Sunday, August 03, 2025

अहंकार

 कृष्ण गन्धवह बड़ा हुआ और पिता की आज्ञा ले कर देशाटन  को निकल गया।  मेधावी तो था ही शास्त्रार्थ में दिग्गजों को पराजित कर, अभिमान से भरा  वह नगर नगर प्रवास करता प्राचीन नगर श्रावस्ती जा पहुँच गया। राजदरबार में उसका समुचित आदर हुआ परन्तु वहां के दयालु राजा को  उसका अहं कदापि न भाया। अपने मंत्री से उसने पूछा, 'क्या कोई उपाय है के इस परम विद्वान ऋषिपुत्र का अहंकार टूट सके। मंत्री ने कहा, राजन इस नगर में तो कोई भी कृष्ण गन्धवह की विद्धवता के सामने नहीं ठहर सकता परन्तु  नगर पर्यन्त वन के बीच बहने वाली मालिनी नदी के तट पर एक मृदुल स्वाभाव वाले वृद्ध ऋषि काली हवा  का निवास है। संभव है वे कृष्ण गन्धवह को शास्त्रार्थ में न हरा सकें परन्तु विनम्रता पाठ अवश्य पढ़ा दें। फिर क्या था राजा ने मंत्री को आदेश दिया की कोई ऐसा प्रकरण करें  के कृष्ण गन्धवह ऋषिवर काली हवा के पास जाने को आतुर हो उठे। तदनुसार मंत्री महोदय ने योजना बनाई।  अगले दिन प्रातः ही महल में कृष्ण गन्धवह के कक्ष की वातायन के नीचे प्रांगण में कुछ प्रबुद्ध नागरिकों द्वारा वाद विवाद प्रारम्भ करवा दिया की क्या कृष्ण गन्धवह , ऋषिवर काली हवा से शास्त्रार्थ कर सकेंगें।

प्रातः ही कोलाहल सुन कृष्ण गन्धवह अचरज में पड़ गए, सेवक को बुला भेजा की पता करे क्या प्रकरण है,  बल किलै बूढ़े जन भिभड़ाट करणा छन। तब सेवक ने आ कर सूचित किया के वयोवृद्धगण अटकलें लगा रहे  हैं कि सम्प्रति कृष्ण गन्धवह सभी प्रबुद्ध मुनिवर को शास्त्रार्थ में  पराजित कर चुके हैं किन्तु क्या वे मालिन नदी के तट निवास कर रहे ऋषिवर काली हवा से भी शास्त्रार्थ करेंगें। फिर क्या था, कृष्ण गन्धवह उसी क्षण राजा के समक्ष प्रस्तुत हुए और अपने प्रस्थान की सूचना  दे  डाली। राजा के आग्रह पर भी वे  रुकने को तत्पर न हुए और बताया कि  वे अब मलिन नदी तट निवास करने वाले ऋषिवर काली हवा से संवाद करेंगें। तब राजा ने  सैनिकों की एक टुकड़ी और एक अलंकृत हाथी का प्रबंध कर दिया।  अहं में डूबे कृष्ण गन्धवह को ये सम्मान भाया तो परन्तु इसे अपना अधिकार समझ उसने राजा को धन्यवाद भी नहीं किया और वन की तरफ प्रस्थान कर दिया।  इधर मंत्री ने पहले ही अपने गुप्तचर को ऋषिवर काली हवा की कुटी की ओर रवाना  कर दिया था ताकि ऋषिवर को इस आकस्मिक आरोहण से विषमित न होना पड़े। उधर जब ऋषिवर काली हवा को पता चला के महर्षि तुंडकेतु के तेजस्वी पुत्र कृष्ण गन्धवह उनसे शास्त्रार्थ के लिए आ रहे हैं तो वे अचंभित रह गए भला उनका और कृष्ण गन्धवह का क्या मुक़ाबला। परन्तु जब गुप्तचर ने राजा आनंदकर का अनुरोध बताया तब वह विचार  मग्न  हो गए फिर गहन उस्वास लेकर कहा अतिथि का सत्कार तो होना ही चाहिए ।

