सवाल उठता है की क्या समाज में नैतिक व्यवहार (ethical behavior) धर्म की वजह से है और अगर ऐसा है तो धर्म की आवश्यकता अपरिहार्य है अन्यथा धर्म मात्र हमारी अध्यात्मिक मांग है सामाजिक ज़रूरत नही।
अक्सर धर्म को हमारे नैतिक व्यवहार का कारण माना जाता है जबके सत्य इसके विपरीत है यानी धर्म स्वयं ही हमारे प्राकृतिक नैतिक व्यवहार का नतीज़ा है। नैतिक व्यवहार हमारे मानस में 'hardwired' है यानी हमारा प्राकृतिक गुण है। दरअसल निरंतर प्रजातीय विकास के दौरान जब हमने कबीलों में रहना सीखा यह उस वक्त विकसित हुआ होगा। चूंके प्रजातीय विकास का मुख्य इंजन 'survival' है और कबीलाई जीवन नैतिक व्यवहार के बिना संभव नही इसलिए इसका निरंतर विकास होता चला गया।
अर्थात समाज को धर्म की ज़रूरत नही है व्यक्तिगत तौर पर चाहे कुछ लोगों को इसकी ज़रूरत हो ........
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दैत्य का उद्धार
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धर्म और रिलिजन में अंतर है। हिंदू धर्म नहीं सम्प्रदाय नहीं बल्कि जीने की एक पद्धति है। इस पद्धति में वसुधैव कुटुमबक का सिद्द्धान्त है। live and let live- परंतु आज धर्म और सम्प्रदाय को पर्याय मान लेने से यह दुविधा पैदा हो गई है। स्वभाव से मनुष्य हिंसक है और धर्म ही उसे सह-अस्तित्व और अहिंसा का पाठ पढाता है। ..और जो यह नहीं पढता, वह आतंकवादी हो जाता है।
क्या मनिष्य स्वभाव से हिंसक है? मुझे ऐसा नही लगता. मनुष्य हिंसक अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए है जैसे अन्य प्राणी. धर्म चाहे जिस भी नाम से पुकारा जाए हमें अहिंसक और नैतिक नही बनाता बल्कि हमारा स्वभाव ही ऐसा गुणों को धर्म का हिस्सा बनते हैं.
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