जब वहसी गरमी मचलती है
आलम को रौंदती चलती है
एक गर्द की चादर से दुनिया
मायूसी में ढक जाती है
हर सू इंसान पस्त पड़े
हर सू दरख्त निढाल पड़े
रहती है तलाश उस वक़्त हमें
एक ठंडी हवा नमी से लदी
कहते हैं पाप जब बढ़ जाता
उस वक़्त मशीहा आता है
पहले सन्नाटा छाता है
दूर अब्र का साया दिखता है
एक ठंडा झोंका पस्त पड़ी
जुल्फों को सहला जाता है
फिर कडकती बर्क़ से वहसी भी
दुम अपनी दबा छिप जाता है
रिमझिम रिमझिम बूंदों से
हर चेहरा खिल खिल जाता है
पत्तों में रौनक़ आ जाती
परिंदे तब परवाज़ हुवे
धुल जाती गर्द की चादर है
रौनक हर शै पर लौटती है
दिन ज्यूँ ज्यूँ बढ़ते जाते हैं
ढक लेते फ़लक़ को बादल हैं
रिमझिम की जगह अब तूफां हैं
सन सन चलती हवाएँ हैं
दरिया और समंदर में
मौजें उठती और उतरती हैं
हर शै अब नम है लिज़ लिज़ है
और घर से निकलना दूभर है
मैं अपने झरोखे पे बैठा
बूंदों के परदे से ढका समा
फिर लेकर जाम एक लबालब
परदे को चीर उस पार दूर
कुछ छोटे मकाँ पानी से घिरे
सड़कों का तो पता ही नहीं
सिलसिले हैं ईंट पत्थरों के
उन पर करतब करते इन्सां
धीमे धीमे चलते हैं
ये लोग हैं रोज़ कमाते हैं
फिर जा कर खा पी सकते हैं
रिमझिम बूँदें गिरती हैं
रिमझिम बारिश होती है
- मुखतलिफ़
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