जब कृष्ण गन्धवह सजे धजे हाथी पर बैठ वहां पहुंचा तब काली हवा दुविधा मैं पड़  गए , इतने लोगों का सत्कार मैं कैसे कर पाउँगा।  उसने कहा, ऋषिपुत्र आपका स्वागत है। आपकी विद्धवता के चर्चे नगर नगर प्रचलित हैं अतः आपका यहाँ आना अहोभाग्य परन्तु इस लश्कर के साथ आने का प्रयोजन ? तब तुंडकेतु पुत्र कृष्ण गन्धवह ने कहा, ऋषिवर यह वन हिंसक पशुओं से भरा पड़ा है अतः राजा आनंदकर ने ये लश्कर मेरा साथ लगा दिया था।  मेरा यहाँ आने का प्रयोजन आपसे शास्त्रार्थ करना है। काली हवा, ऋषिपुत्र मैं तो यहाँ बिना किसी भय के निष्कंटक और निरापद रह रहा हूँ अतः सैनिकों की यहाँ कोई अवस्य्क्ता नहीं है अतः हमें इन सैनिकों को विदा कर देना चाहिए अतिरिक्त इतने बड़े समूह का मैं आतिथ्य भी नहीं कर पाऊँगा। कृष्ण गन्धवह, ऋषिवर आप बार बार मुझे ऋषिपुत्र कह कर मुझे लघु बना रहे हैं और मेरे पांडित्य का अपमान कर रहे हैं अतः मुझे मेरे नाम से ही सम्बोधित करें। रही बात सैनिकों की तो आप उचित कह रहे हैं , इनका यहां कोई कार्य नहीं अतः इन्हें विदा कर सकते हैं।  फिर सभी सैनिकों को आदेश कर दिया की वे नगर लौट जाएँ।  

सैनिकों के जाने पर शास्त्रार्थ को आतुर कृष्ण गन्धवह ने कहा , मुनिवर अब हम शास्त्रार्थ कर सकते हैं।  इस पर मुनिवर ने उत्तर दिया , हे कृष्ण गन्धवह, अभी तुम यात्रा कर के आये हो, थके हो अतः कुछ आराम  कर लो तब तक मैं भोजन की व्यवस्था करता हूँ।  कल प्रातः स्नान और जलपान के बाद ज्योति प्रज्वलित कर मैं  शास्त्रार्थ के लिए प्रस्तुत हो जाऊँगा। इस पर कृष्ण गन्धवह ने कोई आपत्ति नहीं जताई।  तब मुनिवर काली हवा ने विचार किया, ये व्यक्ति शास्त्रों के अध्यन में पूर्णत:  निष्णात है  अतः शास्त्रार्थ निरर्थक है यह तो पलक झपकते ही ऐसे प्रश्न करेगा जिनका उत्तर मैं न दे सकूंगा।  परन्तु जिस तरह इसने हिंसक पशुओं के डर से सैनिकों की टुकड़ी स्वीकार कर ली इस से प्रत्यक्ष है की इसमें राइ भर तप का अंश नहीं।  यह विचार करते ही मुनिवर के मानस में एक योजना का स्वरुप उत्पन्न हुआ।  इसके बाद मुनिवर निश्छंद हो अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए।  वन में उपलब्ध जड़ मूल और फलों को एकत्रित और उसमें भांगडू के पत्तों  को पीस एक उत्तेजक भोजन  की व्यवस्था कर दी।  गहन तप के आभाव में भोजन उपरांत कृष्ण गन्धवह गहरी नींद सो गया।

प्रातः मुनिवर काली हवा स्नान कर लौटे तब  कृष्ण गन्धवह को कहा की वह भी  नित्यक्रिया से निपट ले और नदी मे स्नान कर ले, तब तक वे जलपान का प्रबंध कर लेंगें।  कृष्ण गन्धवह  चपलता से उठ खड़ा हुआ और नदी तट की ओर निकल गया।   बहुत देर होने पर भी जब वह नहीं लौटा तो उसकी खोज में मुनिवर  निकल गए।  उन्हें नदी तट पर कृष्ण गन्धवह बैठा मिला वह स्नान नहीं कर पा रहा था चूँकि नदी में एक घड़ियाल था। मुनिवर को देख घड़ियाल तुरंत ही वहां से चला गया।  यह देख कृष्ण गन्धवह चकित सा रह गया।  उसने पूछा, ये घड़ियाल आप को देख यहां से कैसे भाग गया ?

