?”       

Wednesday, May 22, 2024

ख़ा'ब - 2

 मेरे हाथ में एक पारदर्शी कांच का चौकोर बॉक्स था और मैं सड़क के किनारे खड़ा था। कोई 40 गज पर चौराहा था, जिस तरफ मैं खड़ा था उसी तरफ चौराहे के ठीक पहले एक जर्जर मकान था । हर आने जाने वाले शख्स से मैं कहता ये बॉक्स उस जर्जर मकान तक पहुँचा दो । लेकिन वो मुझे देखते और फिर बॉक्स कि तरफ और यकायक ही खौफ से पीछे हट जाते । ये सिलसिला कुछ देर चला फिर मैंने देखा के बॉक्स में कुछ इंसानी हड्डियाँ हैं, मुझे महसूस हुआ वो मेरी ही हड्डियाँ हैं और मेरा कोई जिस्म ही नहीं । 

उस वक़्त मुझे ख़याल हुआ, 'मौत कि हक़ीक़त अगर मा'लूम हो जाए तो क्या कोई जी सकेगा ?'

    

फिर मैं उठ गया ।


Dawn

By Kali Hawa I heard a Bird In its rhythmic chatter Stitching the silence. This morning, I saw dew Still incomplete Its silver spilling over...