Saturday, June 22, 2013

बारिश कला और ज़िंदगी


जब वहसी गरमी मचलती है 
आलम को रौंदती चलती है 
एक गर्द की चादर से दुनिया 
मायूसी में ढक जाती है 
हर सू इंसान पस्त पड़े 
हर सू दरख्त निढाल पड़े 
रहती है तलाश उस वक़्त हमें 
एक ठंडी हवा नमी से लदी 
कहते हैं पाप जब बढ़ जाता 
उस वक़्त मशीहा आता है 
पहले सन्नाटा छाता है 
दूर अब्र का साया दिखता है 
एक ठंडा झोंका पस्त पड़ी 
जुल्फों को सहला जाता है 
फिर कडकती बर्क़ से वहसी भी 
दुम अपनी दबा छिप जाता है 
रिमझिम रिमझिम बूंदों से
हर चेहरा खिल खिल जाता है   
पत्तों में रौनक़ आ जाती 
परिंदे तब परवाज़ हुवे 
धुल जाती गर्द की चादर है 
रौनक हर शै पर लौटती है 

दिन ज्यूँ ज्यूँ  बढ़ते जाते हैं 
ढक लेते फ़लक़ को बादल हैं
रिमझिम की जगह अब तूफां हैं 
सन सन चलती हवाएँ हैं  
दरिया और समंदर में 
मौजें उठती और उतरती हैं 
हर शै अब नम  है लिज़ लिज़ है 
और घर से निकलना दूभर है 
मैं अपने झरोखे पे बैठा 
बूंदों के परदे से ढका समा 
फिर लेकर जाम एक लबालब 
परदे को चीर उस पार दूर 
कुछ छोटे मकाँ पानी से घिरे 
सड़कों का तो पता ही नहीं 
सिलसिले हैं ईंट पत्थरों के 
उन पर करतब करते इन्सां  
धीमे धीमे चलते हैं 
ये लोग हैं रोज़ कमाते हैं 
फिर जा कर खा पी सकते हैं 

रिमझिम बूँदें गिरती हैं 
रिमझिम बारिश होती है 

-         मुखतलिफ़ 

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