मुनिवर , कुजाण।  मैं जब भी स्नान को आता हूँ यह मुझ से दूरी बनाये रखता है।  संभव है इतने वर्षों की तपस्या से यह मेरे ताप तो सह नहीं पाता। पहली बार कृष्ण गन्धवह को अनुभूति हुई की  ज्ञान के अतिरिक्त भी विधाएँ हैं और उनका जीवन में  उपयोग है ।  फिर उसने स्नान किया और दोनों कुटी की और लौट आये।  जलपान बाद मुनिवर ने कहा, अब मैं शास्त्रार्थ को प्रस्तुत हूँ।  परन्तु एक समस्या है।  आखिर हमारे बीच होने वाले शास्त्रार्थ का संचालक, मध्यस्थ  कौन   होगा ? मैं एक अनुभवी और परम विद्वान भील को जनता हूँ जो नदी के उस पार  रहता है।  चाहो तो धै लगा कर उसे बुला लूँ। गन्धवह ने कोई आपत्ति नहीं जताई।  तब मुनिवर ने मोनू भील को धै लगाई।  कुछ देर बाद मोनू लंगोटा लगाए और सिर पर पक्षियों के पंख  बांधे  वहां प्रस्तुत हुआ। मुनिवर ने उसके पाँव धोये, चन्दन लगा कर उसे आदरपूर्वक प्रज्ज्वलित दीपक के समक्ष बैठाया और गन्धवह को भी कहा की वह मोनू भील के पांव धोये , चन्दन  लगाए।  गन्धवह ने ऐसा करने से इंकार कर दिया, कहा , मैं तुंडकेतु मुनि के उच्च कुल से हूँ और यह नीच वनवासी है मैं कैसे इसके पाँव धो सकता हूँ।        

कैसी बात करते हो गन्धवह , ये व्यक्ति इस समय शास्त्रार्थ  का संचालक है हमारा मध्यस्थ अतः इस समय इसकी गरिमा देखी जाएगी न कि इसकी जात।  

तब मोनू भील ने घोर गंभीर वाणी में कहा,  "मुनिवर काली हवा, आप व्यर्थ ही इस अज्ञानी अहंकारी को अचार संहिता का पाठ पढ़ा रहे हो।  इसने शास्त्रों का ज्ञान तो अर्जित किया पर आत्मसात कदाचित ही किया है।  

क्या ChatGPT, Google और अन्य AI engine ज्ञान से अपूर्व नहीं हैं ? तो उन्हें ज्ञान की अनुभूति भी है या वे सिर्फ 0 और 1 को इधर से उधर कर संयोजित कर रहे हैं।  क्या इन AI engines को ब्रह्म ज्ञान हो गया है ?  कहने का अर्थ है की ये अबोध अहंकारी कृष्ण गन्धवह मात्र ज्ञान का बोझ उठा रहा है , तर्क वितर्क में उत्तम है परन्तु ज्ञान के चरम  बिंदु तक इसकी पहुँच है ही नहीं। ब्रह्म ज्ञान के लिए माया का पर्दा उठाना होता है और अहंकार ही माया है अन्यथा सम्पूर्ण  शास्त्रों का ज्ञान व्यर्थ है । 

कृष्ण गन्धवह, तुम पूर्व जन्मों में में पांच बार यह ज्ञान प्राप्त कर चुके हो परन्तु मोक्ष को प्राप्त नहीं  हुए क्योंकि तुमने ज्ञान आत्मसात किया ही नहीं।  मुनिवर काली हवा कोई और नहीं स्वयं तुम ही बोधिसत्व रूप में हो और अधूरे  हो। 

जाओ, ज्ञान को प्राप्त हो ज्ञान संचित मत करो।  


Saturday, February 22, 2025

दैत्य का उद्धार

 प्राचीन काल में वितस्ता नदी के तट पर ऋषिवर मुंडकेश्वर, 5000 गाय सहित, एक  विशाल आश्रम में रहते थे । अनेक ऋषि और सैकड़ों विद्यार्थी वहां  रह कर तप और अध्ययन करते थे।  प्रायः यज्ञ का आयोजन कर इंद्र एवं अन्य देवों को प्रसन्न किया जाता था। देवों की प्रसन्नतावश सब सुचारु चल रहा था न अत्यधिक वर्ष होती थी न ही सरिता में आप्लव होता न अकाल पड़ता था। 5000 गौओं के कारण  दूध और धृत की कमी न थी।  सब कुछ ठीक चल रहा थी की आपदा आ पहुंची।  पास के जंगल में तमवात नाम का दैत्य आ पहुंचा और यज्ञ में विघ्न डालने लगा , गौवें उठा कर ले जाता।  जब तमवात का उत्पात सीमा से बहार हो गया तब ऋषिवर मुन्डेक्श्वर ने "रज्जुप्रग्रहम" यज्ञ  का आयोजन किया। दो दिवस तक प्रचंड मंत्रोचारण उपरान्त अश्विनीकुमारों  को  प्रकट होना पड़ा। तब ऋषिवर मुंडकेश्वर ने 1000 नामों से अश्विनों की वंदना की जिससे वे प्रसन्न हुए और वर मांगने को कहा।  ऋषिवर ने तमवात को रस्सी से जकड कर प्रस्तुत करने को कहा।  तथास्तु कह अश्विन अंतर्ध्यान हो गए।     

कुछ ही क्षणों में महाकाय तमवात यज्ञ शाला के पास पड़ा था।  तब बंधन जकड़े तमवात ने कहा, 'मुनिवर आप महान तपस्वी हो, यज्ञ के ताप से मैं यहां बंधन में जकड़ा हुआ हूँ, मेरा क्या दोष है और आप मेरा क्या करेंगे?

मुनिवर, 'तमवात, तुमने अकारण ही यहां यज्ञ में विघ्न डाला और गौओं को उठा कर ले गए , ये तुम्हारा अपराध है।  तुम्हें श्राप देकर मैं तुम्हें व्याघ्र योनि में डाल दूंगा। '

'परन्तु मुनिवर मैं दैत्य हूँ, उत्पात करना मेरा स्वाभाव है और गौ मेरा भोजन, ये कैसा अपराध? अतिरिक्त, अगर आप मुझे श्राप  देंगे तो आपके दस वर्षों के तप की ऊर्जा का ह्रास होगा और आप इस आश्रम में सभी ऋषियों के गुरु नहीं रह पाएंगे।'

'क्यों न हम शास्त्रार्थ करें, पराजित होने पर मैं स्वयं इस अरण्य से चला जाऊँगा।'
'तुम दैत्य हो तुमसे शास्त्रार्थ वर्जित है। '
'आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः' यह वेद वाक्य है इस दृष्टि से मेरे दैत्य होने पर भी आप मुझ से ज्ञान अर्जित कर सकते हैं अतः मुझ से शास्त्रार्थ पूर्णतः शास्त्र संगत है।'   
अस्तु  ! मैं तुमसे शास्त्रार्थ को प्रस्तुत हूँ।       

मुनिवर की स्वीकृति होते ही, छात्रों ने यज्ञशाला के समीप की भूमि साफ़ कर दी और जल का छिड़काव किया। इसके मध्य एक चौकोर वेदी बनाई गई, फूलों से सज्जित कर दीप प्रज्ज्वलित कर दिया। धुप की सुगंध वातावरण में आच्छादित हो गई।  दो मृगछाला  वेदी के दोनों तरफ बिछा दी गई। पांच वरिष्ठ ऋषि निर्णायक की भूमिका में तत्पर हो मृगछालाओं के सम्मुख बैठ गए। मुनिवर मुंडकेश्वर ने भी एक तरफ बिछी मृच्छाला पर आसान ग्रहण किया। तब उन्होंने अपने सबसे उद्धण्ड शिष्य भास्कर से कहा, 'आदरणीय तमवात के पैर धोएं।  

भास्कर, 'परन्तु, मुनिवर ये तो दैत्य है ?'
मुनिवर, 'नहीं, शास्त्रार्थ को प्रस्तुत व्यक्ति पूजनीय है। '

मनमसोस कर  उद्धण्ड भास्कर को तमवाप के पैर धोने पड़े। तब मुनिवर ने एक अन्य अनाज्ञाकारी शिष्य, आनंदकर को तमवाप को चन्दन का तिलक लगाने को कहा।  कर्मकांडी और दकियानूसी आनंदकर ने भी नाकभौं सिकोड़ कर तमवाप को चन्दन का तिलक लेप किया। मुनिवर ने आनंदकर को फटकार लगायी, अनिच्छा से कार्य नहीं करना चाहिए। 

निर्णायक मंडली ने निश्चय किया चूँकि, तमवाप ने शास्त्रार्थ की चुनौती दी अतः, प्रश्न का प्रारम्भ मुनिवर मुंडकेश्वर करेंगे। 

शास्त्रार्थ :

मुंडकेश्वर : "अथातो ब्रह्म जिज्ञासा" बल किले ब्वाल ?
तमवाप :  स्या सूत्र बादरायण रचित ब्रह्मसूत्र का पहला सूत्र है। शब्दार्थ तो 'अब हम ब्रह्म जिज्ञासा करें' परन्तु गूढ़ अर्थ; ब्रह्म पूर्ण है, समस्त है, सर्व व्याप्त है, निर्गुण है हर आयाम , हर वस्तु, हर जीव का मूल है स्रोत है  अतः उसकी जिज्ञासा अनिवार्य है। 
मुंडकेश्वर : साधु !साधु !

तमवाप :  विष्णु क्या है , जीवात्मा या परमात्मा ?
मुंडकेश्वर : विष्णु परमेश्वर है, जगत का संरक्षक, पालन कर्ता  है।   
तमवाप : परन्तु जीवात्मा है कि परमात्मा है ?
मुंडकेश्वर : विष्णु स्वयं ब्रह्म है, परमात्मा है।  
तमवाप : अगर विष्णु स्वयं ब्रह्म है तो उस दृष्टि से हम सभी ब्रह्म हैं "अहं ब्रह्मास्मि" विष्णु में विशेष क्या है ।  वह भी कर्म करता है, दस्युओं का वध करता है,  भक्तों, ऋषियों  को संरक्षण प्रदान करता है। ये कर्म है और इसका कर्मफल होगा तो कर्मफल का भोग कौन करेगा। 
मुंडकेश्वर :  ईश्वर कर्मफल से परे है वह पूर्ण ब्रह्म है । 
तमवाप :  अगर ईश्वर पूर्ण ब्रह्म है तो वह मोक्ष प्राप्त है फिर सगुण क्यों, कर्म क्यों ? कर्म वो करता है जो किसी योनि में जीव है , ईश्वर की क्या योनि है ? कर्म करने वाला वह पूर्ण ब्रह्म नहीं हो सकता। 
मुंडकेश्वर :   ईश्वर की कोई योनि नहीं , मैं बार बार कह  रहा हूँ की वह स्वयं ब्रह्म है। 
तमवाप : आप जो कह रहे हैं उसमें घोर विरोधाभास है। पूर्ण ब्रह्म मोक्ष से प्राप्त होता है।  मोक्ष के पर्यन्त अहम का नाश हो जाता है, जीव भावहीन, मोहहीन, विरक्त महाब्रह्म में विलीन हो जाता है। कर्म के लिया माया मोह भाव आवश्यक है अतः विष्णु पूर्ण ब्रह्म नहीं है।  फिर वह किस योनि में स्थापित  है?
मुंडकेश्वर :  मुझे नहीं पता। 

यह कह कर मुंडकेश्वर ने दीपक बुझा अपनी हार स्वीकार कर ली। 

अब निर्णायकगण ऋषि परामर्श करने लगे।  कुछ समय पश्चात वरिष्ठ निर्णायक मुनि ने तमवात की तरफ दृष्टि डाली, कहने लगे, 'हे तमवात, पूर्व में श्रावस्ती नगर में ममता नाम की परम विदुषी का निवास था।  किसी भी समस्या का तर्कसंगत समाधान  उसके पास था।  नगर के धनपति,  राजनितिक अधिकारी, कोतवाल और साधारण नागरिक, सभी उसके पास परामर्श के लिए आते थे।  उसकी ख्याति नगर के पर्यन्त भी फैली हुई थी।  एक बार वेद तिमिरम नाम का श्रेष्ठि उसके पास आया और कहने लगा, देवी आप परम विद्वान हैं अतः यदि मैं आपके प्रश्न का उत्तर न दे सका तो आपको 10 स्वर्ण मुद्रा दूंगा परन्तु यदि आप मेरे प्रश्न का उत्तर न दे सकी तो आपको मुझे 100 स्वर्ण मुद्रा देनी होंगी।  देवी ममता इसके लिए सहर्ष मान गयी।  तब श्रेष्ठि ने प्रश्न किया , 'ऐसा कौन सा जीव है जो तीन पैर से चलता है, उसके दो मुख हैं और एक छलांग में हिमालय चढ़ जाता है ?
देवी ममता हतप्रभ रह गयी, बहुत विचार बाद उसने 100 स्वर्ण मुद्रा वेद तिमिरम को दे दी।  फिर पूछा, ऐसा कौन सा जीव है ?
अब बेहया वेद ने अपनी झोली से 10 स्वर्ण मुद्रा निकाल कर  देवी ममता को प्रस्तुत कर दी और कहा मुझे भी नहीं पता और अपनी राह चला गया। 

तमवात, हमारा निर्णय है के यदि तुमने अपने प्रश्न का तर्कसंगत और संतोषजनक उत्तर दिया नहीं दिया तो तुम्हें शास्त्रार्थ का विजेता नहीं घोसित किया जाएगा। 

तमवात : अवश्य मुनिवर। आपकी आशंका निराधार नहीं।  मैं पूरी चेष्टा करूंगा की मेरा उत्तर आप लोगों को संतुष्ट कर दे। अस्तु !

विष्णु कौन है? विष्णु , द्रव्यमान रहित, अमूर्त तरंगित माया हैं।  जिस तरह 'विचार' का द्रव्यमान नहीं होता, अमूर्त होता है फिर भी जीव को प्रभावित करता है उसी तरह माया भी अमूर्त है उसका स्वरुप नहीं परन्तु वह जीव को प्रभावित करती है।  माया कर्म और कर्म फल से परे है , न वह जीवात्मा है न परमात्मा है वह छलावा है, मृगमरीचिका।  विष्णु माया ही हैं। 

मुनिगण : साधु !साधु ! अंत्यंत हर्ष से हम घोषणा करते हैं के तमवात शास्त्रार्थ में विजयी रहे। 

उसी समय व्योम में मेघ आंदोलित हो उठे, भीषण गड़गड़ाहट से चपला चमत्कृत करने लगी और फिर आकाशवाणी हुई ,

"तमवात , तुम श्राप मुक्त हो गए हो , अपने मूल रूप काली हवा को प्राप्त हो जाओगे। "

उसी क्षण तमवात में परिवर्तन हुआ , उस स्थान पर स्नीकर्स, जीन्स और टी-शर्ट पहने  टकला व्यक्ति खड़ा था।  काली हवा !             

इति कथा।









कृष्ण गन्धवह

 प्राचीन काल में  त्रिस्ता नदी के तट ऋषिवर तुंडकेतु का आश्रम था। तुंडकेतु की छत्रछाया में अनेक ऋषि और विद्यार्थी श्रमपूर्वक अध्यन और तप कर रहे थे।  कालांतर में तुंडकेतु का एक प्रतिभाशाली तेजस्वि पुत्र हुआ। ऋषिवर ने पुत्र का नाम  कृष्ण गन्धवह रखा।  पुत्र अत्यंत ही मेधावी था। चार वर्ष का होते होते उसने सभी वेदों में पारंगता प्राप्त कर ली थी; छह वर्ष होते होते वह वेदांत में भी पारंगत हो गया और शास्त्ररार्थ में अपने से कई वर्ष वरिष्ठ विद्यार्थियों और ऋषियों को परास्त करने लगा। 

सात वर्ष का होते होते आश्रम में तुंडकेतु के अतिरिक्त कोई भी  ऐसा नहीं था जो उस के साथ शास्त्ररार्थ कर सके।  अब गन्धवह सभी को 'वत्स' कह कर पुकारने लगा। पहले तो सबने इसे हंसी में टाल दिया पर जब गन्धवह अपने व्यवहार से विचलित  नहीं हुआ तो सभी आश्रम में रहने वाले ऋषियों ने तुंडकेतु से इस बात का आक्षेप लगाया कि गन्धवह उन सभी को वत्स कह कर उनकी अवहेलना करता है अपमान करता  है।  यह सुनकर तुंडकेतु चकित रह गए, गन्धवह के  व्यवहार से पीड़ित हो गए।  तब उन्होंने गन्धवह को बुलाया और अपने व्यवहार का कारन बताने को कहा।  तब गन्धवह ने कहा :

वरिष्ठः जन्मना न भवति, ज्ञानेन भवति।
ज्ञानं प्रदाता शिष्येभ्यः वरिष्ठः। 

(Seniority is not by birth but by knowledge. The one who imparts knowledge is senior)


विक्रम और वेताल

 हठी विक्रमार्क ने वृक्ष से शव उतरा, कंधे पर रख चुप चाप शमशान की तरफ चलने लगा। तब उस शव में स्थित वेताल ने कहा, 'विक्रम,  मैं तुम्हारे अदम्य साहस की प्रशंसा करता हूँ।  रास्ता लम्बा है और थकाऊ अतः थकान दूर करने की लिए तुम्हे एक कथा सुनाता हूँ। 

प्राचीन ताम्रलिप्ति में एक वणिक चंद्र बडोला रहता था। चूँकि ताम्रलिप्ति एक बड़ा समुद्र पट्टन था; जावा, सुमात्रा श्याम इत्यादि देशों से सामान से लदे बेडों का आना जान लगा रहता था  अतः उसका व्यवसाय अच्छा फलफूल रहा था।  परन्तु बडोला को द्यूत, अक्षक्रीड़ा की लत थी।  एक बार आनंद नाम का धूर्त  बडोला को नगर नर्तकी अम्बशोभा के महल ले गया जहाँ नृत्य के साथ द्यूत भी खेला जाता था।  अम्बशोभा के महल में आनंद काने ने पहले ही अपने मित्र अशोक चाकू और भास्कर बन्दूक को बुला रखा था।  तीनों ने मिल कर चंद्र बडोला को भरपूर मद्यपान कराया, जब वह होश में नहीं रहा तब उसे काली हवा के समुद्री बेड़े में फेंक दिया।  काली हवा का समुद्री बेड़ा सुमात्रा, जावा हो कर बाली जाने वाला था। इधर बेसुध बडोला, जलयान के उस खोंचे में पड़ा था जहां लाख, ताम्बे और चांदी बने हज़ारों गहने व्यापार के लिए रखे थे। उधर इन तीनों धूर्तों ने बडोला के व्यवसाय पर क़बज़ा कर लिया।  अगले दिन जब बडोला को होश आया तब वह अचंभित रह गया, अपने को लाख के बने खिलौनों और गहनों के ढेर पड़ा पा वह किंकर्तव्यविमूढ़ रह गया साथ ही डोलते लकड़ी के भंडार से उसे आभास हो गया की वह तो किसी व्यापारी बेड़े में है।  किसी तरह उसने शोर मचा कर नाविकों का ध्यान आकर्षित किया।  कपाट के खुलने पर नाविक भी अचरज में आ गए के ये कौन आगंतुक है और कैसे पोत में  आ गया।  व्यापारी काली हवा को खबर मिली के एक अनजान व्यक्ति भंडार गृह में पाया गया। पहले तो वह आगबबूला  हो उठा, फौरी तौर पर उसने कहा उस अनजान व्यक्ति को समुद्र में फेंक दिया जाय क्योंकि एक अनावश्यक व्यक्ति यात्रा में बोझ था पर फिर विचार कर उसने उस अनजान व्यक्ति को प्रस्तुत करने को कहा। बडोला प्रस्तुत होने पर काली हवा ने कहा, 'तुम कौन हो जलपोत पर कैसे? यदि तुम इसका समुचित कारण न बता सके तो तुम्हें समुद्र में फेंक देंगे। '

बडोला की सिटी पिट्टी गम हो गई, घिघियाते हुआ उसने अपने कहानी बताई फिर कहा वह इस यात्रा में जो कुछ भी उसे कार्य दिया जायेगा वह निष्ठा से करेगा और लौटने पर काली हवा को 100 स्वर्ण मुद्रा भी देगा।  

तब काली हवा अपने निजी पुरोहित, शुभाकर को बुलाया और पूछा की क्या बडोला सच बोल रहा है?

तब शुभाकर ने बडोला की हथेली देख कर कहा, 'ये निश्चित है के व्यक्ति ठग नहीं है। '

तत्पश्चात काली हवा ने बडोला को रसोइये का सहायक नियुक्त कर दिया और भुज्जी काटने, भाड़ा बर्तन धोना इत्यादि का उत्तरदायित्त्व सौंप दिया।  इसके अतिरिक्त, चूँकि बडोला पढ़ लिख सकता था और हिसाब लगाना आता था अतः उसे जलपोत की लॉगबुक एंट्री करना, विभिन्न पट्टन का विवरण, व्यापर की बही वगैरह को अप टू डेट रखना वगैरह कार्य भी उसी के हवाले कर दिया। 

इधर ताम्रलिप्ति में आनंद 'काना', अशोक 'चाकू' और भास्कर 'बन्दूक' ने चंद्र बडोला के अड्डे पर धावा बोल दिया पर उन्हें वहां कुछ न मिला। एक पुस्तिका मिली जिसमें   गुप्त संकेतों में उनके लोगों के नाम थे जिनसे बडोला को पैसे वसूलने थे, मात्रा 5 मुद्राएं, कुछ सौ कौड़ियां और दमड़ी मिली।  इन तीनों ग्याडूओं को व्यापार का कुछ भी ज्ञान न था अतः अड्डे में पड़ी सामग्री औने-पौने दामों में बेच दी।  जो पैसा मिला रात, अम्बशोभा के महल में मद्यपान और द्यूत में गँवा दिया। 'काने' ने देखा केवल तीन स्वर्ण मुद्रा बची थी उसने मटके में भरे पानी में विष घोल दिया। जब 'चाकू' और 'बन्दूक'  सुबह उठे तो रात मद्यपान के कारण dehydrated थे दोनों ने छक कर पानी पिया। देखते देखते 'चाकू' और 'बन्दूक' ने गाला पकड़ लिया, बात समझने में देर न लगी तब 'चाकू' ने चाकू फ़ेंक कर 'काने' पर प्रहार किया साथ ही साथ  'बंदूक' ने तमंचा निशाने पर दाग़ दिया।  मृत्यु के बाद तीनों ही पिशाच योनि को प्राप्त हुए।  

उधर बडोला निष्ठापूर्वक कार्य करता रहा, बाली पहुँचने पर काली हवा ने प्रसन्न हो कर उसे १०० स्वर्ण मुद्राएं दी साथ ही सभी बचे हुए लाख, ताम्बे और चांदी के गहने उसे दे कर वहीं व्यापार करने का परामर्श दिया जिसे बडोला ने सहर्ष स्वीकार कर लिए।  परन्तु उसके ह्रदय में बदले की भावना आग की तरह सुलग  रही थी। 

दो वर्ष हुए बडोला ने मेहनत और कौशल से बाली में अच्छा व्यापर खड़ा कर लिया परन्तु ताम्रलिप्ति में जो हुआ उसको वह भुला न पाया। अपना प्रतिष्ठान अच्छे लाभ पर बेच कर वह लौटने को प्रस्तुत हुआ।  ताम्रलिप्ति लौटने पर वह अच्चम्भित रह गया।  उसके पूर्व में व्यवस्थित व्यापार का भट्टा बैठा था,  भवन जहाँ से उसका व्यापार चलता था, खंडहर बना हुआ था परन्तु सबसे दुःखदायी दृश्य  भवन के सामने बरगद वृक्ष के नीचे उसने देखा कि उसकी पत्नी , कलिण मीनाक्षी देवी और बेटी भीख मांग रहे थे।  वह क्रोधित हो उठा और कलिण मीनाक्षी को फटकार लगाई के वह भीख क्यों मांग रही है। उसने 1000 स्वर्ण मुद्राएं उसी बरगद के नीचे एक कलश में भर गाड़ रखी थी और ये बात  कलिण मीनाक्षी को कई बार बताई थी।  कलिण मीनाक्षी भी तैश में आ गई और कहने लगी। अचानक ही उसके लापता होने से वह किंकजर्तव्यविमूढ़ हो गई थी, जो कुछ घर में था उससे जितने दिन चल सका चला फिर भीख के अतिरिक्त कोई गुज़ारा न था।  जो हुआ सो हुआ, कह बडोला ने फिर से भवन की मरम्मत करवाई और अपना पुराना व्यापार फिर से खड़ा कर लिया।  इस बात की उसे घोर निराशा थी के वे तीनों आतताई मृत्यु के ग्रास हो चुके थे जिनसे बदला लेने की भावना उसके ह्रदय में प्रज्ज्वलित थी।  

कुछ दिन उपरांत नयी समस्या खड़ी हो गई उसके निवास पर प्रेतों का उत्पात प्रारम्भ हो गया। बर्तन डोलने लगते, चारपाई अपनी जगह से दूसरी जगह मिलती, भात डोंगे से बहार भूमि पर गिरा मिलता। बडोला परिवार परेशान हो गया। तब उसने ओझा वेद 'निर्भगी' को बुलाया और समस्या का निदान करने की उपाय सुझाने को कहा। 'निर्भगी' ने झाड़ू, छिपकली, चमगादड़ और शमशान की राख लाने को कहा। बडोला ने अपने सहायक ओम 'गूंगा' को पैसे दे कर सब सामान की व्यवस्था कर दी।   'निर्भगी' ने रात 12 बजे अग्नि जला कर डोंगे में छिपकली और चमगादड़ पकाया , राख की छौंक लगाई , झाड़ू से मिक्स कर एक कुल्हड़ भर पी लिया।  फिर क्या था कुछ ही देर में  'निर्भगी' दृश्यहीन हो गया।  कोलाहल होने लगा, अदृश्य जगत में थप्पड़, चांटे के आवाज़ें गूँज रही थी। फिर सब शांत हो गया।  कुछ ही देर बाद  'निर्भगी' मूर्छित अवस्था में वहां दृश्यगत हुआ।  होश में आने पर उसने बताया कि बडोला निवास पर 'काना', 'चाक़ू' और 'बन्दूक' पिशाचों का प्रकोप है।  वे तीनों ही पिशाच योनि में तब तक रहेंगे जब तक उनका विधिवत दाह संस्कार न होगा।  

यह कह कर वेताल रुक गया, कहने लगा, 'विक्रमार्क बडोला की दुविधा देखो, एक तरफ वह इन तीनों दुष्टात्माओं को दण्डित करना चाहता है दूसरी तरफ स्वयं एवं परिवार की शांति , उसे इन दोनों अवस्थाओं में से एक को चुनना है? तुम बताओ कौन सा मार्ग तर्कसंगत है।  यदि जानते हुए भी तुम उत्तर न दिया तो तेरे मुंड के टुकड़े टुकड़े हो जायेंगे।  


अहंकार

 कृष्ण गन्धवह बड़ा हुआ और पिता की आज्ञा ले कर देशाटन  को निकल गया।  मेधावी तो था ही शास्त्रार्थ में दिग्गजों को पराजित कर, अभिमान से भरा  वह ...